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मंगलवार, 19 मई 2015

व्यंग्य –ये गांधी को रास्ता दिखाने वाले


व्यंग्य –ये गांधी को रास्ता दिखाने वाले



महापुरुषों की भांति रास्ता दिखाने वाले लोग कहाँ रहे ,अब तो रास्ते में आने वाले जरुर मिल जाते हैं, गली , चौराहे, गांव , शहक्र कहीं भी |
पहले वक्त अलग था , लोग भटके जनों को रास्ता दिखाने में धर्म कर्म भी समझते थे | लेकिन वक्त बदला उल्टी रीत चली | राह दिखाना महज धंधा बनाकर रह गया | जो राह दिखाते हैं वे भी विश्वसनीय नहीं रहे | असली चहरे पर मुखौटा लड़ा है | धंधे का चन्दा उन्हें न  मिले तो वे राह पर हाथ फैलाकर या रोड़े बनाकर खड़े हो जाते हैं | देखते हैं साला कैसे आगे बढ़ता हैं | टांग खीचों, इत्ते के बाद भी न माने तो हाथ पाँव तोड़ दो और ज्यादा साहस दिखाए तो स्ट्रेचर पर लाड कर अस्पताल पहुचाओं और वहां डाक्टर को घूस देकर उलटा –सीधा इलाज करवाकर लकवा ग्रस्त रोगी बनवा दो | ताकि जी सके,न मर सके | बस , टुकुर –टुकुर देखकर अपनी जिन्दगी की उलटी गिनती गिनता रहे |
गांधी जी थे, वही महात्मा गांधी जी ,  जो भारतीय जनता को स्वतंत्रता पूर्वक सुखी जीवन जीने की राह दिखाते थे|लोग स्वतंत्रता पूर्वक जी सके , इसलिए उन्होंने संघर्ष किया अंग्रेजों से | पर वे नहीं रहे , अब तो वे स्टेचू के रूप में खुद चौराहे पर खड़े हैं |  वे कूद दिग्भ्रमित हैं , किधर जाएँ , कौन –सी दिशा में जाएँ, कौन –सी दिशा ठीक रहेगी, कौन-सी नहीं, स्टेचू के स्वरूप में सोच नहीं पा रहे हैं | उनके नाम से अपना धंधा चमकाने वाले , राजनीति का चरखा चलाने वाले स्वतन्त्र भारत के राजनीतिज्ञ उन्हें दिशा ज्ञान देते हैं | कभी कहते हैं –‘’ इधर मुंह करके खड़े होओ  बापू , ये रास्ता हमारी पार्टी के दफ्तर की ओर जाता है , कभी खाते हैं उधर मुंह करके खड़े होओ  बापू वो रास्ता दारू फैक्टरी और कसईखानों के तरफ जाता है | आपके जमाने से भी बेहतरीन स्वादिष्ट दारू पकती है , हाइब्रिड जानवरों का स्वादिष्ट मांस भी पैक होता है उसी तरफ | दोनों का स्वाद मिलकर जिन्दगी जीने का स्वाद ही बदल देता है |
कुछ राजनीतिज्ञ  उन्हें जबरन तीसरी दिशा की ओर मोड़ कर कहते हैं-‘’ बापू आप तो अहिंसा का नारा लगाते-लगाते मर गए क्योंकि आपके पास हिंसा के आधुनिक किस्म के हथियार नहीं थे , हम जो आपको रास्ता दिखा रहे हैं वो माफिया तस्करों के पनाहगाह की ओर ले जाता है...सस्ते में देस्शी-विदेशी अस्त्र-शास्त्र उपलब्ध करा देते हैं ... आपको जब भी जरुरत पड़े आर्डर देकर पुख्तामाल प्राप्त कर सकते हैं |
चौथे किस्म के राजनीतिज्ञ बापू की धोती खीचते हुए अपने दिशा – ज्ञान का ज्ञान बापू को देते हुए कहते-‘’ बापू इन बहकाने वालों की बातों में मत आओ , हम जो रास्ता दिखाते हैं उधर जाओ | उस तरफ देश – विदेश से मानव तस्करी के माध्यम से लायी गयी सुंदर-सुंदर लड़कियों के अड्डे हैं | जो सीटी बजाकर यौवन की नुमाइश कर बूढ़े बदन में भी जवानी की तरंग दौड़ा देती हैं \ इसलिए फालतू लोगों के बहकावे न आकर जीवन आनंद का जो सार है उसी का मजा लूटो | यही रास्ता सबसे बेहतरीन रास्ता है |
  अब बापू का करें ? किधर जाएँ ? किसकी सुने किसकी नहीं सुने ? जिन लोगो के बताये मार्ग पर नहीं जाने की सोचते हैं | वे दुखी होकर निराहार उपवास पर बैठ जाते हैं ...| बापू कहते हैं-‘’ भैया हमें चौराहे पर ही टिके रहने दो | तो उनको दिशा ज्ञान देने वाले अड़ जाते हैं | आप हमारे बताये रास्ते की तरफ मुख करो | गांधीजी परेशां हैं .. इस दिशा में अब इतनी भी स्वतंत्रता नहीं रही क्योंकि हम जिधर जाएँ न जाएँ , हमारी मर्जी | फिर काहे की स्वतंत्रता इन्हें सौपी थी | अंतत: उन्होंने एक उपाय निकाल लिया वे बताए जा रहे रास्ते को नहीं देखेंगे बल्कि जमीन की तरफ देखेंगे | तब से हमारे शहर में चौराहे पर खड़े होकर धरती की तरफ टाक रहे हैं | अब कोई राजनीतिज्ञ उन्हें राह दिखाने नहीं जाता औए न ही हालचाल पूछता | बेचारे अकेले ही खड़े हैं और न जाने कब तक खड़े रहेंगे ? उस दिन हम नगर के एक राजनैतिक पार्टी के के सामने गुजर रहे थे | तभी देखा दफ्तर में घमासान मचा हुआ था | सब एक दूसरे की दाई माई टांग खिचाई कर रहे थे | अंदर की उठापटक ने हमें उस ओर आकर्षित किया | हम दफ्तर के द्वार तक पहुंचे | द्वार पर दुबके खड़े एक नेताजी अंदर के नज़ारे से भयभीत थे, ग़मगीन भी | सच कहें संसद या विधानसभाओं में प्रश्नकाल के दौरान जो सता पक्ष व विपक्षियों के मध्य जो मार –फुतैवल मचाती है, वही सीन यहाँ दृश्यमान हो रहा था | बूढ़े , जवान , महिला पुरुष ,सब एक दूसरे पर हाथापाई , झोंटा-खिचाई करते हुए चढ़े बैठ रहे थे | इज्जत कहें या मर्यादा , उसकी तो ऐसी- तैसी ही रही थी | सब बेफिक्री के साथ मस्त थे | हमने दुबके खड़े नेता जी को इशारे से दफ्तर के लान की ओर चलने को कहा , वे हमारे साथ इसलिए भी आ गए थे क्योंकि पड़ोसी हैं..| लान पर बिछी सीमेंट की कुरसी पर बैठते हुए पूछा-‘’ अंदर काहे का धूम धडाका मचा है , कहीं आगामी सत्र में सत्ता पक्ष को मजा चखाने का अभ्यास का क्रम तो नहीं है ताकि नौसिखिए विधायक सांसद अभ्यास से परिपूर्ण रहें | ‘’
‘’ आप भी बेवकूफों जैसी बातें करते हैं ... राजनीतिग्य इतना तो पहले से ही जानते हैं |’ उनहोंने हमारे प्रश्न पर चोट की |
‘’ अरे भई , हमारा कहने का मतलब घमासान मचा है तो उसके पीछे कुछ न कुछ कारण तो होगा |’’ हमने कहा |
‘’ बिना कारण के यह सब होता है क्या ? बात  यह है किहमारे पार्टी के चार दिग्गजों ने पार्टी के उद्देश्यों के साथ गद्दारी की है | इसलिए उन्हें रास्ता दिखाने का क्रम चल रहा है |’’
रास्ता दिखाने का सही काम महापुरुषों ने किया और रास्ता दिखाते-दिखाते वे खुद रास्ते पर आ गए , तब भी देश रास्ते पर नहीं आया | औए तुम एक जात के लोग अपनी ही जात के लोगों को रास्ता दिखाने का बीड़ा उठाये बैठे हो ... जबकि सबके एक से सिध्दांत हैं और सब की रगों में एक ही प्रकार की काली करतूतों का रक्त बह रहा है |’’ हमने कुछ कड़वा कहा तो वे खीझ गए –‘’ देखो, जले पर नमक मत छिड़को यार... जानते नहीं हो पार्टी को कितना बड़ा झटका लगा है |’’ ‘’
‘’ सुनामी की हलचल जैसा |’’
‘’ मजाक मत करो .. पड़ोसी के नाते हम तुम्हें कुछ नहीं कह पा रहे हैं |’’
‘’ तो बताओ न भैया .. वोटर और दोस्त के नाते क्या हमें इत्ती सी बात जानने का हक़ नहीं है |’’
‘’ हक़ है... गद्दारों के बारे में जानने का हक़ है ... बात ऐसी है कि इन सालों ने प्रचार सभाओं में पार्टी की नीति का ही टांका उधेड़ कर हमारे विपक्षियों का गुणगान किया है और जब पार्टी के लोगों ने उनकी करतूतों पर उंगली उठाया तो फुल रंगदारी करने में उतर आये | इसलिए इन्हें पार्टी से रास्ता दिखाने का प्रस्ताव है |’’ उन्होंने बताया |
‘’ यानी पार्टी से खदेड़ने का |’’ हमने कहा |
‘’ और नहीं तो क्या , हमारी पार्टी को कोई इंसान बनाने वाला ठेकेदारी केंद्र समझ रखा है |’’
‘’ मगर गांधी जी जैसे महापुरुष देश को रास्ता दिखाने का मतलब बहके देश को सुधारना बताते थे | और आप लोग |’’
‘’ देखो यार , गांधी जी लोग दूसरों को सुधारने के फेर में खुद धक्का मुक्की खाते हुए चलते बने ,,और अपन वो हैं जो नापसंद हो उसे धक्का मारकर चलता करते हैं |’’
‘’ यानी, यह है आपका रास्ता दिखाने का अर्थ..|’’
वे टेंशन में थे हमारी बातें उन्हें चुभ-सी गयी | भड़क कर बोले- ‘’ देखो, जनाब तुम्हारा रास्ता वो है .... चुपचाप चले जाओ ....|’’  हम उनके समझाइश को गहरे अर्थ में लेकर निकल पड़े यह जानते हुए किनेता चाहे जितना शालीन हो कब मर्यादा खो दे पता नहीं |
    सुनील कुमार ‘’सजल’’

सोमवार, 18 मई 2015

व्यंग्य –संकल्पों के सनकी


व्यंग्य –संकल्पों के सनकी
इन दिनों हमारा शहर अनोखे दौर में शामिल है | जहां देखो वहीँ आयोजन हो रहे है |आपका सवाल हो सकता है कि आयोजन काहे के ? अजी! आयोजन हो रहे हैं, संकल्प लेने के | किस्म- किस्म के लोग किस्म –किस्म के संकल्प ले रहे है | शहर में लिए जा रहे संकल्पों को देखा और लिखा जाए तो संकल्पों के संग्रह की एक कृति तैयार हो सकती है |
पिछले दिनों एक राजनैतिक दल के नेता ने हमसे कह डाला किअबकी चुनाव में शहर को ‘संकल्पधानी’ नाम दिलाना हमारा असली मुद्दा होगा | हमारे शहर के लोगो पर संकल्प लेने की सनक सवार है | अब लोग गुण व धर्म के विपरीत किस तरह के संकल्प ले रहे हैं ,आप भी देखें | बेटी बचाने का संकल्प, नशा त्यागने का संकल्प , ईमानदारी अपनाने का संकल्प ,जनहित में कार्य करने का संकल्प , बिजली न चुराने का संकल्प ,घूसखोरी व कमीशनखोरी जड़ से मिटाने का संकल्प ,सफाई करने का संकल्प और भी न जाने कितने व कैसे कैसे संकल्प | परसों ही एक ने हमसे कहा ,-‘’ अपन ने धमाकेदार संकल्प लिया है |’’
‘’ क्या व कैसा?’’
‘’बेटी बचाने का संकल्प |’’
‘’तीन बार कन्या भ्रूण का गर्भपात कराने के बाद अचानक आपका मन इस संकल्प की ओर .. कहीं ऐसा तो नहीं किभ्रूण ह्त्या में पाप वा श्राप का आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो गया हो ?’’
‘’नहीं.. !ऐसी बात पर अपना विशवास नहीं है |’’ ‘’ वे हमारे प्रश्नों का एक संक्षिप्त –सा उत्तर देकर चले गए | पर आज ही पता चला है  कि उनको पिछले दिनों पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है |
  इसी तरह चुनाव देखकर नेताओं ने ईमानदारी अपनाने का असंकल्प वाला मुखौटा लगा लिया है | हमने भी अच्छी बातों को अपनाने का संकल्प लेने की सोची | संकल्प लेने के पीछे कारण यह था किहमारी पत्नी की नजर में हमारी कुछ आदतें ठीक नहीं थी |यूँ तो उन आदतों पर न तो पड़ोसनों ने कभी अंगुली उठाई और न हमारे पड़ोसी दोस्तों ने, पर पत्नी की नजर में अगर वे आदतें बुरी थी तो बुरी थी |
हममें बुराई यह थी किहम रंगीन व पावर्लेंस चश्में से ख़ूबसूरत महिलाओं को ताकते रहते थे, जो हमारे घर के ठीक सामने रहती हैं | यह बात पत्नी की खुफिया नज़रों को नागवार गुजराती थी | दूसरी बुराई हममें यह रही है किहम चूनायुक्त तंबाखू – सुपारी खाने के आदी थे | पत्नी को आपत्ति इसा बात पर थी कितम्बाखू खाने से कैंसर होता है या बार –बार पिच्च –पिच्च हम थूकते रहते थे | आपत्ति थी ,उन लंगोटिया मुखौटेबाज मित्रों को घर में मुफ्त में सुपारी वा तम्बाखू खिलाने में | वेजेब का हर्र लगे न फिटकरी ..की तर्ज पर हमारे घर सुबह – शाम व रात्री में भोजन उपरांत तम्बाकू फांकने आ जाते थे | पत्नी का साफ़ कहना था या तो अपना नशा त्यागो या फिर मुफ्त तम्बाकूखोरों से कट्टीकर लो |
हमें तीसरी बुराई यह थी किसरकारी पद पर रहते हुए हमें कमीशन खोरी व घूसखोरी की आदत –सी पद गयी थी | जिसे त्यागने का मन बनाया तो पत्नी ने फटकारा ,’’क्या तुम महाराणा प्रताप बनकर हम सबको इस महंगाई में घास भूसे की रोटी खिलाना हो |’’
पत्नी की इच्छानुकूल हमने पहली दो बुराईयों के विरुध्द संकल्प लिया | कहते हैं, सब संकल्प होली के दिन टूट जाते हैं, इस बार न टूटे , इसलिए हमने पत्नी के समक्ष लिखित रूप में दिया कि एक तो किसी ख़ूबसूरत युवती को आँख पर चश्मा चढ़ाकर नहीं देखेंगे | ( हलांकि वह जानती है , हम दूर दृष्टि पर अंधे हैं), दूसरा यह कि हम तम्बाखू नहीं खायेंगे | तीसरे के बारे में हुए संवाद को आप जानते हैं |
यह देख – सुनकर पत्नी खूह हुई | उसकी ख़ुशी हमारे संकल्पों से मूल्यवान ठी | एक दिन हमने पत्नी के सामने बहाना बनाते हुए कहा,’’ देखो! चश्मा बार- बार उतारकर रखने से हमारी आँखों में जलन व सर में दर्द होने लगा है |
’’ पानीदार लेंस का चश्मा बनवा लो|’’पत्नी ने सुझाव दिया
‘’ परेशानी तो धुप से है, न ! रंगीन चश्मा तो पहनना पडेगा ‘’| रोज की हमारी शिकायतों से पत्नी का स्त्रीत्व पिघल गया | बोली ,’’ ठीक है  ! पहनी रखा करो चश्मा , पर कसम खाओ कि पराई स्त्रियों को नहीं घूरोगे |’’ हमने भी हां में जवाब दे दिया |
इस तरह आम लोगों की तरह हम भी संकल्प्धारी लोगों में शामिल हो गए | इधर सुनाने में आया है किसंकल्प्धारी लोग एक क्लब का गठन करने जा रहे हैं,-‘’ संकल्प्धारक क्लब | इनके सदस्य वे ही होंगे , जो संकल्प लेने के नशेडी हों |ख़ुशी इस बात की है किलोगों की इच्छा है कि किसी संस्था की तरह क्लब का नाम भी गिनिजबुक में शामिल हो | रिकार्ड तैयार किया जा रहा है किसंस्था के प्रत्येक सदस्य ने कितने दहाई , सैकड़ा या हजार प्रकार के संकल्प लिए ?
 क्या आप भी चाहेंगे किइसमें आपका नाम भी दर्ज हो ? घबराइये नहीं | सिर्फ संकल्प लीजिए और नाम दर्ज कराइए | इस क्लब के संविधान में संकल्प पालन करने की अनिवार्यता नहीं है |
                    सुनील कुमार ‘’सजल’’

रविवार, 17 मई 2015

व्यंग्य- पशुधन पर मंथन


व्यंग्य- पशुधन पर मंथन

 कहते हैं देश में पशुधन की कमीं हो रही है | लोग आजकल दूध और मांस खाना पीना पसंद करते हैं पर पशुधन रखना नहीं हैं | सरकारसवाल तो यहां तक आ पहुंचा है किलोगों से पूछों |
‘’आपने ऊँट या गधा देखा है |’’ वे साफ़ चट्ट मूंछों पर हाथ फेर कहते हैं –‘’ वर्षों पहले देखा था | जब हमारे कस्बे के करीबी जंगल में इनके पालक इन्हें चराने लाते थे |
बड़ा चिंतनीय प्रश्न है साहब | पशुधन घाट रहे हैं , मगर दुग्ध उत्पादन बढ़ रहा है |वैज्ञानिक युग है | क्या असली या नकली | बस पीजिए और मस्त होइये |
यह तो देश की रूपरेखा रही | अब थोडा हमारे नगर की तरफ आइये | यहाँ कोई दर्शनीय स्थान या तीर्थ स्थल नहीं है और न ही किसी भी प्रकार की गोस्त मंडी | और नहीं राजनीति के बड़े घोटाले बाजों का निवास स्थान | रेलवे लाइन पर हाफंती ,खिचती दौड़ती नेरोगेज ट्रेन के सहारे तरक्की की छुक-छुक करता कस्बा |
देश में पशुधन की कमी पर चर्चा उठी है |हमारे कस्बे के पशु प्रेमी जो हाथी के दांत वाली प्रवृति के प्रेमी हैं ,ने अपने आवारा जानवरों को आवारा बनने के लिए छोड़ना शुरू कर दिया ताकि सनद रहे देश में भले ही पशुओं का अकाल आ जाए पर हमारे क़स्बे में उतने के उतने हैं | यहाँ भले ही रासायनिक या मिलावटी दूध भी उपलब्ध है | कहते हैं दूध का उत्पादन भरपूर हो रहा है |त्यौहार –पावनों में नकली मावा की सफ्लाई यहाँ से तय होती है | इतने के बाद भी यहाँ के लोग छुआरा टाइप के हैं | एकाध – दो कद्दू किस्म के कहीं दिख जाएं तो समझिए वे नगर के चहेते हैं | आज तक यहाँ के मोटापा घटाने वाले वर्जिश केन्द्रों को ग्राहकों की आक्सीजन नहीं मिली | जिससे वे जहां उगे वहीँ दम तोड़ कर दफ़न हो गए |
  भरपूर संख्या में पशुधन हमारे नगर में हैं| हो सकता है किआप प्रमाण पात्र मांग बैठे सच्चाई का | साहब इससे अच्छा प्रमाण पात्र क्या हो सकता है किवे दिन भर आवारागर्दी करते दिखाते हैं | सब्जी मंडी ,किराना व गल्ला मंडी ,दुकानों ,गली सड़क में मुंह मारते दिखाते है \ इन पशुदन की आवारगी का नजारा यह है किवे सड़क या गली में से ऐसे गुजरते हैं जैसे नारा लगाते आन्दोलनकारी | नेता की तरह हड़ताल पर बैठ जाते हैं | आप लाठीचार्ज करी या हाकागेंग बुलाइए , खुद में मस्त रहते हैं |
पसु मालिक खुश होते हैं अपने पशुधन को आवारगी कावाकर |बेचारे जानवर यहाँ-वहां मुंह मारकर पेट भर लेते हैं | सुबह –शाम दूध देते हैं |
शहर में धर्मावलम्बियों भी हैं |जो इन्हें रोज पुण्य कमाने के फेर में चारा खिलाते रहते हैं |
हमारे पड़ोस के शर्मा जी रोजाना एक-दो किलो घास इन पशुओं को खिलाते है | कहते हैं –‘’ इससे घर में धन-धान्य की वृध्दि होती है | ग्रहदोष, शांत रहते हैं |
इन पशुमालिकों पर कभी ग्रहदोष नहीं मंडराते | जो इन्हें मुफ्त के माल पर मुंह मारने हेतु आवारा बना देते हैं |
एक दिन हमने पडोश के आवारा बेटे के बाप का दुखड़ा सुनकर बोए –‘’ ‘’ यार बेटा आवारा हुआ तो परेशान हो गए | मगर तुम्हारे पालतू पशु भी तो आवारगी करने में पीछे नहीं है | कृपया उन पर भी तो ध्यान दें | जो पशुओं के बगीचे खेत बाड़ी को रोजाना तहस – नहस करते फिरते हैं ||
वे बोले –‘’ जानवर व इंसान में यही तो फर्क है साब | पशु तो पशु है और इंसान इंसान है |
हमने कहा- ‘’ बिना संस्कार दी बेटा साथ देता है न पशु ‘’ वे बुरा सा मुंह बना कर चल दी |
कई मर्तबा डेंजरस मोड़ व ठिकाने पर रोड ब्रेकर बनाने हेतु पीडब्लूडी को ज्ञापन सोंपा गया था पर पीडब्लूडी का हाल तो आपको मालूम है हर जगह कमीशनखोरी |
अंतत: लोगो ने थक हार कर ज्ञापन देना , आन्दोलन बंद कर दिया है उनका काम पशु बीच सड़क पर बैठकर कर देते हैं |हमने आवारा पशुओं की हरकतों की शिकायत उनके म्मालिक से की तो वे बोले – ‘’ जब पुलिस सर्कार पंचायत व नगर परिषद् व जनता परेशान नहीं हो रही तो आप क्यों | जानते हो मल्लू पूजन करने वालों को गोबर बेचता है जो लीपने के लिए ले जाते हैं |
पिछले हलषष्ठी पर्व पर बैंस के गोबर के चिट्ठे सड़क पर देखने को नहीं मिले थे | एक आवारा भैंस के पीछे चार –चार पांच लोग हाथ लगाए खड़े थे | इसी इन्जार में कि वह कब गोबर करे और ये झट से झेल लें
इधर लोगों का मानना है किपशुधन बढाने का सबसे अच्छा तरिका  यह है किउन्हें स्वच्छंद आवारगी करने दें |मौज करने दें ,मस्ती करने दें |
                 सुनील कुमार ‘’सजल’’

