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सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

व्यंग्य – भक्तों की भक्ति

व्यंग्य – भक्तों की भक्ति


मंदिर परिसर शादी के मण्डप सा सजा है | ईश्वरीय धुन गूँज रही है |  सुगन्धित धूप अगरबत्ती से सम्पूर्ण वातावरण महक रहा है | भक्त व्यस्त हैं | वे ऐसे मौकों पर व्यस्त रहते हैं | कुछ पूरी तरह व्यस्त हैं |कुछ आदेश देने के काम में खुद को व्यस्त रखे हुए हैं | 
  मंदिर परिसर में पूजन इत्यादि का कार्यक्रम चल रहा है | पंडित के मुख से निकलते मन्त्र स्पीकर पर स्पष्ट सुनाई दे रहे हैं | बीच – बीच में वे चुटकी लेकर हंसा रहे हैं | कारण वे जानते हैं , प्राचीनकालीन कथाओं को कोई अब सुनना पसंद नहीं करता | लोग देव दर्शन व प्रसाद ग्रहण में रूचि रखते हैं | भीड़ बांधे रखना है तो कथाएँ व चुटकी लेना आवश्यक है | पंडित जी पूजा के आधुनिक गुर जानते हैं | सो वे सतर्क हैं | भंडारे का भी आयोजन रखा है मंदिर समिति ने | इसलिए धूप व पकाते पकवान की सुगंध को विश्लेषित किया जा सकता है | पूरा वातावरण सात्विक है | पाप की आड़ में पुण्य की परिभाषा स्पष्ट की जा रही है | जवान मनचलों की नजर खूबसूरत चेहरों पर आ टिकती है | देव मूर्ति के दर्शन तो रोज करते हैं दोस्त | ऐसे चेहरों के दर्शन यदाकदा होते हैं | अत: दर्शन कार्यक्रम जारी है पूरे ह्रदय से |
इसी बीच व्यस्त एक जवान भक्त से एक रिक्शा चालक  पूछ बैठता है –‘’ दादा भंडारा कित्ते बजे से....|’’
‘’ अभी भगवान को भोग नहीं लगा है | भगवान को भोग लगाने दो | फिर..|’’
‘’ हम तो समझ रहे थे शुरू हो गया होगा | सो सुबह से दो समोसे पर टिके रहे | सोचा पेट पूजा भंडारे में ही करेंगे |’’
‘’ अभी समय है यार कक्का |चाहो तो दो समोसे और खाकर आ जाओ |’’ भक्त की बातों में भक्ति का गर्व था  तो सम्मान भी था |
ऐसे मौकों पर भक्त पूरे गर्व से भरे होते हैं | प्रतिक चिन्हों से लदे भक्त | जिनके कुरते में परिचय पत्र नुमा समिति सदस्य होने जैसा चिन्ह भी लगा होता है | माथे पर लाल रंग का लंबा व आकर्षक टीका | जो उनकी भक्ति व भक्त के होने को परिभाषित करता है |
पंडाल से महिलायें , पुरुष , कुंवारिया , कुंवारे सभी पधार रहे हैं | भक्ति कार्य में मस्त तथाकथित भक्तों की नजरें कुंवारियों पर टिक ही जाती है | देवदर्शन करते आँखे बोर हो जाती है | मन की तरह इन्हें भी फ्रेशनेस चाहिए सो देखना ही पड़ता है यार | किसी ने कहा- जिसे भी देखो तबियत से देखो , ताकि नज़रों को पछतावा की गुंजाइश न रहे | ‘’
‘’ वाही तो कर रहे हैं | बुराई क्या है |’
     जवां भक्त पूरी तरह व्यस्त हैं | कूद-कूदकर व्यस्त | चहरे पर व्यस्तता के पूरे भाव उभर रहे हैं | वे ऊर्जा से भरे हैं | ख़ास महिलाओं के बैठने के स्थल की तरफ तो वे व्यस्त होते हुए ज्यादा ही ऊर्जा से भर जाते हैं |
चहरे पर जबरिया मुस्कान व आदर भाव लादे महिलाओं व कुंवारियों को पंडाल स्थल में बैठने की गुजारिश कर रहे हैं , ताकि मुखड़े पर पूरी सात्विकता झलके | कहते हैं –‘ ईश्वर हमारे कर्मों पर नजर रखता है पर शायद ऐसे वक्त पर खुद में मस्त रहता है | वह भक्तों की भक्ति के गर्व से भर जाता है | भंडारे से प्रसाद वितरण शुरू हो चुका है | भक्तगण प्रसाद वितरण में व्यस्त है | बहनजी और और लें | भगवान का प्रसाद है | भगवान् के द्वार में कैसा परहेज | बहनजी नामक शब्द सभी होने का मुखौटा है | भाई साहबों के लिए अलग व्यवस्था है वहां आदर वाक्यों की आवश्यकता नहीं है | कारण वे भाईसाब हैं |
  शाम का वक्त | भक्तों ने जश्न मनाने का सोचा | आधुनिक जश्न में नृत्य आवश्यक होता है | यहाँ गीतों में सात्विकता की आवश्यकता नहीं | धूमधडाका | डी.जे. साउंड | भौंडे गीत | नशे में झूमते पाँव | धक्का-मुक्की , महिला-पुरुष एक समान | चलता हैं | देव स्थल हैं | भक्ति में पूरी मस्ती |
   प्राचीन कालीन क्लासिकल नृत्य में इतना मजा कहाँ | वहां तो भाव भंगिमा के अर्थ निकालने में सारा वक्त निकल जाता है | ऎसी मस्ती व ख़ुशी कहाँ ?
 देवता ऐसे आयोजनों से खुश हैं या नहीं | यह अपन नहीं जानते पर उनकी मुस्काती मूर्ति तो ख़ुशी बयान करती है | आखिर आधुनिक समय में आधुनिक भक्ति की क्रियाओं को तो झेलना ही पडेगा न साब |
                    सुनील कुमार ‘’सजल’’
  

