लघु व्यंग्य-तुम चाणक्य हो
बीते माह पडोसी राज्य मेँ विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए
थे। कुछ नए – पुराने प्रत्याशियोँ ने जीत कर ताज पहिना तो कुछ चुनावी आका एक दूसरे
पर आरोप प्रत्यारोप का कीचड उछालने की प्रक्रिया के दौरान उग आयी जन असहमति की काई
पर फिसल कर औँधे मुँह ऐसे गिरे कि उठने के काबिल न रहे।
जनता
काफी खुश दिखाई दे रही थी मानो जैसे इस बार उसने अपने प्रतिनिधि का चुनाव ठोंक
बजाकर किया हो।क्षेत्रोँ को अपनी बपौती का पट्टा समझने वाले प्रत्याशियोँ को
नकारते हुए निर्दलीय वर्ग को अधिक महत्व दिया था।
क्षेत्र
मेँ चुनावी आकाओँ को धूल चटाते हुए निर्दलीय प्रत्याशी रामशरण जी भी चुनकर सामने
आये थे।
चुनाव
तो संपन्न हो चुके थे। चयनित प्रत्याशी भी उभरकर सामने आ चुके थे। लेकिन कोई भी
प्रतिष्ठित दल अपनी कुव्वत पर सरकार बनाने की जुर्रत नही दिखा पा रहा था। राजधानी
मेँ विधायकोँ की खरीद फरोख्त चल रही थी।लाखोँ मेँ बोलियाँ लग रही थी।अखबार
प्रतिदिन इस पर लिख रहे थे।
नव
निर्वाचित विधायक राम शरण जी की कम पढी लिखी पत्नी ने अखबार पर नजर दौडाते हुए
उनसे कहा-‘’ऐ जी, राजनीति के लोग कितने गँदे हैँ।कुर्सी पर खटमल की तरह चिपकने के
लिए ऐसे दांव लगाते हैँ जैसे प्राचीन काल मेँ जुएँ मेँ जीती गई औरतोँ की नीलामी के
लिए सरे बाजार बोलियाँ लगायी जाती थी।
‘’चुप
...तू क्या जाने राजनीति के मायने।इसी को भाग्य मानकर खुश हो कि तुझ जैसी अनपढ को
एक विधायक पति का सुख मिला।वरना लोग जिन्दगी भर राजनैतिक प्रेतोँ की सेवा
करते-करते बूढे हो जाते हैँ पर उन्हेँ चुनाव मेँ खडॆ होने के लिए एक टिकिट नही
मिलती और बेचारे भैयाजी कक्का जी करते हुए गले का दम खो बैठते हैँ।पत्नी मेँ
कुछ-कुछ समझदारी तो थी। अत: उसने पति का रुख भांपते हुए कहा-‘’अच्छा जी...नाराज न
हो ओ।अच्छा बताओ..कितने मेँ बिक रहे हो।‘’
‘’क्योँ?’’ विधायक जी ने अब बीडी के बन्डल की बजाय सिगरेट का पैकेट जेब से
निकाल कर खोलते हुए प्रश्न किया।
‘’यही
कि आपकी जीत पर मुझे कोई उपहार चाहिए।‘’
‘’क्या...?उपहार।‘’
‘’हाँ’’
‘’अरी
सुन अपनी खेती-बाडी तेरे जेवर बेचकर तो चुनाव लडा हूँ...पहले उसकी खाना पूर्ति कर
लेने दे ....फिर जो जी मेँ आए मांगना....और हाँ मैँ कोई चार-पांच दिन के लिए
विधायक तो नही बना हूँ..पूरे पांच साल का ‘’कुबेर वर्ष’’अपनी किस्मत मेँ
हैँ....बाद मेँ तुम जो कहोगी खरीद दूंगा, पहले मेरे मत की बोली तो लगने दे...। अभी
जीत का प्रमाणपत्र हाथ मेँ क्या आया तुम तो शेखचिल्ली की तरह ख्याब सजाने
लगीँ...चुनाव किसके लिए लडा है...अपने बीवी-बच्चोँके सुख के लिए ही न....।
‘’और
उस जनता का सुख जिसने आप पर देवता की तरह विश्वास कर तमाम पार्टी के दिग्गजोँ को
लतियाते हुए तुम्हेँ चुना..।‘
विधायक जी हंसते हुए बोले –‘’जैसी तुम अनपढ हो न
वैसी तुम्हारी बुध्दि भी घुटने मेँ हैँ...।सुन,क्षेत्र की
चुनाव के बारे मेँ विचार कर लूंगा..यदि कोई बडा
दल मुझे अपने मेँ शामिल कर टिकिट देगा और चुनावी खर्च उठाएगा...वरना खामख्वाह क्योँ
जहमत उठाने चला। चुनाव न भी लडे तो अपने हाथ जगन्नाथ रहेंगे। अपना एक बेटा है..दो
बेटियाँ हैँ कहीँ कोई सरकारी पद पर बिठा देगेँ उन्हेँ भी....फिर किस बात की
चिंता...।‘’
‘’वाह
जी राजनीति के पूरे चाणक्य तुम्हीँ हो ..।‘’पत्नी हौले से सांवले चेहरे पर चमचमाते
दांतो को दिखाते हुए मीठी मुस्कान के साथ मुस्कुरा दी। वे ही पत्नी के चेहरे पर
मरुस्थल मेँ छाए सावन मेँ जनता ने मुझे मत के रूप मेँ क्या दिया, कागज का एक
चिट्ठा और बदले मेँ लिए 200-300 रुपये नगद ,दारू और मुर्गा। उस वोट का मूल्य तो
वहीँ समाप्त हो गया ...काहे का विश्वास ..कैसा विश्वास...रुपये पैसोँ के बदले कोई
मत दे तो क्या उसे विश्वास मेँ रखा जा सकता है, कहो क्या कहना है तुम्हारा।‘’
विधायक
जी पत्नी चुप थी।वे आगे कहने लगे-‘’ठीक है..अगर तुम कहती हो तो सोचूंगा...परंतु
पहले अपनी जेब मेँ सुख के तमाम स्त्रोत भर लेने के बाद ही।‘’
‘’लेकिन आपने अगर ऐसी धारणा बना ली तो अगला चुनाव...?’’
‘’अरी
पगली मुझे कौन अगला चुनाव लडना है...मैँ तो वर्तमान के बारे मेँ सोच रहा हूँ और
तुम..?’’ खैर अगले बरसते बादलोँ सी खुशी देखकर अन्दर ही अन्दर मुस्कुराये बिना नही
रह सके।
सुनील कुमार ‘’सजल’