व्यंग्य - पूजा के आशिक
क्षमा करें सर !मैं यहाँ पूजा नाम की लड़की की छुप्पम -छुप्प वाली आशिकी की चर्चा नहीं करूँगा ,बल्कि उन आशिकों की चर्चा करूँगा ,जो पूजा स्थलों या देवालयों में मौजूद होते हैं। जिन्हे आधुनिक संदर्भ की संज्ञा में आशिक कह सकते हैं।
सच ,इन आशिकों की लीला अपरम्पार है। लैला-मजनू ,सोहनी -महिवाल ,रोमियो -जूलियट जैसे ऐतिहासिक प्रेमी भी शर्म से पानी-पानी हो जाते इनकी आशिकी देख कर।
ये आधुनिक संदर्भ के प्रेमी होते हैं। इनकी आशिकी भी आधुनिक है। सुबह -शाम के वक्त इनका अड्डा देवालय या पूजा स्थलों में होता है। इस वक्त ये पूर्ण ऊर्जा से भरपूर व निगाह और मन में सोच की भूकंपीय तरंग लिए होते हैं।
ये प्रसाद वितरण और सेवा भाव के शौकीन होते हैं। होठों पर सभ्य मुस्कराहट का लिबास। चेहरे पर शालीनता का नक़ाब ,इनका खास कल्चरल मार्क है। पूजन -प्रसाद के पंचामृत में आशिकी के मेवे डाल कर हर वक्त वितरण के लिए तैयार रहते हैं। इनकी शालीन ,सामाजिक सभ्य अदा के साथ ही इनकी शक्ल देखकर उच्च श्रेणी का भविष्यवक्ता भी इनके आदेश के उबाल को पहचानने में गच्चा खा जाये।इतने विनम्र होते हैं ये.…।
अब ईश्वर को कुछ नहीं कह सकते। वह तो हर समय मुस्कुराती मूरत में होता है। उसकी मुस्कराहट इन आशिकों के प्रति व्यंग्यात्मक होती है। या दर पर पधारे भक्तों के प्रति ,जो इन बदमाशों को पहचानने में गच्चा खा जाते हैं तो ये फिर ईश्वर कि मुस्कराहट को क्या पहचानेगें।
खासतौर पर शाम के वक्त मंदिरों या देवालयों में ज्यादा हलचल होती है। दिन भर की थकान से उबरकर शांति प्राप्त करने हेतु महिलायें व कुंवारियां आरती -पूजन हेतु मंदिर आती हैं। इसी वक्त तथाकथित या एक तरफ़ा प्रेम के योद्धा बने आशिक भी 'सांझ ढले उल्लू पंख फड़फड़ाये 'की तर्ज पर मंदिर में आ जाते हैं।
मंजीरा ,ढोलक और दम भरते फेफड़ों की ताकत से शंख फूंकना व चुनाव में जोश भरे नेता की तरह गला फाड़-फाड़कर आरती गाना इनका मुख्य कार्य होता है। इसी बीच क्वांर (आश्विन )के महीने में मानसिक व दैहिक सुख की लालसा से सक्रिय कुत्ते की भांति इनकी निगाहें व कान स्त्री दीर्घा की और सक्रिय रहते हैं।
कहते तो हैं ,देवालयों में आये भक्त अपने पराये की भावना से मुक्त होते हैं। इसी तथ्य के तथाकथित संस्करण होते हैं 'पूजा के आशिक। '
संवादों की बानगी देखिये .......
'' जी,आप भी पूजा कर लीजिये … पीछे क्यों खड़ी हैं। ''--आशिक मिजाजी।
''''रहने दो .. ठीक है यहीं पर। ''संवादों से पीछा छुड़ाने की कोशिश में कुवांरी छोकरी।
''अरे भई … मंदिर आयी हैं तो दो अगरबत्ती आरती घूमा दीजिये .... ईश्वर खुश हो जायेंगे। '''-आशिक मिजाजी के संवाद में ईश्वर का खुश होना प्ले बैक है।
फिर भी कुवांरी मुस्कराहट के साथ ना - नुकुर करे तो ?
''जैसी आपकी इच्छा जी। ''
बस आशिक मिजाजी को उनकी मुस्कराहट चाहिए थी ,जो देवमूर्त की मुस्कराहट से बेहतरीन लगी। मिल गई। दिल में मची गुदगुदाहट करेंट दौड़ गई में। पॉवर हाउस हो गई तबियत।
आरती -पूजन समापन के बाद ,प्रसाद वितरण। भक्तों के लौटने के बाद संवाद देखिये।
''अबे किसे पटा रहा था।''- एक आशिक मिजाजी।
''अबे पटी कहाँ ?''-दूसरा।
'' एक दिन में अपनी लंका की रानी बनाना चाहता है। ''- पहला
''चल बे … देखना तो तू अगर भगवान ने साथ दिया तो ज़रूर बना लूँगा अपनी रानी। ''
अब बेचारे भगवान क्या करें ?मंदिर में आशिकी के पाखंडों का सहयोग करें कि कुचक्र में फंसती लड़की का ?हालाँकि इस कलियुग में ईश्वर की लीला भी संदिग्ध हो जातीहै।
सब ,पूजा के आशिक के मुख में राम तबियत में आशिकी तो होती है। कोई आशिकी धर्म पर बयानबाज़ी करे तो ये योद्धा भी बन जाते हैं और पूजा-पाठ में तन-मन झोकते है पर धन ? ये खुद ही आरती की चढ़ोतरी या दान राशि पर निर्भर होते हैं। वैसे भी आजकल मंदिरों में व्यवस्थापन हेतु होती है। जहाँ समिति बन जाये ,वहाँ की मति के बारे में आप अच्छी तरह से जानते हैं। लाख कोई धर्म-कर्म ,पुण्य-पाप की बातें करना जाने पर नियत कब चंचलता का चोला धारण कर ले,कहा नहीं जा सकता
टाइप भक्त ने जब समिति सदस्य आशिक मिजाजी से प्रश्न किया कि मंदिर में इतनी दान राशि व् चढ़ोतरी आती है ,कहाँ चली जाती है। हिसाब -किताब कुछ मिलता नहीं
. आशिक मिजाजी का जवाब था ,-'' रात -दिन देवता की सेवा करते हैं ,अपना जेब खर्च भी न निकालें क्या ?हम तो कहते है साब प्रतिष्ठानों में डाका डालने से बेहतर है मंदिरों में घोटाले करो। जहाँ न ईश्वर को कुछ लेना -, देना है न भक्त को। वह तो बस तथाकथित संदेशों की पाप-पुण्य कर्म की धरा में ही डुबकी लगाता रहताहै। हमने तो यहाँ तक देखा है साब कि मंदिरों की राशि से लोगों ने अपने धंधे आवास चमका लिए और धन देवी लक्ष्मी डेरा डालकर बैठ गई। .अब अपन आपसे पूछेंगे कि आप किसकी पूजा करना पसंद करेंगे। 'पूजा की या आशिकी की पूजा ,खैर छोड़िये।
सुनील कुमार ''सजल''
क्षमा करें सर !मैं यहाँ पूजा नाम की लड़की की छुप्पम -छुप्प वाली आशिकी की चर्चा नहीं करूँगा ,बल्कि उन आशिकों की चर्चा करूँगा ,जो पूजा स्थलों या देवालयों में मौजूद होते हैं। जिन्हे आधुनिक संदर्भ की संज्ञा में आशिक कह सकते हैं।
सच ,इन आशिकों की लीला अपरम्पार है। लैला-मजनू ,सोहनी -महिवाल ,रोमियो -जूलियट जैसे ऐतिहासिक प्रेमी भी शर्म से पानी-पानी हो जाते इनकी आशिकी देख कर।
ये आधुनिक संदर्भ के प्रेमी होते हैं। इनकी आशिकी भी आधुनिक है। सुबह -शाम के वक्त इनका अड्डा देवालय या पूजा स्थलों में होता है। इस वक्त ये पूर्ण ऊर्जा से भरपूर व निगाह और मन में सोच की भूकंपीय तरंग लिए होते हैं।
ये प्रसाद वितरण और सेवा भाव के शौकीन होते हैं। होठों पर सभ्य मुस्कराहट का लिबास। चेहरे पर शालीनता का नक़ाब ,इनका खास कल्चरल मार्क है। पूजन -प्रसाद के पंचामृत में आशिकी के मेवे डाल कर हर वक्त वितरण के लिए तैयार रहते हैं। इनकी शालीन ,सामाजिक सभ्य अदा के साथ ही इनकी शक्ल देखकर उच्च श्रेणी का भविष्यवक्ता भी इनके आदेश के उबाल को पहचानने में गच्चा खा जाये।इतने विनम्र होते हैं ये.…।
अब ईश्वर को कुछ नहीं कह सकते। वह तो हर समय मुस्कुराती मूरत में होता है। उसकी मुस्कराहट इन आशिकों के प्रति व्यंग्यात्मक होती है। या दर पर पधारे भक्तों के प्रति ,जो इन बदमाशों को पहचानने में गच्चा खा जाते हैं तो ये फिर ईश्वर कि मुस्कराहट को क्या पहचानेगें।
खासतौर पर शाम के वक्त मंदिरों या देवालयों में ज्यादा हलचल होती है। दिन भर की थकान से उबरकर शांति प्राप्त करने हेतु महिलायें व कुंवारियां आरती -पूजन हेतु मंदिर आती हैं। इसी वक्त तथाकथित या एक तरफ़ा प्रेम के योद्धा बने आशिक भी 'सांझ ढले उल्लू पंख फड़फड़ाये 'की तर्ज पर मंदिर में आ जाते हैं।
मंजीरा ,ढोलक और दम भरते फेफड़ों की ताकत से शंख फूंकना व चुनाव में जोश भरे नेता की तरह गला फाड़-फाड़कर आरती गाना इनका मुख्य कार्य होता है। इसी बीच क्वांर (आश्विन )के महीने में मानसिक व दैहिक सुख की लालसा से सक्रिय कुत्ते की भांति इनकी निगाहें व कान स्त्री दीर्घा की और सक्रिय रहते हैं।
कहते तो हैं ,देवालयों में आये भक्त अपने पराये की भावना से मुक्त होते हैं। इसी तथ्य के तथाकथित संस्करण होते हैं 'पूजा के आशिक। '
संवादों की बानगी देखिये .......
'' जी,आप भी पूजा कर लीजिये … पीछे क्यों खड़ी हैं। ''--आशिक मिजाजी।
''''रहने दो .. ठीक है यहीं पर। ''संवादों से पीछा छुड़ाने की कोशिश में कुवांरी छोकरी।
''अरे भई … मंदिर आयी हैं तो दो अगरबत्ती आरती घूमा दीजिये .... ईश्वर खुश हो जायेंगे। '''-आशिक मिजाजी के संवाद में ईश्वर का खुश होना प्ले बैक है।
फिर भी कुवांरी मुस्कराहट के साथ ना - नुकुर करे तो ?
''जैसी आपकी इच्छा जी। ''
बस आशिक मिजाजी को उनकी मुस्कराहट चाहिए थी ,जो देवमूर्त की मुस्कराहट से बेहतरीन लगी। मिल गई। दिल में मची गुदगुदाहट करेंट दौड़ गई में। पॉवर हाउस हो गई तबियत।
आरती -पूजन समापन के बाद ,प्रसाद वितरण। भक्तों के लौटने के बाद संवाद देखिये।
''अबे किसे पटा रहा था।''- एक आशिक मिजाजी।
''अबे पटी कहाँ ?''-दूसरा।
'' एक दिन में अपनी लंका की रानी बनाना चाहता है। ''- पहला
''चल बे … देखना तो तू अगर भगवान ने साथ दिया तो ज़रूर बना लूँगा अपनी रानी। ''
अब बेचारे भगवान क्या करें ?मंदिर में आशिकी के पाखंडों का सहयोग करें कि कुचक्र में फंसती लड़की का ?हालाँकि इस कलियुग में ईश्वर की लीला भी संदिग्ध हो जातीहै।
सब ,पूजा के आशिक के मुख में राम तबियत में आशिकी तो होती है। कोई आशिकी धर्म पर बयानबाज़ी करे तो ये योद्धा भी बन जाते हैं और पूजा-पाठ में तन-मन झोकते है पर धन ? ये खुद ही आरती की चढ़ोतरी या दान राशि पर निर्भर होते हैं। वैसे भी आजकल मंदिरों में व्यवस्थापन हेतु होती है। जहाँ समिति बन जाये ,वहाँ की मति के बारे में आप अच्छी तरह से जानते हैं। लाख कोई धर्म-कर्म ,पुण्य-पाप की बातें करना जाने पर नियत कब चंचलता का चोला धारण कर ले,कहा नहीं जा सकता
टाइप भक्त ने जब समिति सदस्य आशिक मिजाजी से प्रश्न किया कि मंदिर में इतनी दान राशि व् चढ़ोतरी आती है ,कहाँ चली जाती है। हिसाब -किताब कुछ मिलता नहीं
. आशिक मिजाजी का जवाब था ,-'' रात -दिन देवता की सेवा करते हैं ,अपना जेब खर्च भी न निकालें क्या ?हम तो कहते है साब प्रतिष्ठानों में डाका डालने से बेहतर है मंदिरों में घोटाले करो। जहाँ न ईश्वर को कुछ लेना -, देना है न भक्त को। वह तो बस तथाकथित संदेशों की पाप-पुण्य कर्म की धरा में ही डुबकी लगाता रहताहै। हमने तो यहाँ तक देखा है साब कि मंदिरों की राशि से लोगों ने अपने धंधे आवास चमका लिए और धन देवी लक्ष्मी डेरा डालकर बैठ गई। .अब अपन आपसे पूछेंगे कि आप किसकी पूजा करना पसंद करेंगे। 'पूजा की या आशिकी की पूजा ,खैर छोड़िये।
सुनील कुमार ''सजल''
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