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शनिवार, 2 मई 2015

laghukathaa



व्यंग्य- झटके
‘’रात में भूकम्प के झटके आए थे। बड़ा डर लग रहा था यार।‘’
‘’भूकम्प…! हमें तो नींद में होश ही नहीं रहा कि कब भूकम्प के झटके आए?’’
‘’अजीब इंसान हो यार ,सारे बर्तन खड़खड़ा रहे थे। हल्के-फ़ुल्के सामान भी लुढक रहे थे और तुम्हें होश ही नहीं। आसपास के सब लोग जाग उठे थे।‘’
‘’नहीं भाई। अपनी तो नींद ही एसी लगती कि सुभह 7 बजे से पहले नही खुलती।इस बीच दुनियां में क्या हो जाता है, अपने को कुछ होश नही रहता।‘’
‘’ अबी अकेले हो न । बाहर का खाना लेते हो। न बर्तन की जरुरत , न रशन की। फ़ैमिली साथ होती तो महसूस करते यह सब।‘’
 ‘’थोड़ा रुककर वह फ़िर बोले,’’ ऐसी स्थितियां तो हम फ़ैमिली वाले ही महसूस करते हैं, जिनके लिए झटके चाहे भूकम्पaक़ के हों या फ़ैमिली के , बराबर होते हैं
      सुनील कुमार ‘’सजल’’