सोमवार, 3 अगस्त 2015

लघुकथा- सभ्यता


लघुकथा- सभ्यता

वह पिछले सप्ताह ही दूर बड़े शहर से स्थानांतरित होकर हमारे दफ्तर में आए थे | दफ्तर जाते समय करीब से गुजरते एक आदिवासी जनजाति के जोड़े की ओर उंगली उठाते हुए वह व्यंग्य भरे लहजे में बोले –‘’’ अजीब लोग हैं ये ? अर्ध्दनग्न रहते हैं | न छाती पर ढंग से ब्लाउज और सादी भी घुटने से ऊपर ! पुरुष भी एक पतली सी लंगोट में ...? अश्लील घटनाएं तो यहाँ खूब होती होंगी ?’’
 मैंने उन्हें समझाते हुए कहा –‘’ वर्माजी , अर्ध्दनग्न पहनावा तो इस जनजाति की सामाजिक परम्पराहै | न तो इनके साथ अश्लील घटनाएं घटती हैं और न ही इनके रहन-सहन को देखकर कोई इन पर फब्तियां कसता है |’’
‘’ लेकिन यार , इन्हें शर्म तो आनी चाहिए अपनी मर्यादा उजागर करते समय ! ज्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत सुधार तो ये औरतें अपने पहनावे में ला सकती हैं |’’
‘’ अरे वर्मा जी , अनपढ़ लोग हैं ये | सभी जीवन के प्रकाश से दूर जंगलों में निवास करते हैं | यदि इनमें इतनी समझ व बुध्दि होती तो क्यों ये लोग ऐसी परम्परा का निर्वहन करते ? जहां तक शहरी सभ्यता से इनके द्वारा कुछ सीखने की बात है तो आप ही बताइए कि शहरी सभ्यता से ये लोग क्या सीखें ? शहर में जो सभी बुध्दिजीवी हैं , वे क्या इनसे कम हैं ? वे तो इन्हें भी मात दे रहे हैं समुन्दर पार से चुराई गई सभ्यता को अपनाकर अर्ध्दनग्न रहने में ....!’’
वर्मा जी के चहरे पर चाई मखौल भरी मुस्कान मेरे प्रत्युतर से क्षणभर में गायब हो चुकी थी |
        सुनील कुमार ‘’सजल’’  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें