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बुधवार, 23 सितंबर 2015

व्यंग्य – ये कृपा बांटने वाले

व्यंग्य – ये कृपा बांटने वाले

कहते तो है यार, ‘’ जो ताकत दवा में नहीं होती ,वह दुआ में होती है |’ इसलिए दुआ पाने वालों में धक्का- मुक्का मची है | जहां देखो वहां दरबारों में कतारों में खड़े लोग | एक प्रतियोगिता है इनमें सबसे पहले आशीर्वाद ग्रहण करने की |मारपीट , टांग खिचाई, उठापटक , भगदड़ , मौत | सब कुछ | कृपा बांटने वाले परिवार व्यस्त हैं | बेहद व्यस्त | देश की राजनीती से भी कहीं ज्यादा व्यस्त | उन्हें फुर्सत नहीं देश के अन्दर घटते घटनाक्रम के बारे में जानने की | सुबह से शाम तक एक सा काम | आशीर्वाद या दुआ बांटों | चढ़ोतरी तो मत पूछिए साब | लोग पेट काटकर अपनी जेबें फाड़कर उलीच रहें हैं | इन दरबारों में धन | एक बाजार सा विक्सित सा हो गया दुआओं का |रोज नए ग्राहक | रोज नए व्यापारी | जगह कम प-आदती दिख रही है दुकानदारी के लिए | परसों ही वर्मा जी किसी तथाकथित बाबा के दरबार से लौटे हैं | वे भी गए थे दुआ लेने | अच्छा – खासा जीवन जी रहे हैं |ईश्वर की कृपा दृष्टि बनी हुई है उन पर |  धन –धान्य से संपन्न हैं ,पर गए थे|  ‘’ आवारा बेटे की शादी करनी है | किसी बड़े घर की बिटिया से | कोई बाप लड़की नही दे रहा है | सोचा , बाबा की दुआ से कहीं उसका विवाह तय हो जाए |’
 हमने मन ही मन सोचा | काश वर्मा जी बेटे की आवारगी के खिलाफ दुआ मान्ज्गते तो कितना अच्छा रहता , पर५ वे क्यों मांगे | मांगना है तो विवाह के बाद परेशान बेटी का बाप मांगे | अपना काम है ऐन केन रिश्ता कर बेटे को खूंटी से बाँध देना | दुआ मुफ्त में थोड़ी न देते हैं बाबा लोग | रुपये लगते हैं रुपये | उनका भी पेट लगा है | वे पेट के लिए ही तो दुआ बाँट रहे हैं | उन्हें भी तो रकम चाहिए | अभी तक मुझे किसी ने सही मन से दुआ नहीं दी | पिताजी ने दी भी तो साथ में गालियां भी | क्योंकि मई उनकी के पंजों से ‘ आउट ऑफ़ कण्ट्रोल था ‘| ‘ वे चाहते थे , मैं कुछ और बनूँ , पर कुछ और बन गया | वे गालियांज देने में अब्बल रहे और मैं उसे आशीर्वाद मानकर ग्रहण करने में |उनकी गालियों को आशीर्वाद की संज्ञा इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि हमारे इलाके में एक ऐसे संन्यासी बाबा रहे हैं , जो आशीर्वाद में मां – बहिन की गालियाँ देते | और लोग उसे आशीर्वाद मानकर उनके चरण स्पर्श करते | लोगों में उससे गालियाँ खाने का हुजूम सा लगा रहता | कहते हैं – ‘’ वे जिन्हें पुचकार कुछ कहते , मानो उनका कल्याण होने से रहा |’’
 खैर , मैंने विभिन्न दुआओं के थियेटर में टिकिट खरीदने को कतारबद्ध देखा तो मुझमें भी इच्छाएं बलवती – सी रही | मैं भी दुआएं लूं | मैं भी एक बाबा के दरबार में औरों की तरह कतारबद्ध हो गया |