शनिवार, 16 मई 2015

लघुव्यंग्य – आधुनिक रक्षक


लघुव्यंग्य – आधुनिक रक्षक

मोहल्ले में एक लड़की को किसी बाहरी युवक ने छेड़ दिया | पास लड़कों से रहा न गया | वे उस पर टूट पड़े | जमकर मरम्मत कर डाली उसकी |उन्हीं लड़कों में गुण्डा टाइप दिखने वाला उस पर अपना गुस्सा उतारते हुए बोला –‘’ अबे स्साले तेरी हिम्मत कैसे हुई उससे छेड़छाड़ करने की, तेरे घर में बहिन बेटी भी हैं या नहीं ? तुझे मालूम होना चाहिए कि कोई उस पर नजर उठाकर देखने की  हिम्मत नहीं करता, सिवाय मेरे ....|
                 सुनील कुमार ‘’सजल’’

लघुव्यंग्य –दान – पुण्य


लघुव्यंग्य –दान – पुण्य

मैं उनके साथ सड़क किनारे खडा था |तभी एक कमजोर दृष्टिवाला भिखारी हमारे करीब आया ,भिक्षा माँगने लगा |उन्होंने झट से जेब में हाथ डाला, कहीं न चलने वाला कई जोड़ का दो नोट निकाला | उसके कटोरे में डाला | बोले- ‘’लो बाबा जी , दो का नोट है |’’
  भिखारी खुश होकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए आगे बढ़ गया |
  अब वे मेरी ओर देखते हुए बोले- ‘’ आज उपवास है सोचा ऐसे दिन में तो दान कर दूं |’’ आगे कह रहे थे –‘’ फिर हम बाबू लोग तो रोज ही लोगो की गर्दन मरोड़ते रहते हैं कम से कम उपवास के दिन ही सही दान करके कुछ पुण्य कमा लें | इसी बहाने पाप कटते रहेंगे ...|’’
  मैं उनके चहरे को देखते हुए सोच रहा था,’’ जिसकी आदत ही गर्दन मरोड़ने की पद गई हो वह भला उपवास रहे या यज्ञ करवाए अपनी बदनीयत का पंजा दफ्तर ही क्यों कहीं भी फैलाने से नहीं चूकते जैसा कि आज भिखारी की भावना को भी ....|’’
               सुनील कुमार ‘’सजल’

शुक्रवार, 15 मई 2015

लघुव्यंग्य –अनुकरण


लघुव्यंग्य –अनुकरण
स्कूल की मार्निंग शिफ्ट थी | संस्था का एक मात्र चपरासी रामू आज सुबह से ही अपने हलक में शराब उड़ेल कर लड़खडाता हुआ संस्था में उपस्थित हुआ |प्राचार्य जी ने देखा तो गुस्से में तमतमा उठे | वे उस पर बरसते हुए बोले –‘’ नालायक , कल तो तू राशन खरीदने के लिए मुझसे सौ रुपया मांग रहा था और आज सुबह से दारू के लिए पैसे कहाँ से मांग लाया |
‘’साब ! कल शाम, मेरे घरमें आपने पीते हुए बोतल में जो छोड़ दी थी, उसे पीकर आया हूं |’’ रामू ने लडखडाते स्वर में प्रत्युत्तर दिया |
प्राचार्य जी तुरंत उसे वहीँ छोड़ कर अपने कक्ष की ओर बढ़ गए |
               सुनील कुमार ‘’सजल’

सोमवार, 11 मई 2015

व्यंग्य-आओ बेरोजगारों ,संत बनें



व्यंग्य-आओ बेरोजगारों ,संत बनें


बाबा बनने का धंधा सौ बड़े धंधों से बेहतर है |हींग लगे न फिटकरी | बस जरुरत है जुबान से जादू भरी बातें फेंकने के गुण की ,तन पर गेरुआ वस्त्र , पाँव में खड़ाऊ, गले में असली या नकली रत्न या रुद्राक्ष माला , लम्बी दाढ़ी व सर पर लम्बे बालों की | जुगाड़ हो तो माथे पर चंदन का टीका पोटते ही बन गए बाबा ,कहलाने लगे संत |



  करने लगे  आध्यात्मिक राजनीति| सब जगह पूज्य | हर स्थान पर प्रतिष्ठा |शिष्यों की भीड़ ,अकूत धन भंडार ,सुंदर-सुंदर सेविकायें, आरामदायक सुसज्जित आश्रम ,भक्त व जनता की ओर से दिए गए चंदे से, अनगिनत एकड़ खेतिहर जमीन ,विदेश यात्रायें और क्या चाहिए एक बाबा को |



   साथ पढ़े लिखे हमारे एक मित्र हैं | नाम बता दूं रंजन जी | आजकल वे भी बाबा बन गए हैं ,घर घर धूमकर भिक्षा मांगनेवाले बाबा नहीं बल्कि आधुनिक ऐशो-आराम के बीच लोगों को उल्लू बनाकर अपने चरण चटवाने वाले बाबा | चरणों को धुलकर चरणामृत पिलाने वाले बाबा |कभी-कभी मन करता है उनकी आलोचना न करूं पर नातिक मन सब कुछ कर बैठता है |



   हालांकि एक बात पक्के तौर पर कहूँ |बाबा बनाना भी गॉडगिफ्ट है | हर किसी में यह शख्सियत या साहस नहीं होता की जनता या भक्तों को अपनी ओर आकर्षित कर सके |जैसे ऊंचाई प्राप्त नेता बनाना आसान नहीं हैं |छुटभैये नेताओं की बात छोड़ो जो नेतागिरी में उदयकाल से अस्तकाल तक छुटभैये बने रहकर सिर्फ अपना खर्चा पानी चलाते हैं |



   अरे यार, अपन तो भूल गए रंजनानंद जी की बात करते करते |



   एक दिन रंजनानंद जी हमारे गांव पधारे | गांव के लोगों ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया | जैसा कि गांव के लोग आमतौर पर दूध , दही,घी, मेवा, धन-दौलत, पूजा पाठ भजन कीर्तन आदि के द्वारा करते हैं, हमारी पुजारिन पत्नी भी उनके चरण स्पर्श करने से पीछे नहीं रही | लाख मना किए पर वह न मानी |आखिर दो सौ फल-फूल उन्हें अर्पित कर आयीं |



    हमने उसे समझाया –‘’ देखो, वह हमारा मित्र रंजन हैं | नंबर एक का बदमाश | अध्धयन काल में हम दोनों खूब मस्ती करते थे | लड़कियों को छेड़ते थे | कई बार तो छेड़छाड़ के चक्कर में पिटकर ‘’एक तरफा’ प्रेमी होने की शोहरत भी पाए थे | आज साला न जाने कैसे बाबागिरी के धंधे में कूद गया ?’’



    ‘’ देखो जी, किसी की निंदा करना सबसे बड़ा पाप है | अपनी जुबान से व्यंग्य व निंदा के कड़वे शब्दों को न निकालो | तभी तो तुम्हारी व हमारी पटरी नहीं बैठती |’’ वह तेज स्वर में बोली और हमें धर्म उपदेश भी दे गयी |



     ‘’ अच्छा यह बताओ ,तुमने अपने पवित्र हाथों व माथे से उस बेवकूफ के चरण स्पर्श किए , कभी हमारे चरण स्पर्श किए ? मुझे आज भी याद है शादी के दिन के अलावा तुमने कभी मेरे चरण स्पर्श नहीं किए होंगे |



    ‘’ उस लायक बनो |’’ तपाक से उसने एक धारदार शब्द हमारी ओर फेंका |



   उस दिन हमने पत्नी की जिद पर मित्रवत रंजनानंद जी को घर पर बुलाया | पत्नी ने हमसे आगे बढ़ –चढ़ कर उसका स्वागत किया जैसा किआमतौर पर पूजा – पाठ में मग्न घर द्वार , पत्नी – बच्चों की जरूरतों को घर के किसी कोने में कचरे की ढेर की तरह फेंककर आधुनिक पुजारिन पत्नियां कराती हैं | हमारा दिल बढ़ते बजट व लड़खड़ाती घरेलू व्यवस्था के समक्ष दीये की भांति जलता है |



   स्वागत सत्कार उपरांत हम दोनों यानी स्वामी रंजनानंद के साथ एक शांत कमरे में बैठे थे |जीवन के दौर में आए मुसीबतों की झंझावातों की चर्चा के साथ हमने उससे कहा-‘’ अबे , मेरी एक बात समझ में नहीं आई कि तू पढ़ा – लिखा मेरी तरह नास्तिक इंसान था, अचानक बाबागिरी का रास्ता कैसे पकड़ लिया |’’



   ‘’ तुम अब भी वहीँ हो | अब मैं तुम्हारा ‘’बे’’  नहीं रहा ,संत हूंसंत स्वामी रंजनानंद | ‘’ वह मेरे दोस्ताना तथ्य पर उंगली उठाते हुए बोला |



   ‘’ पर तू तो आज भी मेरे लिए रंजन है भले ही जमाने के लिए स्वामी रंजनानंद |पर तू यह बता कि बाबा क्यों बना |’’ मैंने फिर उसे छेदा |



  ‘’ बेरोजगारी ने मुझे बाबा बनाया |’’ उसने कहा |



  ‘’ क्या बेरोजगारी का हल बाबागिरी में है |’’ मैंने पुन: प्रश्न रखा |



  ‘’ मेरे हिसाब से मुझे मिला ‘’



  ‘’ मतलब क्या ? ‘’



  ‘’ तू जानता है मैंने रोजगार प्राप्ति के लिए कहाँ-कहाँ नाक नहीं रगड़ी | डिग्रियों को देखकर रोता था | तब ज़माना ने भी मुझे दुत्कारने में कसार नहीं छोड़ता था | फिर एक दिन एक पत्रिका में छपे लेख से मुझे प्रेरणा मिली | और जब प्रेरणा मिलती है तो रास्ते अपने आप मंजिल बताते हैं | मैंने भी सोचा क्यों न बाबागिरी का धंधा अपनाया जाए | बस बन गया स्वामी | दोस्त इस देश में धर्म व तंत्र के नाम पर स्वादिष्ट रोटियाँ प्राप्त करना कोई ज्यादा कठिन काम नहीं है | बस खुद में चालाकी, वाकजाल में लोगों को फंसाने की क्षमता व थोड़ा बहुत तथाकथित मनोविज्ञान व आध्यात्मिक ज्ञान होना आवश्यक है | फिर उल्लू दुनिया को राह दिखाने का बीड़ा उठाइये और बढ़ाते जाइए | सच कहूं, अध्यात्म धर्म व तंत्र मन्त्र की सुरंग में इतना भयानक अन्धकार है की इसमें भूली भटकी जनता प्रकाश पुंज स्वरूप अपने गुरु स्वामी को देखती है और उसके पीछे पीछे चलती है |’’ उसने धर्म नामक संसार को मुझे समझाया | 



    ‘’ मतलब किमैं भी यहीं करूं |’’ मैंने कहा |



    ‘’ मैं यह नहीं कह रहा  कि तू साधु बन पर एक बात कहूं, तू जीवन भर नौकरी कर नहीं कमा सकता, उतना मैंने चाँद साल में बटोर लिया | आज मेरे पास आधुनिक सुविधाओं से युक्त आश्रम ,वाहन, सुंदर –सुंदर सेविकायें, सेवक ,धन-धान्य ,जमीन , शिष्यों की भीड़ ,राजनैतिक आश्रम , शोहरत सब कुछ है | जिधर जुबान चलाता हूं वही से मेरे पास धन व शिष्य स्वरूप जनता , अफसर, नेता चले आते हैं | आज मेरे आध्यात्मिक कार्यक्रम को जन-जन तक पहुंचाने के लिए देशभर में मेरे एजेंट फैले हैं जो लघु आश्रम बनाकर मेरे नाम की लोगों से माल, जाप करा रहे हैं |



    उसने अपने नकाबपोश चेहरे का रहस्य बताया तो मैं अंदर तक दहल गया | फिर भी चेहरे पर एक झूठी मुस्कान लाकर मैंने कहा- ‘’ तू तो वाकई चतुर सियार निकला | पर तुझे अपना धंधा जमाने में अड़चन तो आई होगी |’



   ‘’ काहे की अड़चन | मैंने मनोविज्ञान ,दर्शनशास्त्र से एम.ए. किया है ही है | रेकी यानी स्पर्श चिकित्सा और सीख ली | बस इसी के सहारे करने लगा बाबागिरी | आज मैं प्रवचन देता हूं, जीने की राह दिखाता हूं | संतान से वंचित, बीमारी, धन अभावग्रस्त आदि लाचारी से लोगों को मुक्त कराने का प्रपंच रचता हूं |अपनी धर्मभीरू जनता को और क्या चाहिए, मीठी जुबान व सहानुभूति का स्पर्श |’’ उसने मुस्कुरा कर कहा |



 



   ‘’ मतलब तू ढोंगी है |’’ मैंने कहा |हालांकि अभी पूरी तरह से दोस्ताना अंदाज में बात कर रहे थे, इसलिए मेरी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा था |



  ‘’ असली संत को क्या आधुनिक सुविधा युक्त आश्रम चाहिए? उसे तो हिमालय की गोदमें मजा आता है | हां, इतना ध्यान रखना इसे धमकी समझो या दोस्ती का वचन, मेरी सच्चाई किसी से न कहना | अगर मैं फंसा तो तेरे दर तक तो आ चुका हूं | तुझे भी अपना तथाकथित एजेंट बता तुझे भी ले डूब मरुंगा |’’  और माफिया मुस्कान के साथ हंस दिया |



   मैं तो खैर आज भी चुप हूं, दोस्ती का वचन देकर, पर वह.....?



