बुधवार, 27 मई 2015

व्यंग्य – अपने- अपने चरित्र


व्यंग्य – अपने- अपने चरित्र

वे बचपन में हण्ड्रेडपरसेंट  भोले थे | उनके भोलेपन को गाँव के लोग आज भी याद करते हैं | बुन्देलखंडी अंदाज में कहते हैं –‘’ काय रे सुनील , अपनों मंगलेश कछु बदलो कि नई | के वैसी की वैसी है | कह दईओ  भोलापन तो ठीक आज के युग में भंडारी बनाना भी जरुरी है | भंडारी बनन के लाने ज्यादा भोला पण ठीक नई होय |’’ वे व्वास्तव में भोले थे | उनकी नौकरी लगी | शहर आ गए | अब उन्हें नौकरी उनके भोलेपन के कारण मिली या कुछ और कारणों से, यह तो मंगलेश शर्मा जाने |
   अआधुनिक भाषा में भोलेपन’’ का दूसरा अर्थ ‘’ लल्लूपन’’ हैं | जो भोले है यानी लल्लू हैं मगर मंगलेश भाई एक चरित्र वाले भोले रहे , न लल्लू | शहर आने के बाद उनके दो चरित्र तय हो गए | यह चरित्र परिवर्तन का क्रम उनमें शहरी आबोहवा कि वजह से आया या फिर सरकारी नौकरी में आने की वजह से, यह तथ्य आज भी आधुनिक संतों के चरित्र की तरह रहस्यमयी है |
   इन दिनों वे दोहरे चरित्र में जीने वाले जीव हैं | दफ्तर में बड़े बाबू कहलाते हैं | हराम के चाय – नाश्ते व् पान- गुटखे ने उनके शारीरिक मापदंड में भी पहले की अपेक्षा दोहरापन ला दिया है | किसी समय उन्होंने एक चर्चा में मेरे एकाकी चरित्र का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि सुनील भाई यह चरित्र हमने यूँ ही नहीं पा लिया है बल्कि कड़ी मेहनत की है | ताने-बाने , उलाहने सुनकर कान पकाए हैं | अधिकारियों के कई बार कोपभाजक बने हैं | तब कहीं जाकर मंजे बर्तन की तरह निखरे हैं |
   उनका दोगला चरित्र किस तरह का है | आपको भी बता दूं | दफ्तर में रावण या दुर्योधन होते हैं | दफ्तर के बाहर भोले भंडारी |
    लोगों ने कहा है- ‘आदमी को दोहरे चरित्र में जीना चाहिए तभी उसका उद्धार है | वरना एकल चरित्र वालों की दुर्गति कैसी होती है,यह बताना हमारे लिए जरुरी नहीं हैं |
    एक दिनज मैंने उनसे कहा – ‘’ यार शर्मा आप दफ्तर में ऐसी भाषा बोलते हो , जिसकी मैं उम्मीद कतई नहीं कर सकता मगर दफ्तर के बाहर बिलकुल गऊ कि तरह मीठेपन के साथ रंभाते हो |
    वे हँसे | उनकी हंसी में दुर्योधन व् कृष्ण के मुस्कान –सी मिलावट थी | बोले – यार , सुनील लगता है अब मैं नहीं तुम भोले हो | तुम तो ऐसे प्रश्न किए जा रहे हो | मानो नन्हें-मुन्ने बच्चे हो | अरे लल्लू मैं दुर्योधन व् कृष्ण का चरित्र लेकर न चलूँ तो मेरा बेटा इंजीनियरिंग नहीं पढ़ सकता | उच्च घराने कि मेरी पत्नी मेरे साथ अपने शौक- सपाटों का क़त्ल होते नहीं देख सकती और अपनी बिटिया के प्रति दहेज़ के दानवों को धन का क्लोरोफार्म सुंघाकर बेहोश नहीं कर सकता | अब तुम ही बताओ कि मेरा चरित्र दोगला क्यों नहीं बनेगा |
    अब दफ्तर के बाहर की बात | मैं समाज के बीच आ जाता हूँ | अगर मैं वहां दुर्योधन बनाकर बैठा तो ? समाज अपने सहयोगी मापदंड के हथियार से मेरे संग का वध कर देगा | मुझे तो दफ्तर व् समाज के बीच के पहलुओं को खूबसूरत  बनाए रहना हैं साहब | ‘’
 कहते हैं- ‘यूँ तो लल्लुओं का भी दोहरा चरित्र होता है | पहला गऊ व् दूसरा शेखचिल्ली का | अन्दर की घुटन को शेखचिल्ली सपने ही थपकी देकर सहलाते हैं | गऊ चार्टर तो न बोल पाटा न किसी का कुछ बिगाड़ पाता
| गांधीजी के तीन बन्दर भी इस चरित्र से मेल नहीं खाते | कारण कि उनमें से एक को तो सुनाने की भी फुर्सत नहीं है |
   अक्सर म्रेरी पत्नी मेरी मास्टरी की नौकरी पर अंगुली उठाती है | कहती है- ‘’ एक वे मास्टर होते हैं , जो साइकिल, ड्रेस व् स्टेशनरी खरीदी से कमीशन का जुगाड़ कर लेते हैं | मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम से घर का राशन खर्च चलाते है | एक तुम हो, छात्रहित में मरे जाते हो | छात्र के लिए तो तब गुरु हो | जब तक वे तुम्हारे छात्र हैं | बाद में उनसे नमस्ते का सम्मान पाने के लिए तरसते रह जाओगे| धरे के धरे रह जाएंगे हितैषी कारनामें | सुधरो| समय के चाणक्य से कुछ सीखो |’’
   मैं अपनी पत्नी को कैसे समझाउंज कि मेरा गुरु मन आधुनिक दुष्कर्मी बनाने कि गवाही नहीं देता | कभी – कभी पत्नी के ताने – बाने सुनकर मेरी कुंडली निर्माता ज्योतिषी व् भगवान को कोस बैठता हूँ | ज्योतिषी को इसलिए कि उसने कहा था – ‘’ कुंडली में मेरा वृहस्पति प्रबल है | अत: कार्यक्षेत्र अध्यापन होगा और भगवान को इसलिए कोसता हूँ कि अगर वह मुझे धरती पर ला रहा था तो कुछ देर और ठहर जाता, ताकि मेरी गृह दशा बदल जाती | उस विभाग का नौकर बनाता , जहां हरामखोरी के पूरे अवसर होते हैं मगर तूने मेरा वृहस्पति उच्च कर गुरु बना दिया | गुरु तक बात ठीक है पर गृह चरित्र के आधार पर उसने मुझमें ‘ घंटाल’ बनाने के गुण नहीं डाले | देख मैं आज भी वही जिंदगी जी रहा हूँ ,जो बचपन अभावभरा  जिया था |
   मैं तो भगवान से आज भी यही विनती करता हूँ कि मेरी गृह दशा बदल | मुझे गुरु से घंटाल बना, ताकि मुझे अपनी पत्नी के व्यंग्यबाण न सहने पड़े , वरना व्यंग्यकार होने का मतलब ही क्या रहा | जो दूसरों को सुधारने का ठेका ले और खुद न सुधर पाया |
         सुनील कुमार ‘’सजल’

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें