लघुव्यंग्य
–व्याकुलता
पड़ोसी
यादव जी के यहां बकरी ने एकाध माह पूर्व दो मेमनों को जन्म दिया था |वे मेमने को
किसी बाहरी सौदागर के हाथ सौदा करते हुए सौंप रहे थे | रस्सी में बंधी सारा नजारा
देखती बकरी अपने बच्चे को दूसरे के हाथ में देखकर व्याकुलता से मिमिया रही थी |
बार-बार रस्सी तोड़ने को प्रयास करती पर हर बार असफल हो जाती |
सौदा तो
हो चुका था | सौदागर निकल चुका था |
उधर
श्रीमती यादव काफी बैचैन थीं | वे सभी से पूछ रही थी – ‘ चुन्नू बहुत देर से नही
दिख रहा है ? आपके यहाँ है क्या ? कहीं तालाब की तरफ तो नहीं गया ? काफी खोजबीन के
बाद पता चला कि पड़ोस में बच्चों के साथ खेल रहा है | तब कहीं जाकर उनकी जान में
जान आयी |
घर लौटकर
आँगन में कड़ी वे खुशी –ख़ुशी दी गयी रकम गिन रही थी |इधर मातृत्व नारों से ओझल हुए
मेमने की व्याकुलता में बेचारी बकरी ममता भरी आवाज में अभी भी मिमिया रही थी |
सुनील
कुमार ‘सजल’
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