 


रविवार, 11 अक्तूबर 2015

लघुकथा –पति

लघुकथा –पति

उसकी उम्र पचास को छू चुकी थी |महीना भर पहले ही उसे लकवा मार गया था | सो वह अपंग बना खाट पर पडा दिन गुजार रहा था परन्तु पत्नी को उसकी पीड़ा पर तनिक भी दुःख न था |
 लोग उसे समझाने आते , ‘’ पति है, ऐसे वक्त पर उसकी सेवा करो | पति तो देवता तुल्य होता है |’’
 लोंगो की समझाइश सुनते –सुनते लंबे समय तक पति के जुल्म से दबी – कुचली पत्नी के अन्दर की चीख एक दिन मुंह से बाहर निकल आई , ‘’ जब यह स्वस्थ था, जवान था , तब इसने मुझ पर जानवरों की तरह जुल्म ढाए | मुझे टुकड़ा भर रोटी के लिए भी इसने तरसा – तरसाकर  रहा | तब आप लोग कहते थे कि पति तो देवता है , जैसा भी है , उसके साथ निबाहकर जीवन गुजारो और अब यह अपने कर्मों का दंड भुगत रहा है तो आप लोग कह रहे है कि इसकी सेवा करो क्योंकि पति देवता तुल्य होता है | मैं आप लोगों से पूछती हूँ कि पति देवता तुल्य होता है तो मैं उसकी पत्नी हूँ , ऐसे में मैं क्या हूँ ? गुलाम या देवी ?’’
 उस दिन से लोग खामोश होकर उसे समझाइश देना भूल गए |

                 सुनील कुमार ‘’सजल’’

