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शनिवार, 25 जुलाई 2015

लघुकथा – फर्ज


लघुकथा – फर्ज

रेशमा और पिताजी के बीच सुबह-सुबह ही काफी बहस हो गई थी | पिताजी के बाजार चले जाने के बाद मां ने रेशमा को समझाने के अंदाज में डांटते हुए कहा- ‘रेशमा तुझे कितनी बार समझाया कि अपने पापा से जुबान मत लड़ाया कर | पर तू तो मानने से रही | मैं देख रही हूँ कि तमीज के नाम पर तू दिनोंदिन मर्यादा को लांघती जा रही है |’’
‘’ मम्मी , पहले पापा को समझाओ , वो मुझसे कैसे-कैसे प्रश्न करते हैं |’’ रेशमा गुस्से में पैर पटकते हुए बोली |
‘ भला ऐसा कौन सा प्रश्न कर दिया उन्होंने तुझसे ?””
“ यही कि तू कल कॉलेज में जिस लडके के साथ घूम रही थी < वो कौन है ? रोजाना प[आर्क में क्यों जाती है ? और कई उलटे-सीधे सवाल ?’’
‘ तो क्या हुआ ... वो तेरे पिताजी हैं | तुझ जैसी जवान-कुंवारी लड़की की खोज-खबर रखना उनका फर्ज है | ज़माना ठीक नहीं है |’’
‘’ तो क्या केवल कुंवारी लड़की की ही खोज-खबर रखना उनका फर्ज है ? अगर शादी-शुदा होती और गलत कदम उठाती तो क्या वे मुझसे नजरें चुरा लेते ? क्या केवल कुँवारी लड़कियां ही गलत रास्ते पर जा सकती हैं , शादीशुदा नहीं ?’’
   रेशमा ने मां के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी | प्रश्नों के बोझ टेल वह झुक चुकी थी | आखिर वे भी एक प्राइवेट कंपनी में क्लर्क हैं , जहां पुरुष कर्मचारियों की  भीड़ अधिक है ....|’’
         सुनील कुमार ‘सजल’