व्यंग्य- उल्लू का दर्द
सरकार की पेंदी दो दिशाओं में
लुडकती है | पहली दिशा में वह चुनाव जीतकर सत्ता में बैठने के बाद | और दूसरी दिशा
में चुनाव के करीब आने के संकेत पर |
अभी पिछले दिनों सरकार की
पेंदी जिस दिशा में लुढ़की थी | वह चुनाव करीब आने का संकेत था | दूसरी दिशा में
सर्कार का लुढ़कना जनता के हित में होता है | वह इस वक्त जनता की होती है |
फिलहाल सरकार जनता की हो
चुकी थी | भ्रष्टकर्मियों पर आफत आ पड़ी थी | हालांकि वे सतर्क थे | पर शासन या
प्रशासन में चूक का महत्त्व होता है | आखिर वे भी तो इंसान हैं और इंसान गलतियों
का पुतला होता है | पुतला तो अंगुली के इशारे पर चलता था | अभी तक वह सरकार की
अंगुली पर था |
भ्रष्टकर्मियों पर आफत आयी
तो उसकी काली कमाई पर छापे पड़ने लगे , जो अभी तक जनता के लिए आफत बने थे | सर्कार
जनता के साथ थी | इसलिए वह भ्रष्टाचार निरोधक व्यवस्था से छापे डलवा रही थी |
बदनाम सरकारें छवि का कालिख ऐसे ही कर्मों से साफ़ करती है | साथ ही जनता की आवाज
पर ध्यान देती है | जो विपक्षियों के संग मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ नारेबाजी कर
रही होती है | सोयी सरकार को जागना पड़ता है | ऐसी चीख पुकार से | जनता के संग सुर
मिलाने वाले विपक्षी सोते कहाँ हैं | विपक्ष में बैठने पर वैसे भी आँखों की नींद व
दिल का चैन गायब रहते हैं | अब क्या करें विपक्षी ? ट्रस्ट जनता के संग हो लेते हैं
| अपनी त्रासदी उगलने के लिए |
जनता को भी जरुरत होती है हाथ में लाठी व माइक लिए नेतृत्वकी | सो, वह
उसके पीछे –पीछे भेड़की तरह चलती है | जनता की किस्मत अच्छी है कि उसे ऐसा नेतृत्व
चुनाव के वक्त तो मिल जाता है |
भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वर तेज
थे | भ्रष्टाचार के खिलाफ छापे पद रहे थे | रिश्वत खोर पकडे जा रहे थे | छवि का
कमाल देखी | अदना –सा कर्मचारी भी करोडपति निकल रहा था | जिसने सरकारी खजाने के
पेंच ढीले कर रखे थे | हालांकि पिछले वर्षों में सरकार के पास धन की कमी नहीं थी |
वह योजनाओं के लिए धन पानी की तरह बहा रही थी | योजनायें कागजी नाव थी | इस बहाव
में बह रही थी | या कहें जनता के आँखों के सामने डूब रही थी | सरकार अपने मुंह
मिट्ठू बन रही थी | होर्डिंग / विज्ञापन / पोस्टर / प्रचार फिल्मों में सरकार
योजनाओं के साथ मुसकरा रही थी | जनता रो रही थी ढूंढ रही थी योजनाओं को | वह आपस
में पूछती –‘’ कहीं देखा आपने अमुक योजना को |’’ अपनों से जवाब मिलता –‘’ कहीं तो
होगी | तभी तो विज्ञापनी गुणगान जारी है |’’ पड़ते छापों की भी अपनी विशेषता थी |
बिना विशेषता के शायद सरकारी काम काज नहीं होते | विशेषता भोली जनता के बाहर थे |
जनता भोली होती है , इसलिए वह जनता होती है |
छापे केवल सरकारी कर्मियों
के कुकर्मों पर पड़ रहे थे | जनता वास्तव में भोली है | उसे इतनी भी समझ नहीं
भ्रष्टाचार का खेल केवल क्या अर्कारी कर्मचारी ही खेलते हैं ? वे नहीं खेलते जो
उनके सिर पर अपने राजनैतिक हस्त की छात्र छाया बनाकर रखते हैं |
जनता भूल भुलैया में थी |
छपे की खबरें चटकारें लेकर पढ़ रही थी | ‘’ अच्छा काम कर रही सरकार | भ्रष्टाचार
ऐसे में ही समाप्त होगा | भ्रष्ट लोगों को सजा मिलनी चाहिए | जनता की नजर में
सरकारी कार्मीन भ्रष्ट है | सत्ता के राजनैतिक साधक ईमानदार हैं | क्योंकि वे
भ्रष्टता के खिलाफ चल रहे थे |
जनता इतनी नासमझ है | उसने
सोचा तक नहीं भ्रष्टाचार की शुरुआत की नींव कहाँ है | किसके इशारे पर प्रशासन की
बेलगाम बनाते हैं |
जनता को सरकार ने योजनाओं का
सब्ज बाग़ दिखाया नहीं कि वह सरकार की हो जाती है | जनता को क्या चाहिए दवा दारु ,
सस्ता अनाज और आश्वासन | सो इत्ता काम सरकार कर देती है | अत: वर्त्तमान माहौल में
जनता सरकार के लिए थी और सरकार जनता के लिए |
मैंने आम आदमी से पूछा | जो
लोकतंत्र में जनता की परिभाषा होता है |
‘’ सरकार की चाल समझ में आयी
तुम्हें ?’’
‘’कैसी चाल ?’’
‘’ सरकार का निशाना प्रशासन
के कर्मियों पर है | छपे उनके घर पर पद रहें हैं | जबकि स्वयं उनके कई
मंत्री-नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हैं |
वे सुरक्षित हैं | ‘’
‘’ असली भ्रष्टाचार तो
कर्मीं अपनाते हैं |’’
‘’ राजनीति उन्हें करवाती है
|’’
‘’ वे नकारते क्यों नहीं |’’
‘’ उन्हें नौकरी करनी हैं |
राजनीति हर किसी को सीधा करना जानती है और टेढा भी | आम आदमी खामोश हो चुका था |
बहस से दूर होकर उसके दिमाग में सिर्फ एक जूनून था | किसी तरह भ्रष्टाचार मिटे |
अत: भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलनरत था जनता की मंशा को कुछ हद तक सफलता से जोड़ने
के लिए सरकार अपना तरिका अपना रही थी विपक्षी अपना | जनता रूपी उल्लू की टाँगे
एक-एक दोनों पकडे बैठे थे | अब देखना था सीधा करने में किसे सफलता मिलाती | फिलहाल
उल्लू छटपटा रहा है | दर्द से कराह रहा है | सरकार और विपक्षी मुस्कुरा रहे थे |
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