सोमवार, 15 जून 2015

व्यंग-पूजा के आशिक

व्यंग्य - पूजा के आशिक 

क्षमा करें सर !मैं यहाँ पूजा नाम की लड़की की छुप्पम -छुप्प वाली आशिकी की चर्चा नहीं करूँगा ,बल्कि उन आशिकों की चर्चा करूँगा ,जो पूजा स्थलों या देवालयों में मौजूद होते हैं। जिन्हे आधुनिक संदर्भ की संज्ञा में आशिक कह सकते हैं। 
सच ,इन आशिकों की लीला अपरम्पार है। लैला-मजनू ,सोहनी -महिवाल ,रोमियो -जूलियट जैसे ऐतिहासिक प्रेमी भी शर्म से पानी-पानी हो जाते इनकी आशिकी देख कर। 
ये आधुनिक संदर्भ के प्रेमी होते हैं। इनकी आशिकी भी आधुनिक है। सुबह -शाम के वक्त इनका अड्डा देवालय या पूजा स्थलों में होता है। इस वक्त ये पूर्ण ऊर्जा से भरपूर व निगाह और मन में सोच की भूकंपीय तरंग लिए होते हैं। 
ये प्रसाद वितरण और सेवा भाव के शौकीन होते हैं। होठों पर सभ्य मुस्कराहट का लिबास। चेहरे पर शालीनता का नक़ाब ,इनका खास कल्चरल मार्क है। पूजन -प्रसाद के पंचामृत में आशिकी के मेवे डाल कर हर वक्त वितरण के लिए तैयार रहते हैं। इनकी शालीन ,सामाजिक सभ्य अदा के साथ ही इनकी शक्ल देखकर उच्च श्रेणी का भविष्यवक्ता भी इनके आदेश के उबाल को पहचानने में गच्चा खा जाये।इतने विनम्र होते हैं ये.…।
अब ईश्वर को कुछ नहीं कह सकते। वह तो हर समय मुस्कुराती मूरत में होता है। उसकी मुस्कराहट इन आशिकों के प्रति व्यंग्यात्मक होती है। या दर पर पधारे भक्तों के प्रति ,जो इन बदमाशों को पहचानने में गच्चा खा जाते हैं तो ये फिर ईश्वर कि मुस्कराहट को क्या पहचानेगें।
खासतौर पर शाम के वक्त मंदिरों या देवालयों में ज्यादा हलचल होती है। दिन भर की थकान से उबरकर शांति प्राप्त करने हेतु महिलायें व कुंवारियां आरती -पूजन हेतु मंदिर आती हैं। इसी वक्त तथाकथित या एक तरफ़ा प्रेम के योद्धा बने आशिक भी 'सांझ ढले उल्लू पंख फड़फड़ाये 'की तर्ज पर मंदिर में आ जाते हैं।
मंजीरा ,ढोलक और दम भरते फेफड़ों की ताकत से शंख फूंकना व चुनाव में जोश भरे नेता की तरह गला फाड़-फाड़कर आरती गाना इनका मुख्य कार्य होता है। इसी बीच क्वांर (आश्विन )के महीने में मानसिक व दैहिक सुख की लालसा से सक्रिय कुत्ते की भांति इनकी निगाहें व कान स्त्री दीर्घा की और सक्रिय रहते हैं।
कहते तो हैं ,देवालयों में आये भक्त अपने पराये की भावना से मुक्त होते हैं। इसी तथ्य के तथाकथित संस्करण होते हैं 'पूजा के आशिक। '
संवादों की बानगी देखिये .......
'' जी,आप भी पूजा कर लीजिये … पीछे क्यों खड़ी हैं। ''--आशिक मिजाजी।
''''रहने दो .. ठीक है यहीं पर। ''संवादों से पीछा छुड़ाने की कोशिश में कुवांरी छोकरी।
''अरे भई … मंदिर आयी हैं तो दो अगरबत्ती आरती घूमा दीजिये .... ईश्वर खुश हो जायेंगे। '''-आशिक मिजाजी के संवाद में ईश्वर का खुश होना प्ले बैक है।
फिर भी कुवांरी मुस्कराहट के साथ ना - नुकुर करे तो ?
''जैसी आपकी इच्छा जी। ''
बस आशिक मिजाजी को उनकी मुस्कराहट चाहिए थी ,जो देवमूर्त की मुस्कराहट से बेहतरीन लगी। मिल गई। दिल में मची गुदगुदाहट करेंट दौड़ गई में। पॉवर हाउस हो गई तबियत।
आरती -पूजन समापन के बाद ,प्रसाद वितरण। भक्तों के लौटने के बाद संवाद देखिये।
''अबे किसे पटा रहा था।''- एक आशिक मिजाजी।
''अबे पटी कहाँ ?''-दूसरा।
'' एक दिन में अपनी लंका की रानी बनाना चाहता है। ''- पहला
''चल बे … देखना तो तू अगर भगवान ने साथ दिया तो ज़रूर बना लूँगा अपनी रानी। ''
अब बेचारे भगवान क्या करें ?मंदिर में आशिकी के पाखंडों का सहयोग करें कि कुचक्र में फंसती लड़की का ?हालाँकि इस कलियुग में ईश्वर की लीला भी संदिग्ध हो जातीहै।
सब ,पूजा के आशिक के मुख में राम तबियत में आशिकी तो होती है। कोई आशिकी धर्म पर बयानबाज़ी करे तो ये योद्धा भी बन जाते हैं और पूजा-पाठ में तन-मन झोकते है पर धन ? ये खुद ही आरती की चढ़ोतरी या दान राशि पर निर्भर होते हैं। वैसे भी आजकल मंदिरों में व्यवस्थापन हेतु होती है। जहाँ समिति बन जाये ,वहाँ की मति के बारे में आप अच्छी तरह से जानते हैं। लाख कोई धर्म-कर्म ,पुण्य-पाप की बातें करना जाने पर नियत कब चंचलता का चोला धारण कर ले,कहा नहीं जा सकता
टाइप भक्त ने जब समिति सदस्य आशिक मिजाजी से प्रश्न किया कि मंदिर में इतनी दान राशि व् चढ़ोतरी आती है ,कहाँ चली जाती है। हिसाब -किताब कुछ मिलता नहीं
. आशिक मिजाजी का जवाब था ,-'' रात -दिन देवता की सेवा करते हैं ,अपना जेब खर्च भी न निकालें क्या ?हम तो कहते है साब प्रतिष्ठानों में डाका डालने से बेहतर है मंदिरों में घोटाले करो। जहाँ न ईश्वर को कुछ लेना -, देना है न भक्त को। वह तो बस तथाकथित संदेशों की पाप-पुण्य कर्म की धरा में ही डुबकी लगाता रहताहै। हमने तो यहाँ तक देखा है साब कि मंदिरों की राशि से लोगों ने अपने धंधे आवास चमका लिए और धन देवी लक्ष्मी डेरा डालकर बैठ गई। .अब अपन आपसे पूछेंगे कि आप किसकी पूजा करना पसंद करेंगे। 'पूजा की या आशिकी की पूजा ,खैर छोड़िये।
सुनील कुमार ''सजल''