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शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

व्यंग्य – लड्डू महिमा


व्यंग्य – लड्डू महिमा

कुछ लोगो के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं |एक हाथ का लड्डू ख़त्म नहीं होता कि पुन: उन हाथों में लड्डू आ जाते हैं |
भाई , मैं यहाँ घरों में या होटलों में बनाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के लड्डूओं की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि उन लड्डूओं की बात कर रहा हूँ , जो मुहावरों के रूप में अपना अर्थ रखते हैं |
  सूखा पड़े या अकाल , बाढ़ बढे या मंहगाई , सब दिन उनके दोनों हाथों में लड्डूओं का भार  बरकरार रहता है | कभी-कभी इन बहारों को सहते –सहते इतने ऊब जाते हैं कि कह उठाते हैं ,’’ भाई किसी दिन तो राहत मिले |’’
  रहत पाने के लिए वे या तो पहाड़ों की यात्रा करते हैं या फिर विदेशों की पर लड्डू पहुंचाने वाले फिर भी उनका पीछा नहीं छोड़ते | आप लड्डू के इस प्रसंग पर सोच रहे होंगे कि मैं आम आदमी की बात कर रहा हूँ | जी नहीं | मैं तो उन महान हस्तियों की बात कर रहा हूँ जो अपने स्वार्थ के लिए देश को ही लड्डू की तरह खाकर पचाने में तुले हैं |
लड्डू का भी अपना विज्ञानं है | वह जितना ज्यादा गोल-मटोल होता है , उतना ही गोलमाल कराने में अपनी भूमिका निभाता है | अपने बीच में ऐसे भी लोग हैं , जिनके हाटों में भी कभी लड्डू आ जाते हैं , फिर भी उनकी पीड़ा कह उठाती है ,’’ काश ! ऐसा योग हमेशा ही बना रहता तो दुर्दिन ही क्यों देखते |’’
  इधर मेडिकल विज्ञानं आदमी की जाति को चेतावनी देता है , ‘’ भाईयों ज्यादा लड्डू मत खाओ  वरना बीमार पद जाओगे यानि मोटे हो जाओगे या डायबिटिक हो जाओगे |’
  पर इंसानी दिल कहाँ मानता है | वह जितना खाता जाता है , उतना ही और ललचाता है |
  हमारे आराध्य देव गणेश जी भी लड्डू के शौक़ीन हैं पर वे विशेष तिथियों में ही लड्डू खाते हैं | मसलन , या तो गणेश चतुर्थी व्रत में या फिर टिल गणेश, गणेशोत्सव में | शायद इसीलिए वे इतने सालों से लड्डू खाते हुए भी डायबिटिज  के शिकार नहीं हुए | मगर धरती के आधुनिक लम्बोदारों की बात छोडिये , उन्हें अक्सर लड्डू खाने का मौक़ा मिल जाए तो वे चौबीस गुणित तीन सौ पैसठ दिवस बराबर से लड्डू खाते रहेंगे | भले ही डायबिटीज जैसी या एनी कोई भी बीमारी घेरे , सब चलता है | मजदूर इन सब लोगों से थोड़ा हटाकर जी रहा है | बेचारे को इतने महंगे लड्डू खाने की बात तो दूर, शक्कर भी इतनी महंगी है की चाय में मीठा स्वाद उठाने के लिए भी थोड़ा नमक डालना पड़ता है ताकि चाय में मिठास थोड़ी तेज लगे | परसों ही अखबार में पढ़ा था की एक नव निर्वाचित नेता को सहकारी समितियों के अध्यक्ष बनने पर मगज के लड्डूओं से तौला गया | हमने उनके चमचों से कहा, ‘’ लड्डूओं से ही तोलने की क्या जरुरत थी | उनकी जगह किलो रखकर तोल लिया होता , आखिर उनका वजन ही तो ज्ञात करना था |
वे हँसे और बोले , ‘’ भैया ,उन्हें बाबा रामदेव की योगशाला में थोड़ी न शिरकत फ़रमानी है बल्कि उनके वजन के बराबर का लड्डू का प्रसाद जन-जन तक पहुंचाना है ताकि लोगों की श्रध्दा उन पर कायम रहे |’’
  लड्डूओं का चलन तो प्राचीन काल से है | लड्डू बनाने –खाने का रिवाज विभिन्न पर्वों से है पर इन लड्डूओं का आधुनिक काल में तौर-तरीका ही बदल गया | असली घी वाले लड्डू चखने-देखने की बात छोडी , सूंघने को भी नहीं मिलते |
 हलवाइयों ने तो लड्डूओं की औकात ही बदल कर रख दी | बेसन के लड्डू के नाम पर आजकल मैदा के लड्डू उसी रंग-रूप में बना कर धड़ल्ले से बेंच रहे हैं | लड्डू फूटने और मुंह में जाने के बाद दिल की बगिया पर क्या असर डालते हैं , इसको सही मायने में पहचाना हमारे देश की चाकलेट – टाफिज निर्माता कम्पनियों ने | वे चाकलेट-टाफी  खाकर मन में लड्डू फोड़ने के बहाने लड़की फंसाने के सारे तौर-तरीके सुझा देती हैं | तभी तो मेरा छोटा बेटा अक्सर उसी चाकलेट की मांग करता है | मैं यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि उसके मन में कौन से लड्डू फूट रहे हैं |
  लड्डू खाने में मजा भी देते हैं तो सजा भी | परसों मेरे मित्र ‘’ शादी के लड्डू की बात कर रहे थे | कह रहे थे किजब तक नहीं खाया था , तब तक पछताता रहा |अब खा लिया तो पछता रहा हूँ |’’
 हमने कहा –‘’ क्या मीठे नहीं थे ?’’
 ‘’ अरे लड्डू मीठे नहीं रहेंगे तो क्या नमकीन रहेंगे ?’’
‘’ तो फिर आप क्यों पछताने चले ?’’
‘’ पारवारिक जिम्मेदारियों का बोझ सर पर इतना बढ़ गया है कि बोझ टेल दबाकर जीभ स्वाद पहचानने का गुण भूलती जा रही है |’’ उनकी आवाज में दर्द था |
 कभी-कभी हमारा स्वार्थ हमारे और भगवान के बीच संबंधों को बढ़ा देता है | लोग गणेश जी के मंदिर में जाते हैं और मनौती माँगते हैं ,’’ हे देव ! हमारा फलां काम सिध्द कर दो , सवा किलो का लड्डू का प्रसाद चढ़ाएंगे |’’
 गणेश जी यानि सिध्द विनायक ठहरे | अपने भोलेपन के कारण मात्र सवा किलो लड्डू के प्रसाद पर ही लट्टू हो जाते और उनकी मनौती पूरी कर देते | भले ही लोगो का मामला लाखों की हेराफेरी का हो |
 बहुत पहले एक मां अपने बेटे को सीने से लगा का खिलाती हुई अक्सर कहती ,’’ मेरा बेटा लड्डू जैसा गोलमटोल , सुन्दर है | धीरे-धीरे उस बच्चे का नाम ही लड्डू पद गया | आजकल भाई जी इलाके में अपने असली नाम से भले ही न जाने-पहचाने जाते हों परन्तु उन्हें लड्डू के नाम से हर कोई जानता है अत: लड्डू सिर्फ स्वाद या मनौती पूर्ण होने का आधार ही नहीं है बल्कि नाम देने का आधार भी है
     सुनील कुमार सजल