रविवार, 8 मई 2016

लघुकथा- डायन

लघुकथा- डायन

विधवा अहरिन गाँव की पाचवीं औरत थी , जो डायन होने के शक में गाँव की भारी पंचायत में अपमानित होने के बाद नग्न घुमाए जाने का संत्रास भुगत रही थी |इसके पहले रौबदार सरपंच राम कृपाल ने अपने अन्दर चैत की धुप - सी दहकती वासना पर सहयोग की आषाढी फुहार करने का प्रस्ताव रखा था | परन्तु विधवा होते हुए भी अपनी मर्यादा पर गर्व करने वाली अहरिन ने उसे भद्दी गाली देकर उसकी नीयत को सबके सामने उजागर करने की धमकी देते हुए सरपंच के घिनौने प्रस्ताव पर जोरदार तमाचा जड़ दिया था | तभी से वह सरपंच की आँखों में फंसे  तिनके की भाँती खटक रही थी |
गाँव में राजनीतिक रौब और सरपंच जैसे रुतबेदार पद पर आसीन होने के साथ रामकृपाल की सोच में अब अहरिन को किसी भी तरह मात देने के अलावा कोई चारा नजर नहीं आ रहा था | उसे लगने लगा था कि अगर उसकी करतूत की पोल खुल गयी तो वह लोगो के सामने मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह जाएगा |
  उस दिन मौसम अनमना था | सर्द हवाओं का जोर | सूरज भी चमकते हुए अपना मुंह चुरा लेता | ऐसे दौर में सरपंच का पुत्र बीमार पड़ गया था | इसी मौके का लाभ उठाकर सरपंच ने पूरे गाँव में अफवाह फैला दी ,’’ अहरिन डायन है , चुड़ैल है | अगर आप में से किसी को मेरी बात का विशवास न हो तो भूलैया ओझा से पूछ लो |
भूलैया गाँव का नामी ओझा था | उसने जो कह दिया , वह पत्थर की लकीर के सामान होता | लेकिन पैसों की चकाचौंध ने भोलैया को सरपंच की आवाज में बोलने को मजबूर कर दिया था | ऐसे में लोगों को उसकी बात का विशवास न हो, यह कैसे हो सकता था |
  अहरिन इस घोर अपमान भरी घटना के बाद अंत:स्थल पर प्रतिशोध व अपमान की आग में चूल्हे में दहकते अंगारों सी दाहक रही थी | बेचारी अन्दर ही अन्दर जल रही थी | कभी सोचती कि आत्महत्या कर ले तो कभी अन्दर का सोया साहस जाग उठाता | कभी वह बुदबुदाती रह जाती ,’’ अगर यूँ ही मौत को गले लगा लेगी तो इस गाँव में न जाने उस जैसी कितनी ही डायनें पैदा होती रहेंगीं | तू ऐसा कर डायन घोषित करने वाले नराधार्मों का ही अंत कर दाल...| नहीं ...नहीं ... फिर तो लोग मुझे हत्यारिन ठहराएंगे | लोग मेरे खिलाफ कोई षड्यंत्र रचेंगें ...| पर अब षड्यंत्र रचे भी तो क्या , अब मेरे पास छिपाने को रह ही क्या गया है , जो गाँव वाले....?’’
  विचारों के भंवर से जूझते उसे दिन, हफ्ता व महीना गुजर गए | अत: एक दिन उसके नारीत्व ने उसे ललकारा और उसके अन्दर सोया हुआ साहस जाग उठा |
   अगले ही दिन एक के बाद एक पांच लहुलुहान लाशें बिछ  गयी |छठी लाश के रूप में वह स्वयं थी , जो लाश होकर भी रणक्षेत्र में जीत की प्रसन्न मुद्रा में नजर आ रही थी , मानो माटी की मूरत में किसी ललकार ने मुस्कान को बड़ी खूबसूरती से गढ़ा हो |

  सुनील कुमार सजल



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