व्यंग्य – मुट्ठी गरम करने का मौसम
साल बीतने को आया | यानि दिसम्बर आ गया |
कडाके की सरदी वाले दिन | पानी जमा देने वाली सरदी | कांपते व सूखे में धरती से
दरार मारते हाथ-पांव | ‘’ ग्लोबल वार्मिंग ‘ के ताने-बाने के बीच भी धूप में जैसे
गरमाहट ही नहीं |
उन्होंने भी कैलेण्डर में नवम्बर का पन्ना
पलटा | सीधे दिसम्बर में आ गए | वैसे भी सरकारी कर्मचारी माह की अंतिम तारीख की
बैचैनी के बाद नए माह की पहली तारीख का दर्शन करना नहीं भूलते | दिसंबर के पन्ने
पर झांकते हुए उन्होंने हिसाब लगाया | बस हफ्ता दिन बाद वे भी तिरेपन के होने जा
रहे हैं | तन-मन भी तिरेपन की गवाही दे रहा है | और वे वैसे भी सरकारी कर्मचारी
हैं | साथ के होने तक बाकायदा मुनीम की तरह हिसाब लगाते रहते हैं | नौकरी के कितने
साल शेष हैं |
उनके बुजुर्गों के मुख से ‘ सत्य नारायण की
कथा’ की तरह सुने संवाद पर वे चर्चा करते हुए बताते हैं | वे जब इसी दिसम्बर में
पैदा हुए थे | तब भी ऐसी ही कड़कडाती सरदी थी | हाथ पांव गले जाते थे | उस जमाने
में कहाँ थे आधुनिक समय के ए.सी. व्यवस्था
युक्त सरकारी या प्राइवेट हास्पीटल | बस ऐसई थे | खपरैल वाले आधी खुली – टूटी
खिड़की वाले | बस ज्यादा हुआ तो छत पर पंखे लटके रहते थे | उनकी स्पीड भी बीमार
आदमी की तरह होती थी |
कड़क सरदी थी उनके पैदा होने के समय | घर में
पैदा हुए थे | वो तो आज की माताएं प्रसव पीड़ा से ऐसी भागती हैं जैसे नेवले को
देखकर सांप | जब तक पेट पर छुरा नहीं चलवाती , प्रसव-पीड़ा उपरांत शिशु-जन्म का सुख
नहीं उठा पाती |
तब
की माताएं पूरी तरह लक्ष्मीबाई की तरह साहसी व सहनशील थी | चाहे जो भी हो पर वे
प्रसव हेतु अस्पताल नहीं जाएंगी | भले- ही तड़प-तड़प कर, दम तोड़ना पड़े | पर घर का
प्रसव कक्ष नहीं छोडेगीं | कहती थी – ‘ अस्पताल का मुख बैरी लोग देखते हैं |’’
वे रात की अच्छी खासी पड़ती ठण्ड में पैदा हुए
| घर के लोग घबरा रहे थे | कैसे भी, शिशु के बदन में गरमी बनाए रखो | वरना
न्युमोनिया का खतरा हो सकता है |
वे
गरम कपड़ों से ढके थे | बदन में मां के आगोश के साथ गरम कपड़ों से उनके बदन में गरमाहट
बनी हुई थी | फिर भी घर की महिलायें उनकी मुट्ठी छू कर देखती , कहीं ठंडी तो नहीं
हो रही | काहे की ठंड ही ऎसी थी | आज वे सोच रहे थे | सात साल शेष हैं ,
सेवानिवृति के लिए | साली , ठंड कैसे भी पड़े | उनकी मुट्ठी ठंडी नहीं पड़ सकती |
सरकारी नौकरी में आने का यही फ़ायदा साब! अन्नाजी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन चलायें
या रामदेव या केजरीवाल |सेवाकाल तक मुट्ठी ठंडी होने की संभावना नहीं रहती गरम ही
रहती है |हाथ मलने की जरुरत नहीं पड़ती | यदि विभाग कुबेर योजनाओं वाले मिल जाएं तो
क्या कहने |
अभी वे सात साल तक टेंशन फ्री हैं | पत्नी ने
