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शनिवार, 29 अगस्त 2015

लघुव्यंग्य –विधायक जी के भाई लोग



लघुव्यंग्य –विधायक जी के भाई लोग

वे विधायक प्रतिनिधि बन गए , बड़े जलवे खीच रहे हैं |उनके ठाठ देखते बनते हैं |धमकाते रहते हैं अधिकारियों और कर्मचारियों को | जैसे खुद विधायक हैं | विधानसभा में जैसे इनकी बपौती चल रही हो  कल ही मार्केटिंग सोसायटी वाले तिवारी बाबू को धमाका कर आए थे –‘’ तिवारी जी हमारे किसान भाईयों को तकलीफ नही होंनी चाहिए | उन्हें पर्याप्त खाद-बीज दिलवाओ | देखो खाद-बीज बांटकर कुछ ले दे रहे हो की नही | देखो चूना न लगा देना अपनी सोसायटी को | ‘’
तिवारी बाबू समझदार हैं | वे अपनी सोसायटी का व मार्केटिंग सोसायटी का मतलब अच्छी तरह समझते है | आखिर इतने साल से तो वे सोसायटी के बीच ही तो जी पल रहे हैं | सोसायटी में रहकर ही बेरोजगार बेटे के लिए फोर व्हीलर खरीद लाए | फिर काहे न समझेंगे सोसायटी का मतलब |
साब, विधायक प्रतिनिधि ठाकुर जी बड़े चुस्त – चालाक जीव हैं |ठकुराई के पूरे गुण उनमें भरे हैं , वाही माल गुजारी के जमाने वाले | आज इनकी मालगुजारी नहीं रही तो क्या हुआ | आनुवांशिक गुण तो हैं उनमें | सो वे विधायक प्रतिनिधि बन बैठे | अभी वे इस दफ्तर से उस दफ्तर में कूद रहें हैं | ताकि लोग पहचाने | अभी तक वे डॉक्टर साहब के नाम से जाने जाते थे | दसवीं पास डॉक्टर हैं | दबी जुबान में कहें तो झोला छाप डॉक्टर | लेकिन वे झोला छाप डॉक्टर की तरह कभी नहीं पूजे गए | बल्कि शिक्षित डॉक्टर की तरह पूजे जाते रहे हैं | क्षेत्र में वे ही तो ऐसे डॉक्टर हैं जिसने जीतता रुपया इलाज के लिए दिया रख लिए | डाक्टरी के साथ राजनीति भी कर रहे हैं |
   जहां डाक्टरी के साथ राजनीति हाथ मिला ले | फिर काहे किसी का डर रहे |इलाज वे चाहे जैसा करें |
         वे  जनता को पुटियाते बहुत अच्छे से हैं –‘’ देखोप कक्का खीसा (जेब) में पैसा नई है तो नई रहने दो | हम तो इलाज करंगे | ठेका कर लो | फसल आए या मजदूरी मिले तो दे देना | दवा-दारू सब अपनी तरफ से लगाए देते हैं | आप ठीक हो ओ | स्वस्थ रहो यही हमारी अंतिम इच्छा है |’’ कक्का लोग खुश हो जाते हैं | और ठाकुर जी की कठौती में गंगा आ जाती है |
    विधायक साब को पता है ठाकुर साब ने उन्हें चुनाव में जीत दिलायी है | इसलिए वे उन्हें अपना प्रतिनिधी बनाने से नहीं चुके | ताकि उनके साथ ठाकुर जी भी बैंक में एकाध गुप्त खाता खुलवा लें |
  ठाकुर साब को इन दिनों डाक्टरी करने की फुर्सत नही है | मरीजों की भीड़ उन्हें ढूँढती रहती | फोन लगाती है | वे सही जगह , सही समय पर उपलब्ध नहीं हो पाते | कहते है९न –‘’ दादा इत्ते काम हैं , अपने साथ कि कहीं खाते हैं , कहीं सोते  हैं | ये दफ्तर से वो दफ्तर | इस पंचायत से उस पंचायत देखना पड़ता है | कहाँ कैसा काम चल रहा है | विधायक साहब तो ख़ास – ख़ास जगह जाते हैं | बाक़ी सब हम प्रतिनिधियों को देखना पड़ता है |
   जो काम उनके वश के बाहर का होता है | वह कार्य अपने विधायक साहब को सौंप देते हैं | विधायक साहब उन्हें देख लेते हैं | कई जगह ठाकुर साहब ने अपने नाम के प्रचार में कसबे में साइन बोर्ड लगा रखे हैं | साइन बोर्ड इसलिए लगा रखे हैं ताकि जनता को मालूम हो सके वे सिर्फ बीमारी के डॉक्टर ही नहीं है बल्कि समाज की हर बीमारी के डॉक्टर यानी डॉक्टरों के बाप हैं | ठाकुर साहब का एक फैशन है | वे हर समय गले में स्टेथोस्कोप लटकाए रखते हैं | जब वे मंच पर खड़े होकर गले में लटकते स्टेथोस्कोप के साथ माइक पकड़कर भाषण देते हैं , तब लगता है कि वे सचमुच में लोकतंत्र में व्याप्त हर बीमारी का इलाज करने को तैयार खड़े हैं |
  यूं तो डॉक्टर साहब ने अपनी डाक्टरी के सहारे गलत इलाज करके दो-चार मरीजों को निपटाया है | पर राजनीति के कफ़न ने मुर्दे को प्राकृतिक मौत से मरना सिद्ध किया | कौन उल्लू है जो उनसे पंगा लेगा | आजकल ठाकुर साहब के जलवे विधायक से ज्यादा है | आखिर विधायक जी कहते ही हैं –‘’ हम जितना नहीं कमाते उससे ज्यादा तो हमारे भाईई लोग कमा लेते हैं
                           सुनील कुमार ‘’ सजल’’

मंगलवार, 9 जून 2015

व्यंग्य- उल्लू का दर्द


व्यंग्य- उल्लू का दर्द




 सरकार की पेंदी दो दिशाओं में लुडकती है | पहली दिशा में वह चुनाव जीतकर सत्ता में बैठने के बाद | और दूसरी दिशा में चुनाव के करीब आने के संकेत पर |
  अभी पिछले दिनों सरकार की पेंदी जिस दिशा में लुढ़की थी | वह चुनाव करीब आने का संकेत था | दूसरी दिशा में सर्कार का लुढ़कना जनता के हित में होता है | वह इस वक्त जनता की होती है |
  फिलहाल सरकार जनता की हो चुकी थी | भ्रष्टकर्मियों पर आफत आ पड़ी थी | हालांकि वे सतर्क थे | पर शासन या प्रशासन में चूक का महत्त्व होता है | आखिर वे भी तो इंसान हैं और इंसान गलतियों का पुतला होता है | पुतला तो अंगुली के इशारे पर चलता था | अभी तक वह सरकार की अंगुली पर था |
  भ्रष्टकर्मियों पर आफत आयी तो उसकी काली कमाई पर छापे पड़ने लगे , जो अभी तक जनता के लिए आफत बने थे | सर्कार जनता के साथ थी | इसलिए वह भ्रष्टाचार निरोधक व्यवस्था से छापे डलवा रही थी | बदनाम सरकारें छवि का कालिख ऐसे ही कर्मों से साफ़ करती है | साथ ही जनता की आवाज पर ध्यान देती है | जो विपक्षियों के संग मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ नारेबाजी कर रही होती है | सोयी सरकार को जागना पड़ता है | ऐसी चीख पुकार से | जनता के संग सुर मिलाने वाले विपक्षी सोते कहाँ हैं | विपक्ष में बैठने पर वैसे भी आँखों की नींद व दिल का चैन गायब रहते हैं | अब क्या करें विपक्षी ? ट्रस्ट जनता के संग हो लेते हैं | अपनी त्रासदी उगलने के लिए |
जनता को भी जरुरत होती है हाथ में लाठी व माइक लिए नेतृत्वकी | सो, वह उसके पीछे –पीछे भेड़की तरह चलती है | जनता की किस्मत अच्छी है कि उसे ऐसा नेतृत्व चुनाव के वक्त तो मिल जाता है |
 भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वर तेज थे | भ्रष्टाचार के खिलाफ छापे पद रहे थे | रिश्वत खोर पकडे जा रहे थे | छवि का कमाल देखी | अदना –सा कर्मचारी भी करोडपति निकल रहा था | जिसने सरकारी खजाने के पेंच ढीले कर रखे थे | हालांकि पिछले वर्षों में सरकार के पास धन की कमी नहीं थी | वह योजनाओं के लिए धन पानी की तरह बहा रही थी | योजनायें कागजी नाव थी | इस बहाव में बह रही थी | या कहें जनता के आँखों के सामने डूब रही थी | सरकार अपने मुंह मिट्ठू बन रही थी | होर्डिंग / विज्ञापन / पोस्टर / प्रचार फिल्मों में सरकार योजनाओं के साथ मुसकरा रही थी | जनता रो रही थी ढूंढ रही थी योजनाओं को | वह आपस में पूछती –‘’ कहीं देखा आपने अमुक योजना को |’’ अपनों से जवाब मिलता –‘’ कहीं तो होगी | तभी तो विज्ञापनी गुणगान जारी है |’’ पड़ते छापों की भी अपनी विशेषता थी | बिना विशेषता के शायद सरकारी काम काज नहीं होते | विशेषता भोली जनता के बाहर थे | जनता भोली होती है , इसलिए वह जनता होती है |
   छापे केवल सरकारी कर्मियों के कुकर्मों पर पड़ रहे थे | जनता वास्तव में भोली है | उसे इतनी भी समझ नहीं भ्रष्टाचार का खेल केवल क्या अर्कारी कर्मचारी ही खेलते हैं ? वे नहीं खेलते जो उनके सिर पर अपने राजनैतिक हस्त की छात्र छाया बनाकर रखते हैं |
    जनता भूल भुलैया में थी | छपे की खबरें चटकारें लेकर पढ़ रही थी | ‘’ अच्छा काम कर रही सरकार | भ्रष्टाचार ऐसे में ही समाप्त होगा | भ्रष्ट लोगों को सजा मिलनी चाहिए | जनता की नजर में सरकारी कार्मीन भ्रष्ट है | सत्ता के राजनैतिक साधक ईमानदार हैं | क्योंकि वे भ्रष्टता  के खिलाफ चल रहे थे |
   जनता इतनी नासमझ है | उसने सोचा तक नहीं भ्रष्टाचार की शुरुआत की नींव कहाँ है | किसके इशारे पर प्रशासन की बेलगाम बनाते हैं |
  जनता को सरकार ने योजनाओं का सब्ज बाग़ दिखाया नहीं कि वह सरकार की हो जाती है | जनता को क्या चाहिए दवा दारु , सस्ता अनाज और आश्वासन | सो इत्ता काम सरकार कर देती है | अत: वर्त्तमान माहौल में जनता सरकार के लिए थी और सरकार जनता के लिए |
  मैंने आम आदमी से पूछा | जो लोकतंत्र में जनता की परिभाषा होता है |
  ‘’ सरकार की चाल समझ में आयी तुम्हें ?’’
  ‘’कैसी चाल ?’’
 ‘’ सरकार का निशाना प्रशासन के कर्मियों पर है | छपे उनके घर पर पद रहें हैं | जबकि स्वयं उनके कई मंत्री-नेता  भ्रष्टाचार में लिप्त हैं | वे सुरक्षित हैं | ‘’
  ‘’ असली भ्रष्टाचार तो कर्मीं  अपनाते हैं |’’
  ‘’ राजनीति उन्हें करवाती है |’’
  ‘’ वे नकारते क्यों नहीं |’’
 ‘’ उन्हें नौकरी करनी हैं | राजनीति हर किसी को सीधा करना जानती है और टेढा भी | आम आदमी खामोश हो चुका था | बहस से दूर होकर उसके दिमाग में सिर्फ एक जूनून था | किसी तरह भ्रष्टाचार मिटे | अत: भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलनरत था जनता की मंशा को कुछ हद तक सफलता से जोड़ने के लिए सरकार अपना तरिका अपना रही थी विपक्षी अपना | जनता रूपी उल्लू की टाँगे एक-एक दोनों पकडे बैठे थे | अब देखना था सीधा करने में किसे सफलता मिलाती | फिलहाल उल्लू छटपटा रहा है | दर्द से कराह रहा है | सरकार और विपक्षी मुस्कुरा रहे थे |