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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

व्यंग्य –नकली बनाम असली

व्यंग्य –नकली बनाम असली

विगत दिवस सुनने को मिला कि किसी पार्टी का नकली नेता पकड़ा गया | ताज्जुब हुआ, अभी तक तो यह सुनता रहा हूँ कि नकली अफसर पकडाते रहे हैं | अब नेता भी नकली |खैर छोडिये |
वैसे यह ज़माना नकली का है | आजकल असली से ज्यादा नकली चल रहा है | असली को असली कहने में भले ही लोग सकुचाएं पर नकली को असली कहने में नहीं सकुचाते | सच कहूं अगर नकली न हो तो असली की क़द्र भी न हो |
आज देखें तो नकली ही हमारी अर्थव्यवस्था सुधारने में अहम् भूमिका निभाता है | शायद यहाँ आपका दिमाग प्रश्नों से गूँज सकता है कि नकली व अर्थव्यवस्था ? अरे भई , सस्ते में असली छाप मिल जाती है | सोने के जेवरातों को ले लो | आज तोला दो तोला सोने में अच्छे-अच्छे की हैसियत जवाब दे रही है | ऐसे में नकली स्वर्ण के जेवरात असली स्वर्ण का मजा दे रहे हैं | ऊपर से चमक जाने पर आधी कीमत में वापसी की गारंटी भी | और क्या चाहिए आपको | नक़ल संस्कृति ने असल संस्कृति को यूं लताड़ा जैसे दगाबाज नेता को पार्टी | आज आदमी नकली के पीछे भाग रहा है | क्योंकि नक़ल का रास्ता सीधा , सरल व सहज होता है |
   एक बार मैं कपड़ा खरीदने एक प्रतिष्ठित दुकान में पहुंचा | दुकानदार के कर्मचारी ने पूछा – ‘ ‘ साब, आप व्यवहार में देने के लिए खरीदना चाहते हैं या खुद के लिए |’’
‘’ व्यवहार में देने के लिए |’’ मैंने कहा |
 उसने ब्रांडेड कंपनी के नामवाला कपड़ा मेरे सामने फैला दिया |
 ‘’ इतना महँगा कपड़ा मत दिखाओ मेरे भाई , मुझे सामाजिक कार्य में व्यवहार करना है | अपनी लुटिया नहीं डुबोनी है | ‘’ मैंने कप[अदा छूकर देखते ही कहा |
वह हंसा | ‘’ ‘’ आप घबराइये नहीं साब , सस्ता है दिखने में ब्रांडेड लग रहा है मगर....|’’
‘’ मगर....?’’
‘’ डुप्लीकेट है !’’ जब उसके  मुख से कीमत सुनी तो आश्चर्य में पद गया | इतनी कम अविश्वनीय कीमत | झट से हमने कपड़ा पैक करवाया निकल पड़े घर की तरफ | अब व्यवहार में लेने वाला पहली धुलाई के बाद अपना माथा पीते तो हम क्या करें | फैशन के इस दौर में गारंटी कौन देता है |
इधर हमारे मित्र चोंगालाल जी को नकली से बेहद मोह है | इसका कारण यह है कि जमाने के चलन के साथ घाघ व्यापारी हैं | एक बार पत्नी से झगड़े पत्नी द्वारा दिए गए धक्के से वे  औंधे मुंह ऐसे गिरे कि उनके दर्जन भर दांत झड गए | आजकल वे नकली दांत से अपने पोपले मुंह को फुलाए हुए हैं , जो असली माफिक लगते हैं | हमने उनसे कहा- ‘’ आखिर आपका जी नहीं माना और नकली दांत लगवा ही आए | बिलकुल असली जैसे | महंगे होंगे |’’
‘’ अरे कहाँ यार , अपनी व्यापारी बुद्धि महंगे को इजाजत कहाँ देती है ...|’ मैं उनके जवाब के बाद चुप हो गया |
अपना तो यही कहना है  भाईसाब कि यदि असली खरीदने की हैसियत न हो तो नकली सामग्री से ही काम चलाइये | आजकल असली व नकली में फर्क करने वाले दृष्टि पारखी कहाँ रहे | आकर्षण का ज़माना है सो आप भी आकर्षण पर टूट पड़ें |

                    सुनील कुमार ‘’सजल’’

