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रविवार, 26 अप्रैल 2015

व्यंग्य -गायब होती लड़कियां

           व्यंग्य -गायब होती लड़कियां 
अखबार में इन दिनों खबरें खूब गरम हो रही हैं।लड्कियों के  तस्कर सक्रिय हैं।तस्करी चल रही है।
  इधर अल्लू कई दिनों से लापता है? किसके संग भागी? प्रेमी या तस्करों के हाथ चढ गई? या स्वेच्छा से घर छोड़ गई । अपने  को सच का पता नहीं है।थाने में जो हो रहा है, वह यह है –
‘’मालिक ! हफ़्ता गुजर गया, बिटिया का पता नही है……।‘’ अल्लू का  पिता मनसुख, अपराधी की शक्ल में हाथ जोड़े थानेदार साहब के सामने मिमिया रहा है।
‘’कहां गयी रे?’’ थानेदार साहब की रौबदार आवाज।
‘’ यही तो नही मालूम साहब ।“
‘’ अबे उसका किसी के संग लफ़ड़ा तो नही था ?’’
‘’ गरीब गुरबों का क्या लफ़ड़ा होगा मालिक! वह तो बहुत सीधी-सादी थी मालिक।‘’
‘’ अबे ये तू कह रहा है। अगर उसके दिमाग में कुछ पलता रहा होगा, तो क्या तू जानता है?’’
‘’ वह ऐसी नहीं थी जो गलत सोच रखे। जहां भी जाती थी, सीधे घर को समय पर आ जाती थी।‘’
‘’ कहां जाती थी?’’
‘’ मजदूरी में, पड़ोस में, नदी घाट, हैण्ड्पंप पर ।‘’
‘’इत्तई में तो सब कुछ हो जाता है।‘’
मालिक, वो ऐसी नही थी।‘’
‘’अबे… तू लल्लू टाइप है तो क्या तेरी लड़की भी वैसी है?’’
‘’ पर मालिक, मेरी भी तो सुनिए… तनिक रपट लिख लेते…
‘’ मुंशी जी, रपट लिखो।‘’थानेदार ने मुंशी को आदेश दिया।
मालिक… जल्दी पता लगा लेंगे न!’’
‘’ अबे… हम का कबूतर हैं कि रपट लिखायी और हम रपट मुंह में दबाये, तेरी लड़की का ठिकाना ढूंढने के लिए उड़ान भर दें !’’
‘’ नही-नहीं मालिक … वो क्या है कि बिटिया खोने का बड़ा दर्द है … मन में तरह-तरह की शंकाएं होती हैं। जमाना बड़ा खराब है।‘’
‘’ अबे जमाने को काहे दोष देता है ? अपनी लड़की को संभाल कर क्यों नही रखा ? वैसे तेरी और कितनी लड़कियां हैं ?’’
‘’मालिक ,तीन घर में हैं।‘’
‘’ अबे इतनी काहे पैदा कर बैठा ?’’
‘’लड़के का चांस लेने के चक्कर में… भगवान देता गया , हम रखते गए ।‘’
‘’ साले… लड़का… लड़का करते हो । यदि तुम्हारा वश चले तो तुम तो लड़कियों की क्रिकेट टीम बना डालो ।‘’
‘’ मालिक, जल्दी मिल जाएगी न अल्लू ?’’
‘’देखते हैं॥ जा, तू घर जा… एक बोतल मारकर सो… मिलेगी तो हम खुद पहुंचा देंगे तेरे घर।‘’
मुंशी जी ने मनसुख को रवाना किया था। दस- पन्द्रह मिनट बाद एक दूसरा शख्स अपनी बिटिया गुम होने की रपट लिखाने आ गया ।
 मुंशी जी का भेजा गरम हो गया । वे अभी मनसुख की जेब से पी चाय से गुमशुदगी की रपट लिखने के टेंशन से मन को हल्का करके ही बैठे थे। मुंशी जी को गुस्सा आना ही था। काहे न आए ? वे भी तो इन्सान हैं । गुमशुदगी की रपट में क्या मिलता है साब ! ज्यादा से चाय-पान या समोसा।ऊपर से खोजबीन की भागदौड़ और मीडिया वालों के सवालों का जवाब दो सो अलग। मर्डर-बलात्कार का मामला अलग किस्म का होता है। ये तो पन्द्रह –सोलह साल की लड़कियों के गुम होने का मामला है, उधर तस्कर चांदी काट रहे हैं, इधर … सब ठन ठन गोपाल …।
 अब किस-किस का पता लगायें ? दो दर्जन से ज्यादा रपट दर्ज हो चुकी हैं। यहां तो अपने थाने के सामने चोरी,डकैती, मर्डर,रेप हो जाए, तो अपन को पता नहीं चलता …लड़कियों को कहां से ढूंढकर लाएं ? ऊपर से राजनैतिक व प्रशासनिक प्रेशर अलग आ रहा है।
  वैसे ये तस्कर भी बड़े अजीब किस्म के हैं। गांजा ,दारू, भांग, अफ़ीम जैसे नशे की तस्करी छोड़कर लड़कियों तस्करी कर रहे हैं। एक अटैची में लाखों का माल ले जाने की बजाय पूरा मानव साथ रखकर चल रहे हैं।
  कित्ते लफ़ड़े हैं लड़कियां भगाकर ले जाने में। हसीन सपने दिखाओ उन्हें रोजगार का झांसा दो, चकाचौंध से रूबरू करवाओ, मुम्बई-दिल्ली की चमचमाती बस्ती की फ़ोटो दिखाओ, ऊपर से महंगे होटल के मंहगे व्यंजन खिलाने का वायदा करो। तब कहीं जाकर लड़कियां पट्ती हैं। गांव की लड़कियां । बेचारी गांव के धूल- धक्कड़,ऊबड़-खाबड़,पारम्पारिक भोजन के स्वाद से वैसे भी ऊब चुकी होती हैं,इसलिए शहरी जिन्दगी जीने की ललक में पट जाती हैं।
इधर , मनसुख बिटिया की चिन्ता में सूखकर कांटा हो गया है। उसे अपनी और तीन बेटियों की चिन्ता है। कहीं वे भी…।
  पुलिस है कि महीनों बाद भी पता नहीं लगा पायी कि कहां गयी गायब हुई लड़कियां ?
     मनसुख ने कल ही टी वीमें सुना था कि विधानसभा में शून्यकाल के दौरान लड़कियों के गांव से गायब होने का मामला उठा था । सरकार अपने बयान में कह रही थी कि पता लगा रहा है प्रशासन …।
  पर मनसुख को इतने दिनों में यह तो आभास हो गया है कि सरकार जिस घटनाक्रम का पता लगाने का बीड़ा उठाती है,वर्षों तक उसका पता नहीं लगा पाती।
     सुनील कुमार ‘’सजल’

