लघुव्यंग्य
– आरक्षण
पिछले
दिनों एक शासकीय संस्था में ‘’आरक्षण : एक राजनैतिक एवं सामाजिक बुराई ‘’विषय पर
संगोष्ठी संपन्न हुई थी |मुख्यातिथि एवं अध्यक्ष जी स्वं आरक्षित कोटे के तहत सेवा
में आए थे |आज सीनियर हो चुके थे | परन्तु उन्होंने आरक्षण की बुराई को लेकर बड़े
तेवरदार भाषण दी थे | अध्यक्ष महोदय ने कार्यक्रम के समापन पूर्व कहा था- ‘’
आरक्षण के कारण योग्यता , बुद्धि जीविता व समाज में बंटवारा हो गया है |
जिसके
कारण एकता की अंदरूनी रूप से बड़ा धक्का लगा है आज लोग एक-दूसरे वर्ग को हीनभावना
से देखते हैं , यदि सामाजिक एकता व वर्ग में एकता का दम-ख़म लाना है तो आरक्षण की
खोदी गई राजनैतिक खाई को पाटकर समतल करना होगा | भाषण समाप्ति के उपरांत कुछ लोगों
ने उपरी मन से व कुछ लोगों ने गहरे मन से तालियाँ बजाकर उनका स्वागत किया था | एक
शाम विनोदजी के घर ( जो कार्यक्रम के अध्यक्ष रह चुके थे ) | चार-पांच लोग बैठे
गोष्ठी की सफलता पर डिस्कस कर रहे थे | तभी विनोदजी बोले – ‘’ गोष्ठी- वोश्थी तो
ठीक है ... मगर शासन ने आरक्षण समाप्त कर दिया तो समझो हमारे पढ़-लिखकर तैयार हुए
बच्चे शासकीय सेवा के लायक नहीं रह जाएंगे |
क्योंकि
हमने उन्हें ऐसे संस्कार दी ही नहीं कि वे गैर आरक्षित वर्ग के लोगों से तुलनात्मक
रूप से संघर्ष कर सकें ...| ‘’ उनकी बातें सुनकर साथ बैठे लोगों को अपनी पाँव तले जमीन
की दृढ़ता का एहसास होते ही चेहरे पर चिंताओं की लकीरे उभरने लगी थी |
सुनील कुमार ‘’सजल’’
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