व्यंग्य – दो चित्र महंगाई के
इन दिनों वे महंगाई का रोना रो रहे हैं |रोता है है आदमी जब समस्या ग्रस्त होता है
|रोता ही रहता है |भले ही उसके पास कितना कुछ भी क्यों न हो |पर रोता है | रोना उसकी स्वभाव है | रोने के पीछे कई अच्छे कारण भी है |जो
रोने के बाद पता चलते हैं | आपके आंसू पोछने के लिए राजनीति के घडियालों की एक
सिद्ध दिमाग की एक भीड़ होती है | जिनके हाथों में तथाकथित रुमाल होता है जो आपके आंसूं पोछने के लिए होता है | आपके
चेहरे परसहानुभूति का स्पर्श देने के लिए कई हाथ एक साथ बढ़ जाते हैं | इसके लेकर
राजनीति में बहस छिड़ जाती है |मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज़ ,एक्सक्लूसिव रिपोर्ट आने
लगाती हैं | फलां चैनल ने फलां दल का फलां राष्ट्रिय नेता का आंसू पोछने का
प्रसारण किया |संसद, विधानसभा में आंसू को लेकर बहिर्गमन , उठापटक , तोड़फोड़ ,
प्रश्नकाल, शुरू हो जाते हैं |प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया |सरकार के तरफ से मुआवजा ,पीड़ित से मुलाक़ात करने के साथ हर संभव सहायता
का एलान |
शर्मा जी तो यूँ ही रो रहे हैं
महंगाई के नाम पर |रोना पड़ता है |अपने पीछे एक भीड़ की सहानुभूति के लिए | लोगों के
साथ हाँ में हां मिलाने के लिए कि महंगाई बढ़ी है | कमरतोड़ महंगाई |समाज में ऐसे
घडियालों की बड़ी मांग है साब |
मन ही मन व अपनों के बीच
वे कभी – कभी वे कहते हैं – ‘’ काहे की
महंगाई यार | महंगाई तो तब भी थी आज भी है | कल भी रहेगी | तो का महंगाई का रोना
रो कर खाना – पीना छोड़ दें | ऐशोआराम से खुद को वंचित रहें |राजनीती महंगाई को
लेकर सत्ता चला रही है | मीडिया महंगाई की खबरों पर जी रहा है |आम आदमी भीड़ का
हिस्सा बन रहा है महंगाई के बैनर तले |
किसी ने कहा उनसे –‘’ यार तुम्हारी पगार भी
तो बढ़ी है महंगाई के साथ |
वे नाराज हो गए | बोले –‘’ तुम लोगो की नजर
तो बस हमारी पगार पर होती है |बचत नहीं है साब |कई बार तो उलटे कर्जे पर आ जाते
हैं |’’
‘’ खर्च कम करो काहे छलांग मारते हो |’’
वे
चिढ गए |
वर्मा जी भी शहर में नौकरी करते हैं | वे शुद्ध महंगाई का
रोना रोते रहते हैं |कभी पत्नी – बच्चों से तो कभी पडोसी , रिश्तेदार,मित्रों से
|जैसे कोई है बात पर टाकिया कलाम लगाए हो |मसलन –‘’ अपन ने चाय पीना छोड़ दिया,
महंगाई है |या बादाम खाना भूल गए , महंगाई है | कभी तो वे किसानों की आत्म ह्त्या से खुद को जोड़कर कह उठाते हैं – ‘’ क्या करे आम
इंसान आत्महत्या न करे तो क्या करे |
वर्मा जी महंगाई का रोना रो रहे हैं | शहर में रहना
महंगाई से हाथापाई करना ही है |ऐसा वे कहते हैं |’’ यार इससे अच्छा तो हमारा गाँव
है |जहां अनावश्यक खर्चे नहीं है |इसलिए अपन प्लान सेट किया है , क्यों न फैमिली
को गांव में शिफ्ट कर दिया जाए |खर्चे में कमिं आएगी |अपना क्या है पड़े रहेंगे एक
कमरा किराए में लेकर |सस्ता सा |रुपया –पैसा बचाने का यह उपाय उनके मन में है |’
वे
पत्नी बच्चों को समझा रहे हैं \ पत्नी बच्चे नाखुश हैं | क्यों न हों नाखुश , |
शहर की आवोहवा में काफी वक्त गुजारा है |
अब गाँव की तरफ रुख |
वे
समझा रहें – ‘’ गाँव की आवोहवा शुद्ध होती है | लोग कम बीमार पड़ते हैं |फालतू खर्च
कम होने से बचत ही बचत होती है | ‘’
पत्नी बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिन्ता व्यक्त की
तो वे इस पर भी तर्क दे डाले |-‘ देखो भाई , तुम अभी नासमझ हो | ज़रा बोर्ड एक्जाम
की मेरिट सूची उठाकर देखो | ज्यादातर बच्चे गाँव के स्कूलों के छाये हैं | गाँव को
गाँव मत कहो | पढाई वहां भी होती है |दिखावेबाजी से दूर रहकर |’’ नाना प्रकार के
तर्क दे डाले |
अंतत:
पति के चलते तर्क पत्नी को हारना ही पड़ता है | वह भी हार गयी | बच्चों सहित गाँव
में शिफ्ट हो गयी |
वे
अकेले रह गए शहर में | महंगाई जो है |समझौता करना पड़ता है वक्त से |खर्च कम करना
मुश्किल था शहर में |महँगा स्तर समायोजन |कितना मुश्किल काम है |
अब
वे अकेले हैं सो स्तर मेंटेन की बात ज्यादा परेशान नहीं करती |घट- बढ़ चलता है | ‘
यार, अकेले हैं , नौकरी रहते ज्यादा वक्त नहीं मिलता | कहाँ- कहाँ देखें | कितनी
सारी समस्याएं होती हैं अकेले आदमी के साथ |न खाने ठिकाना ना पीने का और न सोने का
|
अब
वे खुश हैं \ अनावश्यक स्टेंडर्ड मेंटेन के झमेले से |महंगाई को लतियाने की तैयारी
के साथ | कभी वे यार दोस्तों के यहाँ खा-पी लेते हैं तो कभी सुबह का बचा खाना से
शाम का भी काम चला लेते हैं |या फिर पहुँच जाते हैं यार दोस्तों के यहाँ खाना खाने
के वक्त | बचत का यह उनका अपना फंडा है | अब वे महंगाई का रोना रोने की बजाय अन्दर
से खुश हैं | इस ख़ुशी को ढांपने के लिए वे रोने-धोने का नकाब आज भी लगाए बैठे हैं
|
आम
आदमी की तरह महंगाई की विरोध रैली का हिस्सा बन जाते हैं कभी-कभी | ताकि महंगाई की
पीड़ा का चेहरे पर चढ़ा नकाब झलकता रहे आम आदमी के बीच |
सुनील कुमार ‘’ सजल’