सोमवार, 8 जून 2015

व्यंग्य – लोकतंत्र में भेड़ें


 व्यंग्य – लोकतंत्र में भेड़ें 


जहाँ भेड़ें  रहती हैं , वहीँ हाथ में लाठी लिए लोग भी रहते हैं |भेड़ों  के ‘ स्वतन्त्र वन ‘ विक्सित नहीं हुए | अच्छी अर्थव्यवस्था के लिए देश में भेडो का होना आवश्यक है | भेड़ों  से सिर्फ अर्थव्यवस्था ही नहीं सुधरती बल्कि लोकतंत्र भी सुरक्षित रहता है | उन देशों के हालात देख लीजिए , जहां भेड़ों  के बजाय तानाशाह भेड़िए व गीदड़ पाए जाते हैं | वहां लोकतंत्र हमेशा ही धुल चाटता नजर आता है |
 अपना देश इन मामलों में भाग्यशाली है कि भेड़ें पायी जाती हैं और भेडे की शक्ल में जनता भी | इसलिए यहाँ के लोकतंत्र को आज तक कोई डिगा नहीं सका |
   भेड़ें  सीधी – सादी प्राणी है , उन्हें एक बार रास्ता दिखा दो , वे एक के पीछे एक आँख मूंदकर नाक की सीध पर चली जाती है | बार-बार उन्हें लाठी दिखाकर रास्ते में लाने की जरुरत नहीं | एक बार हाथ में लाठी देख ली , भय के लिए बस उतना ही पर्याप्त है |
  भेंडे संतोषी जीव है | शायद वे भी इस देश के तथाकथित धर्मावालाम्बियों की तरह पाप-पुण्य धर्म-कर्म पर विशवास करती हैं| यूँ तो वे मिल-बांटकर खाना पसंद करती है पर उनका चारा दूसरा प्राणी भी खा ले , यहाँ तक कि आदमी भी तो भी चुपचाप ताकती रहती है | बेचारी इतनी शांत मिजाज की होती है कि अपनी स्वार्थ पूर्ती के लिए कोई उनकी खाल भी उधेड़ दे या जैसा चाहे , वैसा ‘’ दूह ले , फिर भी ‘’ उफ़’’ किए बगैर चुपचाप  आंसू बहाकर रह जाती है |
   उन पर होते जुल्म पर प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए एक भेंड ने दूसरी से कहा ‘’ देख तो, अफसर सरकारी कर्मचारी उद्योगपति कहे जाने वाले भेडिये व गीदड़ जब चाहें, तब हमारी खाल खीचते रहते हैं, हमारी उन निकालते रहते हैं पर अपन लोग मूक बने सब कुछ सहते रहते हैं | विद्रोह क्यों नहीं करते ?’’
  ‘’ देख री , इनके हाथों में लाठी, बन्दूक आधुनिक अस्त्र-शास्त्र व क़ानून है | अपन ने ज़रा भी कुछ ऐसा-वैओसा किया तो ये दबंगता के दम पर हमें कसाइयों के हाथ, सौप देंगे | इसलिए खामोशी की परम्परा को नियमित मानकर ही जीयें , इसी में अपना जीवन सुरक्षित है |’’
  भेड़ो के कारण ही भेड़ियों की अर्थव्यवस्था कायम है | स्विस बैंक में खाते खोलने का अधिकार इन रक्त पिपासुओं को है | भेड़ों ने भी सोचा कि वे भी अपने मान-सम्मान  के लिए स्विस बैंक में खाते खोलें | उन बेचकर आई आमद में टैक्स चोरी करके स्विस बैंक में छिपायें | पर उनकी उन की कीमत इतनी गिरा दी गई कि वे खाते खोलने के काबिल भी नहीं रहीं | कुछ ने इस पर भी हिम्मत दिखाई तो उन्हें राजधानी ने  आँख दिखाकर भगा दिया | कुछ ने उन की कीमत गिरने से व्याथित होकर आत्महत्या कर ली |
   भेड़ों को धुप , प्यास , पानी , गंदगी , बीमारी व लाचारी सहने की जैसे आदत सी पड़ गई है | वे इस घिनौने माहौल में बने झुग्गीदार ‘’ सार’’ में भी खुश है | कहती है, ‘’ हमारा सुख इसी में सुरक्षित है |’’
   सरकार से उन्हें शिकायत है कि उनकी हितैषी व विकासशील योजनायें अजगरों के हाथों में सौप दी जाती है , जिसे वे निगल जाते है | अगर किसी भेड़ ने नेतागिरी के मायने में चूं-चापाक का साहस दिखाने की कोशिश की तो उसके अस्थि-पिंजर तक का सबूत नहीं मिलता |
 इस देश में किस्म-किस्म की अपराधिक घटनाओं की शिकार होती आ रही है भेड़ें | बलात्कार , लूट ह्त्या , जालसाजी से जूझती ये भेड़ें गुंडे- मवालियों से कैसे जूझें ? हिंसक जीव कहते हैं कि भेड़ें गठीले बदन के साथ ‘’ सेक्सी ‘ भी होती है | इसलिए थाणे में रिपोर्ट दर्ज कराने में भी हिचकिचाती है | कारण कि वहां भी लार टपकाते कुत्ते उन्हें नोचने को बेताब रहते है | ऐसे में बेचारी भेंड़े अबला की भाँती आंसू के घूँट पीकर अन्दर ही अन्दर घुटती रहती हैं |
  अभी कुछ माह पूर्व हिंसक विचारधारा के लोगों ने उनकी घास-फूस वाली बस्तियों में आग लगाकर सैकड़ों भेड़ों की ह्त्या कर डी थी | बाद में पता चला कि लोकतांत्रिक चुनाव में उन्होंने प्रत्याशियों के बहिष्कार का साहस दिखाया था | हालांकि चुनाव के वक्त जूझना ही पड़ता है भेड़ों को |मूर्ख कही जाने वाली भेड़ों को खरगोशी विचारधारा वाली स्वयंसेवी संस्थाओं ने समझाया, ‘’ देखो, शिक्षा ग्रहण कर जागरूक बनो | आजकल तो हर जगह पर स्कूलों की व्यवस्था है |’
   पर वे टाल गई और बोली,- ‘’ पेट का जुगाड़ पूरा करने से फुर्सत मिले तो कुछ सोचें न ! इस रेतीली व्यवस्था में पेट के लिए दाल-रोटी का जुगाड़ करना ही सबसे कठिन काम है |’’
    हालांकि  भेड़ें अपनी मूर्खता पर कायाम है | उनकी नस्लों में सुधार के प्रयास जारी है मगर भ्रष्ट व्यवस्था में वे सच्चाई के कितने मायने समझाने की कोशिश करेंगी , यह तो वक्त ही बताएगा |
                            सुनील कुमार ‘सजल’’