तम्बूनुमा आश्रम | भारी भीड़ | बाबा श्री चार सौ बीस बनारस वाले | आशीर्वाद के वितरक | आशीर्वाद देने की मुद्रा में कीमती आश्रम में जमे थे | गेट पर आड़े-तिरछे चहरे वाले लठैत गेट पर पहरेदारी के साथ-साथ भक्तों को संभाल रहे थे | गेट पर ही एक दो गुन्दानुमा चहरे बाबा के भक्तों से दानपेटी में एक सौ इन्क्यावन रुपये दान करवाकर बाबा तक पहुँचाने का मार्ग बताते | हम भी ऐसे अनुकम्पापूर्ण रास्ते से होकर गुंडई चहरे वाले बाबा के चरणों तक पहुंचे थे |
हमने बाबा जी के चरण स्पर्श किए | बाबा के पास बैठे | उनके दबंगों ने भभूत स्वरूप राख्नुमा परसाद हमारी हथेली में रखा और चाट जाने का इशारा किया बाबा जी आशीर्वाद स्वरूप बोले-‘’ कल्याण भव:पूतो फलो |’’
दुआ लेकर हम लौट आए | परिवार नियोजन चुके हमसे और पूत क्या पैदा होते | उनके कल्याण शब्द से ही अपने कल्याण होने की उम्मीद थी हमें |
  महीनों गुजर गए | हम विपदाओं के ट्राफिक में तब की तरह अब भी फंसे हुए थे , पर विपदाओं का जाम हटाने का नाम नहीं ले रहा था | बस , माथा पीटते रहे थे | महने गुजरे तो वर्षों को भी गुजरना था | सुखी तनख्याह पर दिन गुजर रहे थे | तभी हमारे वर्तमान साहब का स्थानान्तरण हो गया | वे भी बनारस वाले बाबा से कम न थे | नए साहब आए |दिखने में शालीन थे | पर उगते सूरज को देह्दाकर यह अंदाजा तो नहीं लगाया जा सकता न कि दोपहर के मौसम में तपन कितनी रहेगी |
 खैर वक्त के झंझावातों व सरकारी नौकरी करते हुए सरकारी आबोहवा में कुछ सरकारी चमचों के आचरण को हमने भी शीख लिया था | प्रायोगिक तौर पर हमने उसे नए साब पर आजमाया | आम चमचों की तरह पूरी शालीनता व निरिह्पन के साथ उनका स्वागत किया | उनके शौक खान-पान और चरणों का ख्याल रखना शुरू कर दिया | हालांकि इससे हमारी जेब कुछ हद तक ढीली हो रही थी | पर कहते हैं न रिस्क लेने वाले ही व्यापार को बढाते हैं , पूरे तौर पर बनियागिरी से लाभ का चांस ढूंढ रहे थे | अन्नत: सफल रहे | धीरे- धीरे हम भी साहब के लेफ्टहेंड की तरफ सरकते नजर आने लगे |
 एक शाम वे खुद हमें अपने संग चाय पिलाने ले गए | चाय की चुस्कियां चल रही थी | वे बोले – ‘’ सजल , यूँ तो तुम भोले लगते हो , पर तुमने इस अनजाने दफ्तर में जितना ख्याल रखा उतना किसी ने नहीं | तुमसे इतना कहूंगा | अगर तुम मेरे यूँ ही सेवक बने रहे तो निश्चित मानो हमारी दुआ से बहुत तरक्की करोगे |’’
   साहब की दुआ का असर यह रहा है कि अगले एक दो सप्ताह बाद हमारी शाखा बदल दी गयी | जहां फर्जी बिलिंग , कमीशनखोरी का मापदंड तय होता है | यानी इस शाखा में ऐसे ही काम संपन्न होते हैं | जहां लोग बिना मांगे  भारतीय परंपरा अनुसार स्वेच्छा से जेब में घूस  ठूंस जाते |
हमारे साहब ने दुआ दी तो आप यह अर्थ न लगाए कि वे पंडा पुजारी या संत होंगे  | वे भी आम अफसरों की तरह है  जो कभी-कभी हनुमान व् दुर्गा जी के मंदिर जाते है | नियमपूर्वक हमसे अपना हिस्सा भी लेते हैं |
  आज हम साहब की कृपा से कल्याणमयी जीवन  जी रहे हैं | हम तो यही कहेंगे दोस्तों आप किसी अन्य से आशीर्वाद लें या न लें , पर अपने कार्य क्षेत्रों से जुड़े अफसरों का आशीर्वाद अपने ऊपर बनाए रखें | कारण ? इस देश की किस्मत लिखने में अफसरशाही ही सबसे बड़ी विधाता है |

    सुनील कुमार ‘’सजल’’ 

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

व्यंग्य – कहते तो हैं ....

व्यंग्य – कहते तो हैं ....

वह आदमी है या मुखौटेबाज | कुछ समझ में नहीं आता | कभी असली आदमी लगता , कभी नकली | मुखौटे में वह बड़ा दयावान होता है | देशप्रेम उसली जुबान से टपकता है | आदमियत उसी पहचान होती है | उसके मौसम की तरह बदलते रूप पर टिपण्णी पर कहता है –‘’ यार दुनिया में वर्चास्व्पूर्वक जीना है तो रूप बदलना पड़ता है | बहुरुपिया बनना पड़ता है | वरना दुनिया में जीना बेकार है |
  वह वर्षो से यही करता आ रहा है | समाज में बड़ा सम्मान है उसका | हर कोई नमस्कार करता है उसे | जब वह पावरफुल होता है \ राजनैतिक पॉवर के साथ वह मुखौटा उतार फेंकता है | वह जानता है पॉवर का इस्तेमाल कर आदमियत पेश नहीं किया जा सकता | वरना दुनिया उसे पावरफुल उसे पावरफुल नहीं मां सकती | पॉवर प्रस्तुति हेतु वह आतंक , अपहरण , लूटमार , दगाबाजी , बलात्कार जैसी विधाओं का इस्तेमाल करता है ताकि लोगों को लगे उसके पास भी पॉवर है | उसकी पहचान इसी पॉवर के दम पर है |
 उसके साथ राजनैतिक , अंडरवर्ल्ड के लोग आतंक फैलाने वाले हथियार बंद लोग हैं | सूना है यह भी है कि हथियारों का वैश्विक व्यापारी भी है | वाही इसी के दम पर लोगों के दिलों पर राज करता है | देश उसका मोहताज है | राजनीती उसके इशारे पर हंसती – रोटी है |
  कहते तो है लोकतंत्र का महाकर्णधार है | जनता भेड को हकालने के लिए इनके पास लाठियों भरा गोदाम है | लाठियां हाथ में संभालने के लिए खूंखार जल्लाद है | लाठियां इन्हें खरीदना नहीं पड़ती | कमीशन में मिल जाती है |
अगर वह डरता है तो विपक्षियों , जो अक्सर उसकी शुरुआत योजनाओं की पोल खोलते रहते हैं , मगर वह भी कम नहीं है |
इप्छाले माह किसी महिला ने उस पर उसकी प्रेमिका बनाम रखैल होने का आरोप लगाया | पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब में वह हंसकर बोला –‘’ यारो , ये भी कोई सवाल हुआ | अपनी कितनी प्रेमिकाएं व रखैल हैं अपन को खुद पता नही मालूम | चार रात इसके साथ , चार रात उसके साथ बिता ली है हमने | इतने में अगर वह हमसे जुड़े होने का हो हल्ला मचा रही है तो मचाने दो | ‘
  आठ- दस दिन पहले किसी बड़े घोटाले में उसका नाम आया | वह खुश था | चलो कुछ दिन इसी पर सारे देश का ध्यान अपनी और आकर्षित करें |
  वह खुश इसलिए भी है कि विपक्षी उसे जितना बदनाम करते हैं , उसका उतना बड़ा नाम होता है |
घूसकांड में फंसने के बाद भी ऐसा ही कुछ बयान था उसका | बोला- ‘’ घूस लेना हमारा धर्म है | घूस लेने के बाद मामलों में हम अपने बाप को भी नहो छोड़ते | व्यवसाय में दोस्ती या रिश्तेदारी नहीं चलती | घोस्खोरी हमारे लिए एक उद्योग की भांति है | यानी दाम दो, काम लो |
 बढ़ती महंगाई के सन्दर्भ में उसका तर्क है | पूरा देश विकास व स्तरीय आय की राह पर है | आय के साथ व्यय होना आवश्यक है , तभी आर्थिक समायोजन बना रहता है | सिर्फ आय बढ़ा दी जाए | खर्च कोने में रख दिया जाए तो पूंजी सुप्त हो जाएगी | उसे चलायमान होना आवश्यक है | वह जितना चलायमान होगी , उतनी फुर्तीली होगी | फुर्ती बनी रहे , इसलिए उसे महंगाई का टॉनिक आवश्यक है , जो उसे इस वक्त मिल रहा है |
 बेरोजगारी , भुखमरी, कुपोषण ये सब उसकी नजर में कीटाणु हैं , जो महामारी की तरह पनप रहे हैं | इसकी चिन्ता वह नहीं करता | वह कहता है –‘’ प्रकृति अपना इलाज स्वयं ढूँढ लेती है | बस उसी सिद्धांत पर हमने भी इन्हें छोड़ दिया है |
  हो- हल्ला दबाने के लिए थोडा बहुत सहयोग करना पड़ता है | सो, कर देते हैं | यह मुखौटेबाजी का फर्ज है \