                      --  सुनील कुमार ‘’सजल’’

रविवार, 10 मई 2015

लघुव्यंग्य –वही होगा


लघुव्यंग्य –वही होगा

पति –पत्नी आपस में बात कर रहे थे | इसी बीच पत्नी बोली – ‘’ 
शर्मा जी स्वर्ग सिधार गए | अब बेचारी दीदी व उनके दो बच्चों का क्या हाल होगा |बच्चे अभी ब्याहे नहीं हैं ... कैसे चलेगा घर का गुजर –बसर |
‘’’’ कुछ नहीं ..पेंशन के साथ-साथ अनुकंपा नियुक्ति भी मिलेगी उन्हें.....वे अपना मन उनमें बहला लेंगी |’’ पति ने सपाट उत्तर दिया |
‘’लेकिन बेटी ब्याह जाने से और अकेली महसूस करेंगी ...मन कि बेटे का विवाह भी कर देंगी ..पर वे तो अपने में मस्त रहेंगे |फिर क्या होगा बेचारी का |’’पत्नी ने गंभीर होते हुए कहा |
‘’ नया कुछ नहीं होगा ... वही होगा जो हमारे घर तुम्हें बहू बनाकर लाने के बाद मेरी मां का हाल हो रहा है ....|
पति ने पत्नी की ओर से बढ़ायी जा प्रश्नों की श्रृंखला को तोड़ते हुए कहा |
             सुनील कुमार ‘’सजल ‘’

रविवार, 3 मई 2015

लघुकथा -मुआवजा

                                                              लघुकथा -मुआवजा
   पडोसी गरीब शेखू संतान पक्ष कोलेकर काफी  दुखी है । पिछले ही माह उसका इकलौता बेटा बस दुर्घटना में मारा गया । अब बची है इकलौती बेटी शांति ,जो ससुराल में 'दहेज़' के लिए प्रताड़ित की जा रही है ।
    शेखू को सरकार की ओर  से मृत बेटे का मुआवजा मिलने वाला है मगर हो रही देरी से वह परेशान हो उठा है । मुआवजा पाने की लालसा में शेखू की बेचैनी देखकर क्रोधित होती पत्नी ने कहा -'' तुम भी कितने निर्दयी हो.…इधर बेटा मर गया ,उसका ज़रा भी गम नहीं मुआवजा राशि घोषित होते ही दफ्तर के चक्कर काटने लगे  । कैसे बाप हो तुम  ? बेटे से ज्यादा पैसों  प्यार… । ''
  '' सुमिता , तुम मुझे गलत समझ रही हो । '' कहते हुए उसकी आँखों से आंसू छलक उठे ,''मैं ससुराल में सताई जा रही बिटिया की जिंदगीं बचाने के लिए परेशान हूँ ताकि इसी मुआवजे से उसकी दहेज़ की पूर्ति  कर सकूँ । बेटे को तो बस ने दुनिया  दूर कर दिया। ........ और अब ससुराल वाले बिटिया को भी। .... । '' कहते हुए वह फफककर रो पड़ा ।
    पति का मंतव्य सुनते ही पत्नी सन्न भाव से उसकी ओर देखती रह गई । 
  
 सुनील कुमार '' 'सजल'






















 

