रविवार, 18 अक्तूबर 2015

व्यंग्य- यार तनिक सुधरो

व्यंग्य- यार तनिक सुधरो



यार तुम लफड़े पैदा न किया करो |तुम्हे कित्ती बार समझाए  कि तुम्हारे उलटे –सीधे बयानबाजी के कारण राजनीति में भूचाल आ जाता है | तुम तो बोलकर खिसक लेते हो , झेलना हमें पड़ता है |काहे कि हम सत्ताधीन पार्टी के मुखिया हैं | हमारी और हमारी पार्टी की ऐसी-तैसी करने में तुले हो | बच्चों की तरह कुछ भी अंट-शंट बकने के लिए मचल जाते हो |ज्यों –ज्यों बुढा रहे हो तुम्हारी बुद्धि सठियाते जा रही है |लोग कहते हैं –बुढापा अनुभव का खजाना होता है ,तुम येई खजाना अपनी खोपडिया  में भरे बैठे हो |जैसा मुंह में आया बक दिए |जानते नहीं का कि आजकल सत्ता प्राप्त करना कितना कठिन काम है |बड़ी मुश्किल से हाथ लगती है |वेश्या होती है वेश्या | बिना खर्च किये और ईमानदारी की नशीली गोली खिलाये बगैर बाहों में नहीं आती |
 पद तुम्हें का दे दिए पार्टी के बुजुर्ग समझकर ,तुम जुबान में गाँठ लगाना ही भूल गए | तुम्हें पद दिए हैं , पद का स्थायी पट्टा नहीं दिए हैं | यूँ ही अगर जुबान की लंगोट खोलते रहोगे तो एक दिन पद की लंगोट के लिए तरसते रह जाओगे | पंद्रह  दिन नहीं गुजरा  कछु भी अंट –शंट बक दिए | कित्ती आलोचना हो रही पार्टी की और सरकार की | किसिम किसिम के आरोप लगा रहे हैं विपक्षी , जनता और ,मीडिया |तुम्हारे कान में कछु असर नहीं हुआ का |
परसों की टी.वी. डिबेट में विपक्षी व एंकर ऐसे प्रश्न कर रहे थे तुम्हारी  फिसली जुबान से निकले  बयान को लेकर | हमें जवाब देते हुए पसीना छूट रहा था |पर संभाले | सौ परसेंट फर्जी बातों का जाल फेंके |हामी जानते हैं हमारी का हालत हो गई थी |एक तुम हो कि ऊंची नाक कर बकवासी बातों के कंकण उछालते रहते हो |
याद है तुम्हें |पिछली बार तुमने कितना घटिया बयान दिया था |प्रदेश के शिक्षकों को भिखारी कह दिया था | तुम्हें शर्म नहीं आयी | पांच सितम्बर को गुरूजी लोगों को अपना आदर्श बताकर, पुरुस्कृत कर उनका गुणगान करते हो |और दो दिन ऐसा बयान दे दिए , जैसे वे तुम्हारी रखैल हों | तनिक शर्म करो यार |गुरु गुरु होता है | जिस दिन महागुरु बनने का वैचारिक अमरबेल  उसके दिमाग में पनप गया न | चुनाव में सबक सिखा  देगा |  
पिछली सरकार का हालत बनायी शिक्षक समुदाय ने |सट्टा को तरस गए आज तक | भैया तनिक कर्मचारियों की इज्जत करना सीखो |तुम्हारी खोपादिया में भूसा भरा है का | पद मिला तो बुद्धि भी जब तब घास चरने चली जाती है |
माना कि अपन कर्मचारियों को मुट्ठी में कसना जानते हैं | यूँ भी आश्वाशन के दम पर जब तब उल्लू बनाते रहते हैं | सत्तामद में आकर उनकी छाती पर बैठ कर गन्दी जुबान का इतना भी भार न डालो कि वे उड़ान भरें और दन से जमीन पर पटक दें | और तुम भी उठाने लायक न रहो |
ऐसी तुमने कह दिया किसान मर रहे हैं तो हम का करें |कछु करो न करो |मगर अपनी जुबान से उनके लोगों के घावों में नमक तो न भरो |
लाफदेबाजी से कछु हल नहीं होना है | जुबान को लगाम देकर बस सट्टा काआनंद लो |जनता भी यही चाहती है ,कोई उसके जख्मों को सहलाता रहे और वह गुदगुदी की गहरी नींद में सोती रहे | येई में अपनी ऐश है मेरे भाई| अब तो समझ गए न......|

                   सुनील कुमार ‘’ सजल  ‘’

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें