लघुकथा – धन
‘’ आपने अभी तक शादी नहीं की क्या ?’’ दफ्तर में स्थानान्तरित होकर आए
सहकर्मी को लंबेसमय से अकेले जीवन गुजारते देख सहकर्मी मित्र ने पूछा |
‘’ की थी पर..?’’
‘’ मैं समझा नहीं !’’ मित्र ने प्रश्न किया |
‘’ हम दोनों के बीच पटरी नहीं बैठी , सो तलाक हो गया |’’ उसने सामान्य
लहजे में कहा |
‘’ तो फिर दोबारा ...?’’
‘’ नहीं की ... शादी की तरफ से मन ही विरक्त हो गया है |’’ उसने कहा |
‘’ आपकी बीबी है, न बच्चे हैं तो फिर इतना धन किसके लिए जोड़ रहे हो ,
साधारण जीवनशैली छोड़कर हमारी तरह खूब खाओ पीओ , मौजमस्ती करो, एन्जॉय इज लाइफ !’’
मित्र ने समझाने के अंदाज में चहकते हुए कहा |
‘’ यह धन मैं अपने सुखद
बुढापे के लिए जोड़ रहा हूँ | तुम्हें मालूम ही होगा कि धन तो अच्छे-अच्छों को उँगलियों पर नचाता है | अगर बुढापे के समय
मेरे पास धन होगा तो शिथिल होते हुए भी मैं अपने भाई-बंधुओं को पूरी ताकत से नचाने
की क्षमता रखूंगा और वे लालचवश ही सही, पूरी लग्न से मेरी सेवा करेंगे | आज
मौजमस्ती करके कल नरक का द्वार नहीं देखना चाहता | ठीक कहा न....!
सुनील कुमार ‘’ सजल’’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें