व्यंग्य- यार तनिक सुधरो
यार तुम लफड़े पैदा न किया करो |तुम्हे कित्ती बार समझाए कि तुम्हारे उलटे –सीधे बयानबाजी के कारण
राजनीति में भूचाल आ जाता है | तुम तो बोलकर खिसक लेते हो , झेलना हमें पड़ता है
|काहे कि हम सत्ताधीन पार्टी के मुखिया हैं | हमारी और हमारी पार्टी की ऐसी-तैसी
करने में तुले हो | बच्चों की तरह कुछ भी अंट-शंट बकने के लिए मचल जाते हो |ज्यों –ज्यों
बुढा रहे हो तुम्हारी बुद्धि सठियाते जा रही है |लोग कहते हैं –बुढापा अनुभव का
खजाना होता है ,तुम येई खजाना अपनी खोपडिया
में भरे बैठे हो |जैसा मुंह में आया बक दिए |जानते नहीं का कि आजकल सत्ता
प्राप्त करना कितना कठिन काम है |बड़ी मुश्किल से हाथ लगती है |वेश्या होती है
वेश्या | बिना खर्च किये और ईमानदारी की नशीली गोली खिलाये बगैर बाहों में नहीं
आती |
पद तुम्हें का दे दिए पार्टी
के बुजुर्ग समझकर ,तुम जुबान में गाँठ लगाना ही भूल गए | तुम्हें पद दिए हैं , पद
का स्थायी पट्टा नहीं दिए हैं | यूँ ही अगर जुबान की लंगोट खोलते रहोगे तो एक दिन
पद की लंगोट के लिए तरसते रह जाओगे | पंद्रह दिन नहीं गुजरा
कछु भी अंट –शंट बक दिए | कित्ती आलोचना हो रही पार्टी की और सरकार की |
किसिम किसिम के आरोप लगा रहे हैं विपक्षी , जनता और ,मीडिया |तुम्हारे कान में कछु
असर नहीं हुआ का |
परसों की टी.वी. डिबेट में विपक्षी व एंकर ऐसे प्रश्न कर रहे थे
तुम्हारी फिसली जुबान से निकले बयान को लेकर | हमें जवाब देते हुए पसीना छूट
रहा था |पर संभाले | सौ परसेंट फर्जी बातों का जाल फेंके |हामी जानते हैं हमारी का
हालत हो गई थी |एक तुम हो कि ऊंची नाक कर बकवासी बातों के कंकण उछालते रहते हो |
याद है तुम्हें |पिछली बार तुमने कितना घटिया बयान दिया था |प्रदेश के
शिक्षकों को भिखारी कह दिया था | तुम्हें शर्म नहीं आयी | पांच सितम्बर को गुरूजी
लोगों को अपना आदर्श बताकर, पुरुस्कृत कर उनका गुणगान करते हो |और दो दिन ऐसा बयान
दे दिए , जैसे वे तुम्हारी रखैल हों | तनिक शर्म करो यार |गुरु गुरु होता है | जिस
दिन महागुरु बनने का वैचारिक अमरबेल उसके
दिमाग में पनप गया न | चुनाव में सबक सिखा देगा |
पिछली सरकार का हालत बनायी शिक्षक समुदाय ने |सट्टा को तरस गए आज तक |
भैया तनिक कर्मचारियों की इज्जत करना सीखो |तुम्हारी खोपादिया में भूसा भरा है का
| पद मिला तो बुद्धि भी जब तब घास चरने चली जाती है |
माना कि अपन कर्मचारियों को मुट्ठी में कसना जानते हैं | यूँ भी
आश्वाशन के दम पर जब तब उल्लू बनाते रहते हैं | सत्तामद में आकर उनकी छाती पर बैठ
कर गन्दी जुबान का इतना भी भार न डालो कि वे उड़ान भरें और दन से जमीन पर पटक दें |
और तुम भी उठाने लायक न रहो |
ऐसी तुमने कह दिया किसान मर रहे हैं तो हम का करें |कछु करो न करो
|मगर अपनी जुबान से उनके लोगों के घावों में नमक तो न भरो |
लाफदेबाजी से कछु हल नहीं होना है | जुबान को लगाम देकर बस सट्टा
काआनंद लो |जनता भी यही चाहती है ,कोई उसके जख्मों को सहलाता रहे और वह गुदगुदी की
गहरी नींद में सोती रहे | येई में अपनी ऐश है मेरे भाई| अब तो समझ गए न......|
सुनील कुमार ‘’ सजल ‘’
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