रविवार, 26 अप्रैल 2015

-व्यग्य-हमें नंगा न समझें,प्लीज !व्यंग्य- शिकायतों पर टिकी सत्ता


व्यंग्य -हमें नंगा न समझें,प्लीज !
‘कृपया  हमें नंगा न समझे यह मैं नहीं कह रहा हूं। बल्कि आज का चोर समाज कहता है। जिन्हें लोग गिरा हुआ समझते हैं। वे मूंछ पर हाथ फ़ेर कर कहते हैं –‘’ चोर हुए तो क्या हुए। अपना समाज भी करोड़ों की जन संपत्ति पर हाथ साफ़ करता है। जैसे विभिन्न राष्ट्रीय संपत्तियों पर आप।
  आप से उनका आशय है। आप भी चोर हैं।सिर्फ़ उन्हें चोर कहकर अपमानित न किया जाये।भले ही आप शरीफ़ चोर हैं और वे बदमाश …।
  देखा जाये तो हम भी किसी से कम नही हैं। यानि धन के मामलों में हम भी करोड़पति न सही, लखपति जरूर होते हैं। आप विभिन्न प्रकार के ‘’कर’’ चोरी करते हैं, और हम आपका माल।
 एक चोर ने कहा था। बात हमें उस समय बुरी लगती है भाई साहब हम चोरी करते हैं, रिस्क लेते हैं। और पुलिस हमसे धंधे मेन सेटिंग की बात करती है।वह भी बड़ा परसेण्ट का हिस्सा मांगती हैं। भाई जी, आप ही बताइये। पकड़े गए तो हमें दोनो तरफ़ से जूते पड़ते हैं।एक तरफ़ जनता से दूसरी तरफ़ पुलिस से। जो जनसामान्य में अपनी वाह-वाही लूटने  के लिए ठोंकती हैं।
  भाई साब, सिर्फ़ आप मात्र चतुर नहीं हैंऽपन भी बड़े घाघ सियार हैं।जैसे आप भ्रष्टाचार का गिफ़्ट देकर कानून के शसकीय या गैर शासकीय पक्ष की टेढी नजर को सीधा कर अपना ऊल्लू सीधा कर लेते हैं। वैसे ही हम भी पुलिस से ताल्लुक बढाकर अपने धन्धे में सफ़्लता हासिल कर लेते  हैं। आप तो जान्ते हैं ।इस भ्रष्ट युग में ब्गैर सेटिंग के कोई भी व्यवसाय नहीं फ़लता-फ़ूलता।
  कभी-कभी पुलिस जनता की नजर में हरिशचन्द बनने के अंदज में आती है। हमारे कारनामों पर हाथी के दांत की कहावत की भांति अंकुश अभियान चलाती हैं।यह सब जनता को उल्लू बनाने का फ़ंडा है।आपको राज की बात बतायें। सुनेंगे न। हमें के संबंध में पहले ही सतर्क कर दिया जाता है।‘
‘’अबे ओ कल्लू। अपने आदमियों को सतर्क कर दें। तनिक इत्ते से इत्ती तारीख तक कहीं भी अपने धंधे को अंजाम न दें।कुत्तों हमाराअभियान चालू होने वाला है। हरामी की औलादों, अगर तुम लोग पकड़ेगए तो तुम्हारी कुत्ता फ़जीयत कर देंगे। हां, सुन तेरे गिरोह में दो चार लल्लू टाइप चोर होंगे। उन्हें पच्चीस-पचास हजार के माल के साथ फ़र्जी गिरफ़्तारी करवा दे।यःआं प्रश्न नहीं करना कि सेटिंग होने के बाद भी माल पर हाथ काहे धरने जा रहे हो। बदमाशों, अभियान की सफ़लता ऐसे ही फ़र्जीवाड़े में होती है। साले, अभियान चले और फ़ाइलों पर गोदना नुमा अपराध न दिखे। विभाग की नाक थोड़ई न कटवानी है। साली इधर मीडिया भी कम हरामी नहीम हैऽबियान की सफ़लता पर सवाल करके भेजा खाती है।
  एक शातिर चोर का कहना था । उनके चोर समाज में कुछ ऐसे चोर तत्व घुस आए हैं, जिन्होने धन्धे को अपनी ओछी करनी से बदनाम कर रखा है।मसलन, दफ़्तर की सामग्री, खेत- खलिहान किराना दुकान से अनाज व खाद्य सामग्री तथा बगीचे से फ़ल-फ़ूल व सब्जी तथा ऐसी ही अन्य सामग्री की चोरी।
  उसका कहना था। चोरी करो तो डंके की चोट पर। जाबांज बनकर। जिस घर या प्रतिष्ठान में चोरी हो,उसका मालिक साल छः महीना बिन पानी की मीन की तरह तडपता रहे।
  वह यह भी कहता है। जन समाज में कुछ धर्मवीर होते हैं। जो देवालय इत्यादि में जेवरात इत्यादि अर्पित करते हैं। जिन पर हम हम लोग हाथ मारकर दो-चार माह धंधे से फ़ुर्सत पा लेते हैं। हमने तो यह भी सुना हैं। कुछ लोग समाज में प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए हमसे डाका डलवाने का प्रयास करते हैं। दस की चोरी को लाख की बताकर समाज में वाह-वाही लूटते हैं। वहीं कुछ लोग लाख की चोरी को दस की बताकर धनाढ्यता की पोल छुपाते हैं। ऐसे लोग कुल मिलाकर कथरी ओढकर घी खाने वाले लोग होते हैं।
   समय के बदलाव के साथ चोर समाज में भी व्यावसायिक व मानवीय एकता नहीं रही। वह भी राजनैतिक पार्टी व कर्मचारी संघों की तरह कई गुटों में बंट गए हैं। जैसे चड्डी बनियान गिरोहअथियार बंद गिरोह। जेवरात साफ़ करने वाले गिरोह। भुट्टा चोर। वाहन, मोबाइल व कम्प्यूटर चुराने वाले अन्तरराज्यीय गिरोह।
  वैसे चोर समाज भी पुलिस विभाग की तरह हाइटेक हो गया हैं। जो विभिन्न वैज्ञानिक यंत्रों के माध्यम से परिस्थितियों की स्केनिंग कर धंधे को अ
जाम देता है। चोरों का अपना समाज है। जैसे ईमानदारों व बेईमानों का। चोर अपने मौसेरे भाई को अच्छी तरह से पहचानता है। उनमें आपसी भाईचारा पाया जाता है।
  चोरों का एक सामाजिक उसूल है।  वह एक घर छोड़कर चोरी करता है। मगर बेईमान व भ्रष्ट अपने उसूलों के पक्के नहीं होते। वे हर किसी की जेब व खजाने पर डाका डाल देते हैं। दुख इस बात का है कि तब भी वे समाज में प्रतिष्ठित होते हैं। मगर चोर समाज…?
  इसलिए हम चोर समाज पुनः आपसे करबध्द निवेदन करते हैं’’ कृपया  हमें नंगा न समझें। हम बाकी सफ़ेदपोश चोरों की तरह नंगे नहीं, सौ में डेढ प्रतिशत ही सही हममें अभी ईमान बाकी है।
                               सुनील कुमार ‘’सजल’’


व्यंग्य- शिकायतों पर टिकी सत्ता
  उस दिन मन्त्री जी गांव के दौरे पर थे। उन्हें शहरी दौरों, राजधानी  व विदेश यात्राओं से फ़ुर्सत मिलती कब है।फ़िर भी पार्टी हित में गांव की नरक यात्रा में जाकर नारकीय जिन्दगी जीती जनता को दर्शन देना ही पड़ता है। वैसे भी इंडिया में ‘’भारत” गांवों में बसता है तो मजबूरी होती है दो- चार साल में एकाध बार गांव में पांव धरने की।वरना सोचने की फ़ुर्सत कहांहै कि गाव में क्या हो रहा है।राजनीति भी क्या चीज है, जहां बुलाती है जाना ही पड़ता है।
 उस दिन मन्त्रीजी दौरे पर गांव में जबरदस्त स्वागत की तैयारी थी। छुटभैये नेता से लेकर अधिकारी – कर्मचारी तक पूरी तरह सक्रिय थे , फ़िर पार्टी के छुटभैये नेता मह्त्रीजी के आगमन का ऐसा प्रचार फ़ंडा अपनाते हैं कि मन्हुस जनता भी ‘’ मन्त्री दर्शन’ को टेलीविजन पर अपने आने वाले लाजवाब सीरियल की तरह देखने को बेताब हो उठती है।
  उस दिन भारी भीड़ थी। भीड़ भी इसलिए थी कि पार्टी की ओर से बाहर के लोगों के लिए पूरी-साग के पैकेट की व्यवस्था की गयी थी।
   मन्त्रीजी क आगमन हुआ। स्वागत-सत्कार, भाषन, आश्वासन और विपक्ष की खिंचाई करने का दौर चला। चतुर मन्त्री हमेशा चतुराई से काम लेता है। वह जनता की शिकायतें एक कान से सुनता है, ताकि जनता कल यह न कहे कि मन्त्रीजी उनकी नहीं सुनते।सो वे जनता को मार्केटिंग सोसायटी में आने पर बीपीएल श्रेणी के अनाज वितरण में घोटालेबाजी से लेकर स्कूल के मध्यान्ह भोजन, अपूर्ण विकास तक की शिकायत सुनें। मन्त्रीजी उन्हें सांत्वनादेते हुए बोले-‘’ हमारी गांव की जनता वाकई परेशान है। आपने शिकायत की है। कल ही मैं इअसकी जांच करवाकर दोषी अफ़सरों, कर्मचारियों पर कार्यवाही करता हूं। मुझे तो यह मालूम नहीं था कि हमारे अफ़सर व करमचारी इस हद तक गिर गए हैं।सबसे पहले तो इनका वेतन रोकता हूं… फ़िर जांचपूर्ण होने पर आगे की कार्यवाही।‘ मैं आपके साहस का आभारी हूं। मन्त्रीजी अपने आश्वासन से जनता के मन को सहला कर चले गए। जनता बेहद खुश थी।
  अगले चार दिन बाद जब वे जिले में मीटिंग ले रहे थे। छोटे-बड़े अधिकारी सभी शामिल थे।
  मुझे जिले के अफ़सरों से शिकायत है। मंत्रीजी बोले। सभी उपस्थित अधिकारियों को जैसे सांप सूंघ गया। चिन्ता की कोई बात नहींहै। मंत्रीजी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
    सभी के चहरों पर हल्की मुस्कान तैर गयी। देखो तुम लोग शिकायतें पैदा नहीं करोगे तो मुझे सुनने का मौका कैसे मिलेगा। जब जनता मुझसे शिकायत करेगी तो मैं उन्हें शिकायत पर कार्यवाही करने का आश्वासन दूंगा। इससे जनता खुश रहेगी और जनता जब तक खुश रहेगी, अपनी सरकार सत्ता में काबिज रहेगी, इसलिए जब भी कोई काम करो, उसमें शिकायतों का अंश अवश्य उत्पन्न करो। रही बात कार्यवाही की तो वह सब शोकाज नोटिस तक सीमित रहेगी। मेरी शुभकामनायें तुम्हारे साथ है।
मीटिंग ससमाप्त हुई। मंत्रीजी उथकर चल दिए।
     शिकायतों में ही गांव की तस्वीर छिपी है और जब तक शिकायतें रहेगीं, गांव तो गांव रहेंगे। गावों में भारत बसता रहेगा।

