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रविवार, 19 जुलाई 2015

लघुकथा – धन


लघुकथा – धन

‘’ आपने अभी तक शादी नहीं की क्या ?’’ दफ्तर में स्थानान्तरित होकर आए सहकर्मी को लंबेसमय से अकेले जीवन गुजारते देख सहकर्मी मित्र ने पूछा |
‘’ की थी पर..?’’
‘’ मैं समझा नहीं !’’ मित्र ने प्रश्न किया |
‘’ हम दोनों के बीच पटरी नहीं बैठी , सो तलाक हो गया |’’ उसने सामान्य लहजे में कहा |
‘’ तो फिर दोबारा ...?’’
‘’ नहीं की ... शादी की तरफ से मन ही विरक्त  हो गया है |’’ उसने कहा |
‘’ आपकी बीबी है, न बच्चे हैं तो फिर इतना धन किसके लिए जोड़ रहे हो , साधारण जीवनशैली छोड़कर हमारी तरह खूब खाओ पीओ , मौजमस्ती करो, एन्जॉय इज लाइफ !’’ मित्र ने समझाने के अंदाज में चहकते हुए कहा |
 ‘’ यह धन मैं अपने सुखद बुढापे के लिए जोड़ रहा हूँ | तुम्हें मालूम ही होगा  कि धन तो अच्छे-अच्छों  को उँगलियों पर नचाता है | अगर बुढापे के समय मेरे पास धन होगा तो शिथिल होते हुए भी मैं अपने भाई-बंधुओं को पूरी ताकत से नचाने की क्षमता रखूंगा और वे लालचवश ही सही, पूरी लग्न से मेरी सेवा करेंगे | आज मौजमस्ती करके कल नरक का द्वार नहीं देखना चाहता | ठीक कहा न....!
     सुनील कुमार ‘’ सजल’’