रविवार, 5 अप्रैल 2015

लघुकथाएं


लघु कथा –साहस 

क्षेत्र में घटित हुई अपराधिक उपद्रवी घटनाओं के आधार पर सच्चे सबूतों सहित उसका एक लेख क्षेत्रीय प्रसिध्द अखबार में प्रकाशित हुआ |

 अगले दिन से ही उसे फोन पर धमकियां मिलने लगी- ‘’अबे वफादार कुत्ते आइन्दा हमारे खिलाफ अपनी कलम के सहारे भौंकने की जुर्रत नहीं करना ..वरना..इसका मतलब जानता है ...तेरा तीन वर्षीय मासूम बेटा हमारी पिस्तौल के निशाने पर होगा तेरी खूबसूरत पत्नी का कोमल जिस्म हमारी वासना की भूख का..? और तेरा जीवन आवारा कुत्ते से बदतर बना देंगे ...समझा ...|

फोन रखते ही वह अन्दर तक काँप गया |अगले दिन से वह कलम की निर्भीकता का चोला उतार फेंका |

   सुनील कुमार ‘सजल’

लघुकथा –कवितायें अब नहीं

उनकी कवितायें लम्बे अरसे से छोटी-बड़ी पत्र पत्रिकाओं में छपती आ रही थी | उच्च स्तरीय कविताओं के कारण वे अच्छे कवियों के श्रेणी में आ गए थे | लेकिन पिछले एक - दो माह पूर्व पत्नी के देहांत के उपरांत उनकी एक भी नई कविता कविता पढ़ने को नहीं मिली थी |

  एक दिन मैंने उनसे कहा- ‘’भूपेन्द्र जी क्या बात है ?आजकल आपने लिखना ही बंद कर दिया है ..माना कि भाभी जी असामायिक देहांत दुखद स्थिति है... पर उनकी स्मृति  को समर्पित करते हुए कुछ लिखा करें ताकि मन को शान्ति पहुंचेगी और और तबियत भी हल्की महसूस होगी |’’

 वे कुछ देर चुप रहे फिर बोले –‘’ दोस्त एक कड़वा सच कहें दरअसल अब तक जो भी कवितायें प्रकाशित हुई ...उन्हें उसने ही लिखा था | अब वह नहीं हैं.. तो कविताएं भी नहीं रहीं ....|’’