व्यंग्य -गायब होती लड़कियां

           व्यंग्य -गायब होती लड़कियां 
अखबार में इन दिनों खबरें खूब गरम हो रही हैं।लड्कियों के  तस्कर सक्रिय हैं।तस्करी चल रही है।
  इधर अल्लू कई दिनों से लापता है? किसके संग भागी? प्रेमी या तस्करों के हाथ चढ गई? या स्वेच्छा से घर छोड़ गई । अपने  को सच का पता नहीं है।थाने में जो हो रहा है, वह यह है –
‘’मालिक ! हफ़्ता गुजर गया, बिटिया का पता नही है……।‘’ अल्लू का  पिता मनसुख, अपराधी की शक्ल में हाथ जोड़े थानेदार साहब के सामने मिमिया रहा है।
‘’कहां गयी रे?’’ थानेदार साहब की रौबदार आवाज।
‘’ यही तो नही मालूम साहब ।“
‘’ अबे उसका किसी के संग लफ़ड़ा तो नही था ?’’
‘’ गरीब गुरबों का क्या लफ़ड़ा होगा मालिक! वह तो बहुत सीधी-सादी थी मालिक।‘’
‘’ अबे ये तू कह रहा है। अगर उसके दिमाग में कुछ पलता रहा होगा, तो क्या तू जानता है?’’
‘’ वह ऐसी नहीं थी जो गलत सोच रखे। जहां भी जाती थी, सीधे घर को समय पर आ जाती थी।‘’
‘’ कहां जाती थी?’’
‘’ मजदूरी में, पड़ोस में, नदी घाट, हैण्ड्पंप पर ।‘’
‘’इत्तई में तो सब कुछ हो जाता है।‘’
मालिक, वो ऐसी नही थी।‘’
‘’अबे… तू लल्लू टाइप है तो क्या तेरी लड़की भी वैसी है?’’
‘’ पर मालिक, मेरी भी तो सुनिए… तनिक रपट लिख लेते…
‘’ मुंशी जी, रपट लिखो।‘’थानेदार ने मुंशी को आदेश दिया।
मालिक… जल्दी पता लगा लेंगे न!’’
‘’ अबे… हम का कबूतर हैं कि रपट लिखायी और हम रपट मुंह में दबाये, तेरी लड़की का ठिकाना ढूंढने के लिए उड़ान भर दें !’’
‘’ नही-नहीं मालिक … वो क्या है कि बिटिया खोने का बड़ा दर्द है … मन में तरह-तरह की शंकाएं होती हैं। जमाना बड़ा खराब है।‘’
‘’ अबे जमाने को काहे दोष देता है ? अपनी लड़की को संभाल कर क्यों नही रखा ? वैसे तेरी और कितनी लड़कियां हैं ?’’
‘’मालिक ,तीन घर में हैं।‘’
‘’ अबे इतनी काहे पैदा कर बैठा ?’’
‘’लड़के का चांस लेने के चक्कर में… भगवान देता गया , हम रखते गए ।‘’
‘’ साले… लड़का… लड़का करते हो । यदि तुम्हारा वश चले तो तुम तो लड़कियों की क्रिकेट टीम बना डालो ।‘’
‘’ मालिक, जल्दी मिल जाएगी न अल्लू ?’’
‘’देखते हैं॥ जा, तू घर जा… एक बोतल मारकर सो… मिलेगी तो हम खुद पहुंचा देंगे तेरे घर।‘’
मुंशी जी ने मनसुख को रवाना किया था। दस- पन्द्रह मिनट बाद एक दूसरा शख्स अपनी बिटिया गुम होने की रपट लिखाने आ गया ।
 मुंशी जी का भेजा गरम हो गया । वे अभी मनसुख की जेब से पी चाय से गुमशुदगी की रपट लिखने के टेंशन से मन को हल्का करके ही बैठे थे। मुंशी जी को गुस्सा आना ही था। काहे न आए ? वे भी तो इन्सान हैं । गुमशुदगी की रपट में क्या मिलता है साब ! ज्यादा से चाय-पान या समोसा।ऊपर से खोजबीन की भागदौड़ और मीडिया वालों के सवालों का जवाब दो सो अलग। मर्डर-बलात्कार का मामला अलग किस्म का होता है। ये तो पन्द्रह –सोलह साल की लड़कियों के गुम होने का मामला है, उधर तस्कर चांदी काट रहे हैं, इधर … सब ठन ठन गोपाल …।
 अब किस-किस का पता लगायें ? दो दर्जन से ज्यादा रपट दर्ज हो चुकी हैं। यहां तो अपने थाने के सामने चोरी,डकैती, मर्डर,रेप हो जाए, तो अपन को पता नहीं चलता …लड़कियों को कहां से ढूंढकर लाएं ? ऊपर से राजनैतिक व प्रशासनिक प्रेशर अलग आ रहा है।
  वैसे ये तस्कर भी बड़े अजीब किस्म के हैं। गांजा ,दारू, भांग, अफ़ीम जैसे नशे की तस्करी छोड़कर लड़कियों तस्करी कर रहे हैं। एक अटैची में लाखों का माल ले जाने की बजाय पूरा मानव साथ रखकर चल रहे हैं।
  कित्ते लफ़ड़े हैं लड़कियां भगाकर ले जाने में। हसीन सपने दिखाओ उन्हें रोजगार का झांसा दो, चकाचौंध से रूबरू करवाओ, मुम्बई-दिल्ली की चमचमाती बस्ती की फ़ोटो दिखाओ, ऊपर से महंगे होटल के मंहगे व्यंजन खिलाने का वायदा करो। तब कहीं जाकर लड़कियां पट्ती हैं। गांव की लड़कियां । बेचारी गांव के धूल- धक्कड़,ऊबड़-खाबड़,पारम्पारिक भोजन के स्वाद से वैसे भी ऊब चुकी होती हैं,इसलिए शहरी जिन्दगी जीने की ललक में पट जाती हैं।
इधर , मनसुख बिटिया की चिन्ता में सूखकर कांटा हो गया है। उसे अपनी और तीन बेटियों की चिन्ता है। कहीं वे भी…।
  पुलिस है कि महीनों बाद भी पता नहीं लगा पायी कि कहां गयी गायब हुई लड़कियां ?
     मनसुख ने कल ही टी वीमें सुना था कि विधानसभा में शून्यकाल के दौरान लड़कियों के गांव से गायब होने का मामला उठा था । सरकार अपने बयान में कह रही थी कि पता लगा रहा है प्रशासन …।
  पर मनसुख को इतने दिनों में यह तो आभास हो गया है कि सरकार जिस घटनाक्रम का पता लगाने का बीड़ा उठाती है,वर्षों तक उसका पता नहीं लगा पाती।
     सुनील कुमार ‘’सजल’