                      सुनील कुमार ‘सजल’ 

व्यंग्य - राजा के '' मन के बोल'

व्यंग्य - राजा के '' मन के बोल'

हर राजा की ईच्छा होती है कि जनता उसकी बातों को सुने और उसकी प्रशंसा करे |राजा भी ऐसे ही किसी प्रयास में है | उसने अपने सभासदों से तरकीब निकालने का हुक्म दिया | लोगो ने अपने- अपने विचार रखे | एक सभासद का विचार उसे पसंद आया | ‘’ महाराज, आपके मन के शब्दों को राज्य के दूर- दराज तक के हिस्से में पहुचाया जाए |’’
‘’ यह कैसे संभव है ?’’
‘संभव है , महाराज | पूरा मीडिया तो आपके नमक पर पलता है | उन्हें आदेशित करने का कष्ट करें कि वह आपके प्रत्येक जन प्रभावी कार्यक्रमों को ज्यादा से जयादा कवरेज कर प्रसारित करे |
  राजा खुश हुआ | मगर राजा का बोले ? जो जनता को पसंद आये | क्योंकि मन में कई बार ऐसे विचार भी आ जाते हैं जो शायद जनता को पसंद न आयें| या जनहित में नहीं होते |
 इसका भी उपाय निकाल लिया गया | राज्य के कला संस्थानों में राजा की कृपा से पल रहे कुछ बेचारे टाइप लेखकों से आलेख तैयार  करवाए गए | जिनमे राज्य हित की मस्केबाजी, जनता को राज्य के अन्दर हो रहे  घपले घोटाले, लूटमार , हत्याएं , बलात्कार जैसी घटनाओं  से ध्यान भटकाने की कोशिश की गयी | बस राजा को इसे देखकर पढ़ना था |
 राजा भी यही चाहता है , जनता उसकी लफ्फाजी , काली करतूतों पर ध्यान न दे |
   राज्य में  मन के बोल  कार्यक्रम का संचार माध्यमों  से प्रसारण  प्रारम्भ हो गया | राज्य के कर्मचारियों को सुनना अनिवार्य कर दिया गया ताकि जनता उनसे प्रभावित होकर सुनने में रूचि  दिखाए |
  राजा भी चतुर प्राणी होता है | वह अपने मन के बोल को छुट्टी के दिन प्रसारित करवाता | ताकि कामचोर कर्मचारी कार्यक्रम सुनने के बहाने दफ्तर दिवस में दफ्तर  से गोल न मारें |जनता अवकाश के दिन फुर्सत में रहती है | सो वह इत्मीनान से उसके बोल को सुने |
  राज्य चाहे जितना भी शालीन रहे पर वहां आलोचकों की पैदाइश हो ही जाती है | राजा के राज्य में भी उसके विपक्षी उसके महान आलोचक हैं जो उसकी काली करतूतों को अपने तरीके से जनता के सामने पटकते रहते हैं | उसकी करतूतों का पोस्टमार्टम करते रहते हैं | इस घटनाक्रम के चलते राज्य में कई बार हल्ला-बोल जैसी रैलियाँ निकल चुकी हैं | तख्ता पलट होते-हुए बचा है |
  लोकतांत्रिक राज्य में राजा ही सर्व शक्तिमान नहीं होता | विपक्षी भी हैसियत रखते हैं | इसलिए रजा डरता है | सोच समझ कर अपने बोल बोलता है |
  राजा के ‘’ मन के बोल ‘’ कार्यक्रम के कई बार प्रसारण के बाद |


