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गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

व्यंग्य- उपवास का फैशन

       व्यंग्य-  उपवास का फैशन
शर्मा जी की पत्नी आधुनिक फैशन की पुजारिन है।फैशन भारतीय हो या पश्चिमी उनके यौवन पर आकर्षण का चार चांद  लगाता है।वे उतनी खूबसूरत नहीं हैँ पर उनका फैशन खूबसूरत होता है।
   बेचारे पति महोदय उन्ही की वजह से नम्बर वन के भ्रष्ट बने ।आज के दौर में ऐसी पत्नियोँके नखरे एक ईमानदार पति कतई नही झेल सका। शर्मा जी के साथ एक शुभता यह रही कि वे किसी टुटपुँजिया विभाग के कर्मचारी नही बने,इसलिए अपने आध्यात्मिक व सात्विक चरित्र को भ्रष्टता का नक़ाब पहनने में ज्यादा परेशानी महसूस नही हुई।समय व आवश्यकता के मापदंड की माला में मोती के माफिक खुद को पिरो लिया।
  आज के फैशन में जितना नंगापन है,उतना आधुनिक है। जितना ढंका-मूंदा   हो, उतना ही प्राचीन माना जाता है।श्रीमती शर्मा इन दिनों फैशन से कटी-कटी रह रही हैँ।उनकी ऐसी विरक्ति से शर्मा जी का अचंभित होना स्वाभाविक था।
  आखिरकार उन्होने पूछ लिया।बोले- क्या बात है आजकल शॉपिंग इत्यादि से दूर हो,मन ऊब गया।
  ‘’मन क्यों उबने चला?’’ पत्नी का जवाब।
  ‘’पिछले एक सप्ताह से तुम बाजार नहीं गई।‘’ शर्मा जी बोले।
  ‘’अभी इरादा भी नही है।‘’
‘’क्योँ?नई चीजें नही आयी?’’
  ‘’इन दिनों हम सभी पड़ोसने का उपवास चल रह है।‘’
 ‘’उपवास के चलते बाजार नही जा सकती या फिर उपवास व शॉपिंग में छत्तीस का आंकड़ा है।‘’ शर्मा जी बोले।
 ‘’न छतीस का है, न बाहत्तर का आंकडा।दरअसल इन दिनों उपवास का फैशन चाल रह है।और हम लोग ज्यादातर समय देवी-देवता की भक्ति-भजन में बिता रहें हैँ।अगले कुछ सप्ताह ऐसा ही चलेगा।‘’ वे बोली।
 ‘’ तुम्हारा काम तो बिल्कुल राजनेताओं जैसा है। कभी राजनैतिक सभा में जाते वक्त ख़ुदा से नज़रें चुराकर चलें तो कभी चुनाव के वक्त देवी दरबार में भजन-कीर्तन करने लगे।शर्माजी मुस्कराते हुए बोले।
 ’’तुम्हेँ फ़ालतू बात करने की आदत-सी हो गयी।‘’
 ‘’जनाबेआला ,क्या पतियोँ के खिलाफ अनशन है?’’
 ‘’क्या तुम दुश्मन हो जो...।‘’
 ‘’तो फिर हमारे भ्रष्टकर्मोँ के विरुद्ध कोई आन्दोलन का...।
  ‘’भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन कर क्या हम अचार बनायेंगे।यार तुम पति लोग न सिर्फ माथा चांटना ही जानते हो।ज्यादा हुआ तो नोट कमाना।समय और देश के साथ खुद में बदलाव लाना जरूरी नही है क्या?’’ वे कुछ खीझकर बोली।
’’ठीक है बदलो भई।पर देवी-देवता के भजन-पूजन से..।चलो आध्यात्मिक होना भी बुरी बात नही है।
 ‘’न हम लोग आध्यात्मिक बन रहे है,न पंडा -पुजारिन।तुम्हेँबता चुकी हूँ न यह फैशन का अंग है।‘’वे बोली।
’’चलो फैशन के बहाने ही सही।ईश्वर से लगन तो लगी।अब मैं कुछ पुण्य कमा लूँ।शर्माजीने चुटकी ली।
’’कैसा पुण्य?’’पत्नी का सवाल।
’’अभी तक मैं निन्यानवे प्रतिशत भ्रष्ट रहा हूँ। इसमें पचास प्रतिशत की कटौती कर भारतीय सरकारी का तरह नैतिक-अनैतिक कर्म के बीच सहकारिता अपनाना चाहता हूँ।‘’शर्माजी बोले।
’’क्योँ?’शर्माजी की पत्नी बोली।
’’उपवास रखने से तुम्हारे फैशन ,भोजन व अन्य ख़र्चों की बचत होगी।शर्माजी बोले।
’’और फलाहार क्या हम भीख माँगकर लायेंगे।‘’अबकी बार शर्मा जी की पत्नी के तेवर तेज थे।
‘’उपवास तो निराहारी ही फलदायी होता है। ज्यादा कष्टकारी लगे तो दूध वगैरह ले लेना।‘’उन्होने कह।
’’हम कोई भक्ति के उपासक नहीं है।समझे न। हम मात्र इसे फैशन का मूर्तरूप दे रहे हैँ, ताकि  यह हर सोसायटी में फैशन के रूप में विकसित हो सके।‘’
’ ‘’मतलब यह मात्र फैशन का दिखावा।‘’
’’और क्या समझ रखा है। अच्छा  वो आप अभी कह रहे हैं न सहकारिता-वहकारिता। सब भूल जाओ।‘’
’’क्योँ?
’’हमारे  खर्चे जो कल थे वह आज भी रहेंगे, यानि भगवान के उपवास के नाम पर भगवान को उल्लू बनाने का षड्यंत्र...।सरेआम।‘’शर्माजी बोले।
’’उल्लू तो तुम जैसे लोग हैँ। जो भगवान के नाम पर सब कुछ लुटाकर खुद को लंगोटी में उतर आते हैँ।‘’पत्नी की उपवास के नाम पर दी गई नई परिभाषा से शर्मा जी खुद को समझ ना पा रहे थे कि वे किस दौर के हैँ।

                  -- सुनील कुमार ‘’सजल’’