  उनके सच को सुनकर मैं आगे कुछ भी कने के काबिल नहीं रहा था |

  सुनील कुमार ‘’सजल’

सोमवार, 30 मार्च 2015

व्यंग्य –कुछ तो लोग कहेंगे

 व्यंग्य –कुछ तो लोग कहेंगे,,
यारों जो जी में आए कह लो| कहने में कैसा डर | अपना मुंह है कुछ भी बक लें |लोकतंत्र में रहते हैं|अपना देश अलोकतांत्रिक देश नहीं है| जहां एक बार कहने के लिए सौ बार सोचना पड़ता है|यहाँ तो इतनी छूटहै कि सौ बार बोलकर एक बार सोचते हैं| जो जी में आया कह दिया| हर कोई मां हानि का दावा थोड़ी न ठोंकता है |सामने वाले को मालूम है | आज अपना दावा ठोकेंगे| कल वह भी अपने ऊपर दावा ठोंक सकता है| अपना मुंह भी बेलगाम है |आपने वह गीत सूना होगा | ‘’कुछ तो लोग कहेंगे |लोगों का काम है कहना |’’ बसयही सोचकर बेपरवाह से हम कुछ भी करते रहते हैं| नतीजा हम पर छेड़छाड़, सीटी बाजी जैसे आरोप लगे| अखबार तक में हमारा नाम छपा|
  हम तो कहते साब | बिना कुछ कहे या करे आप महानता हासिल नहीं कर सकते | हमारे बुजुर्ग बहुत कुछ कहा करते थे| जो वे खुद नहीं करते थे वह बी| और उनमें से कुछ महान पुरुष बन गए |
     कुछ भी कहते रहने का फायदा यह होता है कि हम कहने के आदि हो जाते हैं|जैसे देश के राजनीतिज्ञ बकवास बातों को यूँ कह देते हैं जैसे कहने की बात हो|
   राजनीति का फंडाहै गूंगा या मूक बनकर राजनीति न करो| वरना देखकर कुत्ते भी न भौकेगें |दुत्कारना भी आना  चाहिए और पुचकारना भी|
        पिछले दिनों शहर के एक नेता ने महिला नेत्री पर कुछ अनर्गल टिप्पणी की| हो-हल्ला मचाया महिला संगठनों ने| नेताजी के खिलाफ नारेबाजी हुई | पर वे निश्चिन्त थे| पूछने पर बोले – जो कहना था,कह दिया|
    साब फायदे के लिए कुछ कहना पड़ता है| दरअसल, कुछ दिनों से मीडिया उन्हें महत्त्व नहीं दे रहा था | वे उपेक्षित से थे| जनता में पहचान गम होती जा रही थी, इसलिए उन्होंने सोचा कुछ कहकर लाइट में आया जाए और कह दिया | अब चार दिनों से वे लगातार छाप रहे हैं | अभी कुछ दिन पूर्व आपने न्यूज़ में सूना होगा |एक जज ने सुनवाई करते हुए कह दिया | महिलाओं को पति से पीटने में क्या बुराई है | कहने की बात थी कह दी| इअसमें महिलाओं को बुरा लगा तो वे क्या करें|
     हो सकता है उनके पास पति प्रताड़ित पत्नियों के मामले आते रहे हों या पत्नी द्वारा दर्ज फर्जी मामले भी रहे हों| मामला कुछ भी रहा हो | लगता है जज साहब ऐसे मामलों से ऊब चुके थे | सो मन के अन्दर उठी बात कह दी |   

     भई पिट लो | क्या बुरा है | पति ही तो है पीटने वाला | जिसे तुम परमेश्वर कहती हो | हरितालिका व करवा चौथ में जिसे तुम देवता मानकर देखती हो | जब तक तलाक या संबंध विच्छेद नहीं होता उसके नाम का मांग में सिदूर भारती हो | एक तरफ लम्बी उम्र की चाहत पति की | दूसरी तरफ न्यायालय में सजा दिलाने का उपक्रम | शायद यही सोचकर जज साहब ने सलाह दी हो महिलाओं को | इधर मीडिया को क्या है? मेटर चाहिए | वह तो कहने वाले का मुंह पकड़ता है| किसी ने चूंकिया उधर फूं छाप दिया | हमारी सलाह है साब कि आप भी जो मुंह में आए कही | बात मन में दबाने से शारीरिक विकृति उत्पन्न होती है, यानी आप दब्बू बन सकते हैं या टेंशन से घिर सकते हैं | अब तो हमारी सलाह मानेंगे न | सलाह देना हमारी आदत है |