उनसे कहा परसों ही | ‘ए जी, दस्ताने पहनाकर दफ्तर जाया करो | देख रहे हो कितनी ठंड
हैं | हाथ पैर ठंडे हुए जा रहे हैं |
‘’ ये सब तुम्हें नसीब हो |’ वे उलटा मुंह कर
बोले थे |
‘’ का कह रहे हो | रात भर दमा के मरीज की तरह
खांसते खखारते रहते हो | अँगुलियों से ही शीत पहुंचती हैं | बदन में पत्नी अपनी
जिद पर आती हुई बोली थी |
‘’
पगली हो का | दस्ताने पहन के हम दफ्तर में काम कैसे करेंगे | वे कुछ चिडचिडे अंदाज
में बोले | फिर कुछ शांत होकर बोले – ‘’ काम हो हाथों में वैसे भी गरमी बनी रहती
है |
पत्नी उतनी बुद्धिजीवी नहीं है | जो उनका
सरकारी हिने का आशय समझ सके | आखिर गृहलक्ष्मी ठहरी | घर के दायित्वों से ज्यादा
उसकी सोच ज्यादा खनक नहीं सकती | बाहर की समझ पैदा करने के लिए बुद्धि को घुटने से
मस्तिष्क में लाना पड़ता है |
अब
की पत्नी पुन: दास्ताने धारण करवाने की जिद पर आयी | उन्होंने अफसरी अंदाज में डपट
दिया | वह भुनभुना कर रह गयी |
इस
शीतकाल में कुछ मुहावरों के मायने हर बात से जुड़े रहते हैं | उनका अर्थ लोग समझते
नहीं | अब देखो न हाथ से हाथ रगडो तो लोग समझते हैं बदन में गरमाहट पैदा करने के
लिए कर रहे हैं | असली मायने में बात यह है होती है कि कड़की के दौर से गुजर रहे
होते हैं |
हाँ
इत्ता जरुर है कि बिना दस्ताने के रहने से इज्जत बाख जाती है | लोग समझते हैं
मुट्ठी ठंडी नहीं है अमुक की |वरना यदि दस्ताने न भी होते तो ठंडी होती मुट्ठी में
गरमाहट लाने के लिए जेब में हाथ डालकर रखता |
इधर साब सरदी कम होने का नाम नहीं ले रही थी
| दिनोदिन और बढाती जा रही थी | अखबारों व चैनलों में मौसम की भविष्यवाणियाँ कलेगे
को कम्पकपायी दे रही थी | भविष्यवाणी करने में मौसम विभाग बड़ा बदमाश होता है |
दसंबर-जनवरी के कडाके की सरदी वाले दिन होते हैं | बिना माथा पचाए हवाओं की स्थिति
भांप कर कह देता है ‘| उत्तरी हवाओं के चलने से अभी कुछ दिन कडाके की सरदी पड़ेगी |
और यदि अचानक बादल छाने के वक्त बयान होता है –‘’ ‘पश्चिमी विक्षोभ के कारण या
उत्तरी हवाओं के कमजोर होने के कारण तापमान में वृद्धि दर्ज की गयी है | ज्यादा
बादल दिखे तो तापमान वृद्धि के कारण | बादल आ रहे हैं | फलां समुद्री क्षेत्र में
तूफ़ान की आशंका से कम दाब का क्षेत्र उत्पन्न हो गया है | इसलिए क्षेत्र में गरज
के साथ छीटें पड़ने की संभावना है |
वे
कहते हैं कि यार, ऐसे बयान देने से क्या जाता है | मौसम कोई बंधुआ मजदूर थोड़ी न है
जो इशारों पर चले |’ मौसम की भविष्यवाणी में किसी ज्योतिष की तरह ‘ संभावनाओं को
महत्त्व देकर पल्ला झाड लेते हैं | यार वे भी सरकारी कर्मचारी हैं | कोई प्राइवेट
कंपनी के कर्मचारी थोड़ी न हैं | जो हर तथ्य को सटीकता से स्पष्ट कर अपनी प्रोफेशनल
रेटिंग बढायें|
