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सोमवार, 15 जून 2015

व्यंग्य - हमारी झोला छापगिरी

व्यंग्य - हमारी झोला छापगिरी 

पहले झोला लेकर चलना सोशल स्टेटस के लिए खतरा नहीं था। बिना झोला लिए घर से निकलते नहीं थे लोग। झोला नए कपड़े का रहा हो या पुराने का। झोला तो झोला होता था। लेकिन अब…? पुराने स्टाइल का झोला लेकर चलिए ?वह आपके स्टेट्स पर प्रश्न चिन्ह लगा देगा। आधुनिकता के इस दौर में साहब ,दुकानदार न्यू डिज़ायन के झोले भेंट में देते हैं। तब के झोले और अब के आधुनिक डिज़ाइन वाले झोले में फर्क यह होता है साहब पहले वाले मजबूत होते थे। और अब के तो पांच से दस किलो के वजन में ही दम तोड़ने लगते हैं। आधुनिक जीवन शैली में जीने वालो की तरह। 
यूँ तो हमारी आदत रही है कि एक झोला साथ में रखकर ही दफ्तर या बाजार के लिए निकलते हैं। यदि किसी दिन हाथ में झोला न हो तो बड़ी बैचैनी होती है। 
झोला भले ही मार्किट से बिना भरे लौटा कर ले आएं। पर साथ में झोला रखकर चलना हमारी आदत है। परम्परावादी विचारों को आज भी जीवित रखे हैं। हमारे खानदान में हर किसी की आदत हाथ में झोला रखकर ही घर से बाजार या घूमने के लिए निकलने की रही है। 
किस प्रकार के झोले रखकर चलने के आदि हैं ? भाई साहब कभी दो मीटर तो एक मीटर का भी रख लेते हैं। कभी -कभी तो अनाज की प्लास्टिक बोरी को झोले में रखकर निकल पड़ते हैं। यार झोला ही ही तो है कोई ब्राण्डेड शूटिंग के कपड़े का झोला बनवाता है क्या ?
साहब इन दिनों हम बड़े परेशान है। हमारी झोला रखने की आदत पर लोग हमें झोला छाप कहने लगे हैं। कहते हैं -यार झोला छाप शर्मा जी रोज झोला लेकर दफ्तर आते हैं। इत्ते बड़े झोले में क्या भरकर ले जाते हैं। जबकि वे छोटा परिवार -सुखी परिवार के अनुयायी हैं। साहब उन्हें कैसे समझाएं कि सस्ता बटोरना हमारी खानदानी परंपरा रही है। सामाजिक स्तर का मामला है। 
एक दिन पटेल जी बोले -'यार ,शर्मा इस बड़े से झोले में ऐसी कौन सा माल भरकर घर ले जाते हैं। एक तो आप ठहरे आप पार्टी के विचारधारा वाले व्यक्ति। क्लर्क होकर भी आशा राम बापू की आध्यात्मिक सीख मोह -माया से दूर रहो के पूजक रहे हो। फिर इत्ती सी तनख्वाह अकेले से ,रोज़ाना थैला में …?
हमने कहा -''भाई झोला लटकाये इसलिए चलते हैं। कुछ सस्ता सामान तो खरीदकर बटोर लेते हैं। ''
''यार जित्ता तुम खरीदते होंगे उतना तो दुकानदार पोलिथिन बैंग में दे देता होगा। फिर काहे बोझ उठाए चलते हो। 
हम उन्हें कैसे समझाते। भैया झोला हमारे खानदानी व्यवस्था का हिस्सा है। सादे -पुराने झोले में हमारे हजारों रुपये रखकर शहर जाते और हजारों का लेन देन कर आते थे। इत्ते रुपये से भरे झोले को बस के रैक में यूँ ही रख देते थे ,जैसे तुच्छ सामग्री हो। पर,किसी की नियत डोल नहीं पाती थी। दिखने में वह इत्ता बदसूरत होता था कि लोग उसे छूने तो क्या देखकर ही नाक -भौं सिकोड़ लेते थे। लुटेरे -चोर भी झोला देखकर सोचते रहे होंगे। नंगों को और क्या नंगा करना। 
झोला छाप कहने पर उन चिकित्सकों को बड़ा धक्का लगता है। जो फ़र्ज़ी डिग्री के सहारे चिकित्सा करते हैं। आम गरीब गुरबा व कुछ पढ़े -लिखे सभ्य जान भी जो उनके पास चिकित्सा सेवा लेने जाते हैं उन्हें डॉक्टर साब के नाम के सम्मान से नवाजते हैं। वहीँ मीडिया व बुद्धिजीवी वर्ग उन्हें झोला छाप डॉक्टर कहकर अपमानित करते हैं। वे भूल जाते हैं इस देश की जनसंख्या पर लगाम लगाने में इनका भी महत्वपूर्ण योगदान हैं। वरना देश की जनसंख्या ? और गरीब गुरबों के चिकित्सा पहुंचविहीन क्षेत्र में इनसे चिकित्सा सेवा मिल जाती है। 
सुनने को मिला है कि इन दिनों राजनीति में भी झोला छाप सलाहकारों की भरी भीड़ बड़ी है। झोला छाप सलाहकारों से घिरे हैं। कहते हैं जिस घटनाक्रम को राजनीति में घूमते -फिरते देखें वह वाकई में महत्वपूर्ण होने में ज्यादा समय नहीं लेता। 
इधर मीडिया जगत में झोला छाप पत्रकार आ गए हैं। झोला छाप पत्रकार उन्हें कहा जाता है ,जो सुनी सुनायी खबरों पर मसाले दार चुटकियों का लेप लगाकर प्रकाशित करा देते हैं ,तो फिर राजनीतिज्ञ काहे पीछे रहें। 
राजनीति , पत्रकारिता हो या चिकित्सा। झोला छापों का महत्व बढ़ा है। आप पार्टी में टोपी की तरह। हमें तो लगाने लगा है साब आने वाले दिनों में झोला भी आम जींस टॉप ,हेयर कट्स की तरह एक फैशन न बन जाए। लोग कंधे में थैला लटकाकर फैशनेबुल होने का गर्व महसूस करेंगे। लोग कहेंगे -''साब अब तो अपन भी झोला छाप बन गए। 
हम तो इसी समय के इंतज़ार में हैं साब कि झोला भी फैशन का अंग बन जाए। ताकि घर की खूँटी में टंगे अस्तित्व को तरसते विभिन्न टाइप के झोलों की हम प्रदर्शनी लगा सके। और यह बताने का प्रयास करते कि यह झोला कितनी पीढ़ी पूर्व का है। शायद मोनालिसा की तस्वीर की नीलामी की की तरह हमारे झोले भी नीलाम हो जायें। 

सुनील कुमार ''सजल''