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गुरुवार, 24 सितंबर 2015

व्यंग्य – सपने देखते रहिए

व्यंग्य – सपने देखते रहिए


एक बार किसी ने मुझसे कहा- ‘’ सपने देखकर जीने वाले बेवकूफ होते हैं | ‘ मैंने कहा – ‘ उन्हीं बेवकूफों में एक मैं भी हूँ ,जो सपने देखता हूँ |’ इसका कारण यह था कि मैंने एक अखबार में विज्ञान रिपोर्ट पढ़ी थी | ‘ सपने देखकर जीने वाले सफल होते हैं | बशर्ते सपने दिन में देखे जाते हों | रात वाले नींद में देखे गए सपनों से क्या फायदा होता है | इसका उत्तर मुझे ठीक-ठाक किसी ने नहीं दिया | बल्कि किसी ज्योतिष कार्यालय को जाने वाला मार्ग दिखा दिया | एक वाकया याद आता है जब मैं मिडिल क्लास में पढ़ता था | मैं अपने गुरुजी के३ समक्ष डींग हांक रहाथा | ‘ सर, मैं तो डाक्टर ही बनूंगा | ‘ गुरूजी ने डपटते हुए कहा –‘ बेवकूफ | थर्ड डिविजन उर्त्तीनांक से ऊपर उठ नहीं पा रहा है | डाक्टर बनने के सपने देख रहा है | पढाई कर पढाई | कम से कम हमारी तरह किसी प्राइमरी शाला का मास्टर बन जाएगा | उसी में तेरा भला है | शायद गुरूजी ने यह बात अपने अन्दर के दर्द को उगलते हुए इसलिए ककही होगी , जब लोगो को कही नौकरी नहीं मिलाती तो उसे गाँव के स्कूल की प्राइमरी स्कूल की मास्टरी स्वीकार लेने में भलाई है |
  पर अपन थे अड़ियल किस्म के | पढाई तो जो कुछ कर रहे थे वह अपनी जगह थी , मगर डाक्टर बनने के सपने भी सजा रहे थे | नतीजा , जवान हुए तो एक हसरत पूरी हुई | मास्टर भी बन गए और थैले में क्लीनिक लेकर चलने वाला डाक्टर भी |एक दिन पत्नी ने बताया | आजकल उसे बुरे-बुरे सपने आ रहे हैं | मैंने कहा- ‘’ क्या डरावने सपने आ रहे हैं |’’
हाँ, यही समझे |’
‘’ समझो से क्या मतलब |’’
‘’ यही कि तुम किसी हसींन  लड़की के साथ रेस्टारेंट में जाते हो | समोसा खाते हो | डोसा खाते हो और अपने हाथों से उसे खिलाते हो |’’
‘’ अच्छा यह बताओ यह सपने तुम्हें दिन आ रहे थे या रात में |’’
‘क्योंज? सपने तो नींद में आते हैं | दिन रात सर क्या सम्बन्ध है |’
‘’ कारण कि वैज्ञानिक बताते हैं दिन में देखे गए सपने सच होकर सफल होते हैं | काश तुम....|’’
‘’ हे भगवान .... मैं तो  बाख गयी ... नहीं तो मेरी किस्मत ही फूट जाती .. भगवान तेरा लाख –लाख शुक्र |’
‘’ क्यों क्या हुआ , जो तुम भगवान को शुक्रिया अदा कर रही हो |’
तुम्हारे ईश्क वाले सपने मुझे रात नींद में आ रहे हैं |’ उससे राहत भरी एक लम्बी सांस लेते हुए कहा |
  हमारे देश की राजनीति में जनता को सपने के झमेले में डालना हमारे नेताओं की कलाओं  में से एक कला है | वे सर्वप्रथम जनता को विकास के आश्वासन देकर वोट हथियाते हैं और गुलगुले की तरह कुप्प हुई जनता पांच साल तक विकास के सपने देखती रह जाती है और नेतागण मौज उड़ाते हैं |
  हमारे देश के महा पुरुषों ने प्रगतिशील भारत  का जो सपना देखा था | शायद उन्होंने रात में देखा होगा | दिन में नहीं तभी तो जैसा चाहा था, वैसा देश नहीं बन पाया | उनहोंने सोचा भी न था जिस देश को आजाद कर वे जिन राजनीतिज्ञों के हाथ में सौप रहे हैं वे इतने भ्रष्ट हो जायेंगे , उनकी कुर्बानी याद रखने की बजाय उलटे उन्हें वोट के लिए भुनाएंगे |
  खैर छोडी जबसे देशमें महंगाई ने अपना राजनैतिक निकम्मापन व मुनाफाखोरी के चलते अपना दानव रूप दिखाया है , लोगो को अब भूत- प्रेत मंदिर- मस्जिद , विकास के सपने नहीं आते , बल्कि अगली सुबह पेट के गड्डे भरने के लिए शक्कर, अनाज व् तेल-नमक के सपने आने लगे हैं | अत: स्वप्न देखना हमारी जिंदगी का अहम् हिस्सा है | हमें स्वप्न देखना चाहिए | धरती पर लेते –लेते आसमान को पाँव से धक्के मरने में क्या बुराई है |

