बुधवार, 25 नवंबर 2015

लघुव्यंग्य कथा – किराया

लघुव्यंग्य कथा – किराया


पिछले दो माह से वेतन नहीं मिला था |पत्नी कहने लगी | ऐसा कैसा दफ्तर है और अफसर वेतन का भुगतान नहीं करा सके | ‘’
मैंने कहा –‘’ कभी-कभी दफ्तर में काम का बोझ इतना बढ़ जाता है कि ऐसी स्थिति बनना स्वाभाविक हो जाता है |
‘’ राम जाने लोग तो पहले पैसे को महत्त्व देते हैं , पर आप लोग ...?पत्नी में कहा |
मैंने कहा-‘’ तुम नहीं समझोगी रीता ....| काम अपनी जगह पर...|
पत्नी बीच में बोल पड़ी ... खैर छोडो भी ...कहो तो मायके खबर भेजकर भाई साब के हस्ते कुछ रुपये बुलावा लूं ...|
मैंने कहा – ‘ तुम रुपये तो बुलावा लो मगर आदत के अनुसार फिर कहोगी उन्हीं रुपयों में से उन्हें आने जाने का किराया भी दे दो...| पत्नी मेरी बातों पर कुछ खीझ सी गई ... ‘’किराया ... किराया देना आपको चुभ रहा हैं ... और अगर किसी साहूकार से कर्ज पर रुपये उठाओगे तो वह अपना रिश्तेदार तो है नहीं जो बिना ब्याज के रुपये दे दे | भाई को किराया दे दिया तो कम से कम भविष्य में आपके हमारे प्रति उसकी आत्मीयता व सहायता कि इच्छा तो बनी रहेगी .... मगर साहूकार ? जब तक उसके धंधे के सहयोगी रहोगे , तब तक आत्मीयता दिखाएगा इसके बाद दुत्कार देगा ....? ‘’
पत्नी कि समझाइश भरी बातें अपनी जगह पर शत-प्रतिशत ठीक तो थी पर जानें क्यों किराया देने वाली बात मुझे चूकवश अंगुली में गड़ी हुई सुई की भाँती चुभती महसूस हो रही थी |

     सुनील कुमार सजल 

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