लघुकथा – फर्ज
रेशमा और पिताजी के बीच सुबह-सुबह ही काफी
बहस हो गई थी | पिताजी के बाजार चले जाने के बाद मां ने रेशमा को समझाने के अंदाज
में डांटते हुए कहा- ‘रेशमा तुझे कितनी बार समझाया कि अपने पापा से जुबान मत लड़ाया
कर | पर तू तो मानने से रही | मैं देख रही हूँ कि तमीज के नाम पर तू दिनोंदिन
मर्यादा को लांघती जा रही है |’’
‘’ मम्मी , पहले पापा को समझाओ , वो मुझसे
कैसे-कैसे प्रश्न करते हैं |’’ रेशमा गुस्से में पैर पटकते हुए बोली |
‘ भला ऐसा कौन सा प्रश्न कर दिया उन्होंने
तुझसे ?””
“ यही कि तू कल कॉलेज में जिस लडके के साथ घूम रही थी < वो कौन है ? रोजाना प[आर्क में क्यों जाती है ? और कई उलटे-सीधे सवाल ?’’
“ यही कि तू कल कॉलेज में जिस लडके के साथ घूम रही थी < वो कौन है ? रोजाना प[आर्क में क्यों जाती है ? और कई उलटे-सीधे सवाल ?’’
‘ तो क्या हुआ ... वो तेरे पिताजी हैं | तुझ
जैसी जवान-कुंवारी लड़की की खोज-खबर रखना उनका फर्ज है | ज़माना ठीक नहीं है |’’
‘’ तो क्या केवल कुंवारी लड़की की ही खोज-खबर
रखना उनका फर्ज है ? अगर शादी-शुदा होती और गलत कदम उठाती तो क्या वे मुझसे नजरें
चुरा लेते ? क्या केवल कुँवारी लड़कियां ही गलत रास्ते पर जा सकती हैं , शादीशुदा
नहीं ?’’
रेशमा ने मां के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी | प्रश्नों के बोझ टेल वह
झुक चुकी थी | आखिर वे भी एक प्राइवेट कंपनी में क्लर्क हैं , जहां पुरुष
कर्मचारियों की भीड़ अधिक है ....|’’
सुनील कुमार ‘सजल’
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