मंगलवार, 5 मई 2015

लघुकथा - सजा

लघुकथा - सजा
वह करीब माह भर से भगवान  दरबार पर  जाता रहा और एक ही रोना रोता - ' भगवान मेरे ऊपर यह कैसा अन्याय उड़ेल रहे हो , तुम्ही देखो पहले पत्नी मानसिक विक्षिप्त हुई फिर आग लगा कर आत्महत्या  कर ली ,साल दो साल के दो छोटे बच्चे मां  बगैर होकर रह गए ,अब करूँ भी तो क्या करूं ,मेरा संकटतो हरो भगवान.....। ''
 एक दिन भगवन प्रकट हुए । बोले- ' वत्स ! तूने अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मारी है । '
 ''यह क्या कह   रहें हैं  भगवन....। '
'' जो कह रहा हूँ ठीक कह रहा हूँ.. अगर तू पिछ्ला जीवन निकम्मेपन व कामचोरी से न   जीता तो तेरी पत्नी तेरे संग नमक-रोटी खाकर भी खुश रहती । वह तेरी बढ़ती कारगुजारी को नहीं देख सकी और मानसिक विक्षिप्ता का शिकार हुई... मगर तू न   सुधरा । तेरी अति उसे सहन न हुई तो उसे भूख - प्यास  बिलखते बच्चों  देखना मुमकिन न रहा और फिर ...... तुझे मालूम है, इसलिए तुझे ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि प्रायश्चित कर सके.....। '' इतना कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए । वह देखता रह गया ।

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