लघुव्यंग्य – शर्ट
‘’ इतनी महँगी शर्ट ...खरीदकर लाए हो
...आमदनी तो तीन हजार मासिक है मगर स्टेंडर्ड दस हजार के बराबर ...शर्म नहीं आयी
तुम्हें ...|’’ बाबूजी ने रुपेश की शर्ट
देखते हुए उसे फटकार लगाई |
‘’ ब्बाबूजी ... आप भी किस जमाने की बात कर
रहे हैं ? आजकल तो इंसान की इज्जत उसकी पोषक व दिखावे में है...आमदनी का दायरा कोई
नहीं देखता ...| जब तक स्टेंडर्ड मेंटेन है तब तक इंसान की इज्जत है वरना फुटपाथ
का...|’
बाबू जी खामोश......|
lllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllllll
लघुकथा –करतूत
अगस्त का महीना | अवर्षा की स्थिति |
ओझा-पंडित तालाबों व नदी-नालो से मेंढकों को पकड़ –पकड़ कर वर्षा के लिए ‘’ग्राम्य
देवता’’ को मनाने के नाम पर उनकी बलि दे रहे थे |
गाँव
के ही एक तालाब में रह रही एक मेंढकी ने अपने मेंढक से कहा – ‘’ प्रिय , देख रहे
हो इंसानों की करतूत ! वर्षा के लिए हमारे समाज की कैसी दुर्गति कर रहे हैं ये?’’
‘’ हाँ , सब देख रहा हूँ ... | जैसे पानी
बरसाने का टेका हम मेंढकों ने ही ले रखा है | ये इंसान अपनी करनी के गिरबान में
झाँक कर तो कभी नहीं देखते ‘’ मेंढक ने दुखी मन से कहा , फिर थोड़ा रुक कर बोला ,
‘’ जब- जब धरती पर स्वार्थी इंसान को जरुरत से ज्यादा भूख सताती है, तब-तब वह
प्रकृति और उसके जीवों की आत्मा के साथ खुलकर खिलवाड़ करता है, जिसका न्याय होता
कहीं दिखाई भी नहीं देता |’’
‘’ धैर्य रखो प्रिये ! ईश्वर के घर देर है
अंधेर नहीं |’’ रुआंसी मेंढकी इतना कहकर अपने मेंढक की बाहों में सर रखकर चिंतित
नज़रों से एक टक नीले आसमान की और ताकने लगी |
सुनील कुमार ‘’ सजल’’