          सुनील कुमार ‘सजल’’ 

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

लघुकथा – सोच

लघुकथा – सोच

बाबू श्याम लाल अपने बड़े लडके प्रमोद की करतूतों से काफी परेशां रहते |वह हमेशा झगड़े – फसाद , लड़कियों से छेड़छाड़ आदि में ही मशगूल रहता था | खेत्र के तमाम आवारा लड़कों के साथ उसकी संगति थी |
 एक दिन वह किसी गंभीर मामलें में पुलिस द्वारा धर-दबोचा गया \ घर में बैठे शर्मा जी श्याम  बाबू को  को समझा रहे थे | -‘’ ‘’ श्याम भाई , जाओ कुछ ले- देकर प्रमोद को छुडा लाओ \ आखिर बेटा तो आपका ही है \ कल खबर जहाँ – तहां फैलेगी तो उसमें तुम्हारी ही बदनामी होगी न | ‘’
   पर श्याम लाल टस से मस  नहीं हुए | वे प्रमोद की ओर से पूरी तरह बेफिक्र थे | मानो कुछ हुआ ही न हो | शर्माजी के बार-बार उकसाने पर वे खीझते हुए बोले- ‘’ अरे जाने दो यार | ऐसे पुत्र से तो उसका न होना ही बेहतर है | हराम खोर ने मुझे कहीं का का न छोड़ा है |
    अगले दिन पूरे गाँव में यह खबर फ़ैल गयी कि प्रमोद पुलिस हिरासत में मारा गया | शायद रात में पुलिस ने उसे बुरी तरह टार्चर किया था | 
     इधर श्याम लाल जी बेटे की मृत्यु की खबर पाकर खाट पर बेहोश पड़े थे \ उन्हें जब भी होश आता, बस यही दोहराते –‘’ मेरा एक हाथ चला गया \ अब मेरा जीना बेकार है |’’

       सुनील कुमार सजल 

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

लघुव्यंग्य- गम

लघुव्यंग्य- गम

‘’ इतनी छोटी उम्र में नशा करते हुए तुझे शर्म नहीं आती |’’ थानेदार  ने उसके गाल पर थप्पड़ जमाते हुए पूछा |
‘’ का करूँ साब मजबूरी है |’’ उसने मिमियाती आवाज में कहा |’
‘’ काहे की मजबूरी बे |’’
‘’ गम भुलाने की |’’
‘’ किस बात  का गम बे | किसी छोरी का |’’
‘’ जी नहीं साब ! मां बाप का |’’
‘’ का वे मर गए .....|’
जी नहीं.....|’
‘’ तो काहे का गम बे ....|’
‘’ साब वे खुदअपना गम भुलाने के  लिए नशे में डूबे रहते हैं | मेरा ख्याल नहीं रखते | इसलिए मैं भी उनका गम भुलाने के लिए...|’
 थानेदार  के उसके शरीर पर चलते हाथ वहीँ ठहर गए |

      सुनील कुमार ‘’सजल’