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रविवार, 31 जनवरी 2016

लघुव्यंग्य –व्याकुलता

लघुव्यंग्य –व्याकुलता

पड़ोसी यादव जी के यहां बकरी ने एकाध माह पूर्व दो मेमनों को जन्म दिया था |वे मेमने को किसी बाहरी सौदागर के हाथ सौदा करते हुए सौंप रहे थे | रस्सी में बंधी सारा नजारा देखती बकरी अपने बच्चे को दूसरे के हाथ में देखकर व्याकुलता से मिमिया रही थी | बार-बार रस्सी तोड़ने को प्रयास करती पर हर बार असफल हो जाती |
सौदा तो हो चुका था | सौदागर निकल चुका था |
उधर श्रीमती यादव काफी बैचैन थीं | वे सभी से पूछ रही थी – ‘ चुन्नू बहुत देर से नही दिख रहा है ? आपके यहाँ है क्या ? कहीं तालाब की तरफ तो नहीं गया ? काफी खोजबीन के बाद पता चला कि पड़ोस में बच्चों के साथ खेल रहा है | तब कहीं जाकर उनकी जान में जान आयी |
घर लौटकर आँगन में कड़ी वे खुशी –ख़ुशी दी गयी रकम गिन रही थी |इधर मातृत्व नारों से ओझल हुए मेमने की व्याकुलता में बेचारी बकरी ममता भरी आवाज में अभी भी मिमिया रही थी |


सुनील कुमार ‘सजल’