व्यंग्य –
बसंतागमन और हम
यूँ तो
हमने जीवन के छत्तीस बसंत लल्लुओं की तरह गुजार दिए पर कभी महसूस नहीं हुआ कि हमने
बसंत को कभी बसंत की तरह जिया भी हो | कारण सीधा सा हमें यही लगा कि हमारी जन्मकुंडली
में उस बेवकूफ ज्योतिषी ने लिख रखा था, ‘’ दाम्पत्य जीवन के लड़खड़ाते सुख के अलावा
नंबर दो वाले सारे प्रेम प्रसंग असफल रहेंगे |’’
शायद
कारण यही रहा कि जीवन में प्रेमिकाएं तो नहीं आई | आई तो पत्नी , वह भी सावन की
घटा की तरह बवंडर मचाने वाली , जिसे हम आज भी ‘’ बाढ़ग्रस्त ‘’ इलाके की तरह झेल
रहे हैं |
बसंत ऋतू
में कदम रखते ही ठण्ड कुनकुनी और मौसम ब्यूटी पार्लर से सज-धज कर निकली युवती के
गालों की तरह आकर्षक गुलाबी हो चला था | चलती पुरवाई गोरी के होठों की छुअन की तरह
तन-मन को सहला रही थी | फिर भला इस ‘’ बासंती काल’’ में हमारी दिलफेंक इंसान वाली
तबीयत कब तक मुरझाये फूल की तरह रहती | उसमें भी तो बासंती रंगत आना स्वाभाविक था
|
हमने पत्नी से कहा –‘’ सुनो प्रिये बसंत (ऋतु)आ
गई |’
वे बोली –‘’
कौन बसंत ?’
‘’अरे
...बसंत भई बसंत |’
‘’दफ्तर
की नई क्लर्क ?’’
‘’ नहीं
यार |’’
‘’नई
किरायेदार पड़ोसन ?’’
‘ अरे
नहीं यार |’’
‘ तो
दफ्तर में नई महिला चपरासी ?’
‘’ तुम
भी अच्छे भले मूड के दौर में दिमाग के कोने में कचरे का ढेर लगाने वाली बात कराती
हो |’’
‘’ तो
सीधे-सीधे बताते क्यों नहीं | खबर में पात्र का नाम छिपाने वाले संवाददाता की तरह
क्यों पेश आ रहे हो ?’’
पत्नी ने
भी धाँसू जवाबी प्रश्न किया | ‘’ अरे भई, मैं तो बसंत ऋतु की बात कर रहा हूँ |
किसी बाहर वाली ‘ करंट ‘’ की नहीं |’
‘’ वो तो
ऋतु है , आज भी आई है, अगले साल भी आएगी मगर अपने आपमें गैदा से गुलाब क्यों बने
जा रहे हो ?’’
‘’ मेरा
मतलब सालभर तो तुम बिजली और घटा की तरह कड़कती और बरसती हो मुझ पर , कम से कम इस
मौसम में गुलाबी कोंपलों की तरह जुबान व मन में नारामिन लाकर मदमस्त प्यार दो मुझे
ताकि लगे कि अपना दाम्पत्य जीवन भी कहीं से नीम की पट्टी की तरह कड़वा नहीं है |’’
‘’ तो
इतने दिनों तक गिलोय चूर्ण फांक रहे थे क्या ?’’
‘’ तुम
तो ज़रा सी बात में तुनक जाती हो ... मेरा कहने का मतलब सालभर न सहीं , कम से कम इस
ऋतु को पूरी गुलाबी तबियत से जियें |’’
‘ तो
क्या अब तक रेगिस्तान की तरह जी रहे थे ?’’
‘’ अरे
नहीं यार ...प्यार में डूबकर जिए |’’
‘’ क्यों
? अभी तक कहाँ डूबे थे , गाँव की तलैया में भैंस की तरह ? और ये तीन बच्चे ऐसे ही
आ गए ?’
‘’ अरे
बाबा , मैं शक की गुंजाइश से नहीं देख रहा | मैं कहना चाह रहा हूँ कि इतना प्रेम
रस पीएं कि हमें लगे , जैसे हमारा दाम्पत्य जीवन एक मिसाल है |’
‘’शादी
के दस साल बाद मिसाल बनने की फ़िक्र लगी है ... जाओ उधर और कागज़ पर कलम घसीटकर बसंत
में दाम्पत्य प्रेम पर लेख रचना कर मिसाल बनाओ |’
‘’ अरे
पगली , तुम जानती नहीं कि यह मानव प्राणी के लिए प्रकृति द्वारा बनाई गई ऋतु है |
पढ़ती नहीं किताबों , पत्रिकाओं में कि कवी , लेखाकगन कितने सुहावने प्रतीकों से
आदरपूर्वक संबोधन देते है उसे ... और एक तुम बासंती मौसम को चुटकी का मेल समझ रही
हो |’
‘’ देखो
जी, अभी मेरा सारा ध्यान बच्चों के भविष्य को लेकर केन्द्रित है |’’
‘’ अच्छा
बताओ , तुम मुझ पर कब तक ध्यान दोगी ?’
‘’ जब
बच्चे अपने पैरों पर खड़े होकर ब्याहे जाएंगे |’’
‘’ तब तक
मैं...?’’
‘’
इंतज़ार करो |’
‘’ तो
मरने के काल में तुम मुझे प्यार दोगी?’
‘’ विदाई
कल में किसी का दिया प्यार कई जन्म तक याद रहता है ,अगले जन्म में भी मिलन हेतु
बेचैन करता है |’’
‘दूसरे
जन्म में तुम्हारा होकर क्या मैं पुन: अपना बंटाधार करवाउंगा ?’’
‘’ और
नहीं तो क्या | इसी आते-जाते बसंत की तरह सात जन्म तक |’’
मुस्कराकर
पत्नी ने हमें चूम लिया | एक क्षण को लगा कि पत्नी भी हौले-हौले बासंती रंग में आ
गई है | मैं सच कहूं , पूरे विश्वास से उसके मूड के बारे में कुछ नहीं कह सकता
|अभी वह बासंती मूड में है लेकिन अगले क्षण .............!
सुनील कुमार ‘’सजल’’