तो साब , मौसम कि भविष्यवाणी का असर सरकार को
भी हुआ | सरकारी आदेश जारी हुए , गरीब गरबों व राहगीरों के लिए अलाव की व्यवस्था की जाए |
सरकारी क्षेत्र में व्यवस्था नामक शब्द का बड़ा
महत्त्व है | जब भी व्यवस्था के आदेश जारी होते है | अव्यवस्था के बारे में पहले
सोचा जाता है | अब देखिये अलाव की व्यवस्था के पीछे खडी एक अव्यवस्था के बारे में
सोचा गया | जिसे आंकड़े बाजी की जादूगरी कह सकते हैं | इस भाषा को सरकारी कर्मचारी
अच्छी तरह समझता है अव्यस्था व्यवस्था का कोडवर्ड है | जिसे लोकतंत्र की भाषा में
कमीशन के नाम से जाना जाता है | व्यवस्थापक विभाग उसी काम में रूचि दिखाता है |
जहां अव्यस्था की गुंजाइश हो | वरना कोई माथा व हाथ पांव क्यों दुखाने चला |
साब
, आपको बता दें | गरीब – गुरबों की तरह सरकारी महकमे के पास भी मुट्ठी होती है |
अगर वाही ठंडी हो गयी तो वे जेब में हाथ डालकर बैठ जायेंगे | फिर कौन करेगा
व्यवस्था | इसलिए भाई साब पहले उनकी मुट्ठी गरम होना आवश्यक है |तभी न वे पूरे जोश
व गरमाहट के साथ आपके हित के बारे में सोचेंगे |
इधर शहर से दूर बसे शहीद पार्क में प्रेमी
जोड़ो की आवाजाही कम हो गयी है | शायद सर्द हवाओं के चलने के कारण | एक तो मौसम
ठंडा | और पार्क कि ठंडक | अब कोई बर्फ की मानिंद ढलकर स्टेचू थोड़ी न बनाना चाहेगा
|
मोबाइल पर एक प्रेमिका ने प्रेमी से कहा-
‘’सुनो , धर्मेश , अब हम पार्क नहीं जाएंगे | बल्कि काफी हाउस चलेंगे |’’
‘’ क्यों ?’
‘ ऎसी ठंड में वहां क्या हु..हु.. कर समय
बिताएंगे ?’’
इसी बीच प्रेमी ने छेड़छाड़ भरी बातें
की|प्रेमिका शरमाई बोली- ‘’ फालतू बात न करो | मैंने जो कहा | उस पर हाँ कहो |’’
प्रेमी ने हाँ तो कर दी | पर बेचारे की धड़कन
बढ़ रही थी | एक तो बेरोजगारी और ऊपर से काफी हाउस का खर्च | आधुनिक प्यार ऐसे ही
चलास्ता है | गरीबी गुजारा में प्यार कोमा की अवस्था से कम नहीं होता |
प्रेमी परेशान है | सच भी है | काफी हाउस में
बैठकर प्यार की मीठी बातों के बीच केवल कॉफी सुड़कने से काम चलता नहीं | देशी –
विदेशी डिश भी होनी चाहिए | बहानेबाजी की तो बेवफाई का इल्जाम सर पर आता है | इस
आधुनिक दौर के प्रेम मंच पर प्रेमिका सत्यवती तो नहीं है कि एक तो पकड़ा तो अच्छे
बुरे से उसी के संग निभ जाए | उसके पास भी राजनेताओं की तरह पार्टी बदलने के आप्शन
है |
खैर छोडिये , फालतू की बातें हैं | पुन: सरदी
की बातें करें | मौसम ठंडा है तो क्या हुआ | बिना हड़ताल या काली पट्टी बांधे सरकार
ने हम सब कर्मचारियों के लिए मंहगाई भात्ते की रुकी क़िस्त घोषित कर दिया है | अब
देखते हैं , मंहगाई के इस शीत लहर वाले दिनों में भत्ते की गरमाहट कितने दिन टिक
पाती है |
सुनील कुमार ‘’सजल’’
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