किसी ने एक नागरिक से सवाल किया| ‘’ राजा जी ने आज तक के ‘’मन के बोल ‘’ बोले | कार्यक्रम कैसा लगा |’’
‘’ वो तो राजा का कम है अपने प्रशंसा के लिए कुछ भी कार्यक्रम चलाये | पर राज्य की समस्या के विरुद्ध कुछ करे तो जाने राजा कि राजा के मन के बोल मन से निकले हैं | यह तो राजा  का टाइम पास कार्यक्रम है सो टाइम पास के लिए कभी –कभी सुन लेते हैं |’’
   कार्यक्रम को प्रसारित होना है | वह तो होता रहेगा |
 चम्मच टाइप मीडिया , सत्तापक्ष तारीफ़ के पुल बाँध रहा है | ‘’ सरकार जनता आपसे बेहद खुश है |आपके कार्यक्रम को सुनने के लिए बेकाबू रहती है |कहें तो फोटोग्राफ्स , रिकार्डिंग इत्यादि आपको दिखा दें |
 राजा फूलकर कुप्प है | राजा तो चाहता है कि अंधे को मिली दो आँख की तरह उसके चम्मचों की संख्या में वृद्धि हो |
   जनता के मन पर मन के बोल कितना प्रभाव डाल रहे हैं |इसका जानकारी  तो चंद महीनों बाद मिलेगी | | जब जनता विपक्षियों के साथ मिलकर राजा को उखाड़ फेंकने की कोई साजिश न रचे |

                          सुनील कुमार सजल 

शनिवार, 19 सितंबर 2015

व्यंग्य- आदमी बनो तो ....जैसे

व्यंग्य- आदमी बनो तो ....जैसे

चौरसिया जी पान के स्वाद के लिए प्रतिष्ठित हैं | वे ऐसा पान का बीड़ा लगाते है कि खाने वाला वाह-वाह कर उठाता है | कब उनके पान के बीड़े में नया स्वाद आ जाए , कोई नहीं समझ पाया | जैसे कम्पनियां अपने उत्पाद में नयी तकनीक लाती है , वैसे चौरासिया जी पान के बीड़े में स्वाद | एक दिन हमने उनके बीड़े की तारीफ़ करते हुए पूछा-‘’ आप इतना अच्छा पान का बीड़ा कैसे लगाते हैं ,चौरासिया जी ?
वे बोले –‘’ सब ऊपर वाले की मया है | ‘’
   अपन वैसे जिज्ञासु टाइप के आद्मीहैन ,तो अपन ने भी उनके लगाए जाने वाले बीड़े में स्वाद के रहस्य पता लगाने का बीड़ा उठा लिया | रा के हथकंडे अपनाते हुए हम उनकी कमजोरियों को खंगालते रहे | कमजोरियों को खंगालना आसान था पर उसके पृष्ठ पर उभरी इबारत पढ़ना कठिन | अंतत: हमें पता चला कि शराब उनके बेटे की सबसे बड़ी कमजोरी है | कहते हैं नशा दुश्मन को भी दोस्त बनाता है | एक दिन हमने उसे उसके मनमाफिक पिलाया | पीने के बाद इंसान ब्रम्हांड के नए-नए रहस्य उगलता है | आखिरकार पान में स्वाद के शस्य को उनके बेटे ने लड़खडाती जुबान से उगल दिया | बोला- ‘’ मास्साब , स्वाद का रहस्य हम सिर्फ आपको बता रहे हैं | आप किसी और को न बताना | वरना मुझ गरीब के पेट पर ज़माना तो ज़माना बाप भी लात मारने से पीछे नहीं हटेगा |’’ फिर उसने अपनी मदहोशी की बारहखड़ी पढ़नी शुरू की ‘’ मास्साब हमारा बाप दुनिया को बेवकूफ बनाता है और सब बेवकूफ बनते हैं | वह कत्था में भांग व अफीम का पानी मिलाता है | आप ही ऐसे बने कत्थे के पान को वाह-वाह कर खाते हैं |’’ वह और भी कई बातें बडबडाता रहा | पर, गोपनीयता बनाए रखने की वजह से आपको हम नहीं बता सकते |
चौरासिया जी की बढ़ती ग्राहकी का दूसरा रहस्य यह भी है | उनके ग्राहकों में अधिकाँश लोगो के सपने करोडपति बनने के हैं | चौरासिया जी उन्हें गीता का ज्ञान देते हुए कहते , ‘’ कर्म करिए , धन लगाइए और फल की चिन्ता मत करिए | दरअसल , चौरसिया जी सट्टा अंक लिखने वाले एजेंट हैं | वे भी अपनी तरफ से अंकों की जोड़ी निकालते हैं | ग्राहकों को अंक निकालने के अध्यात्मिक तांत्रिक व गणितीय सूत्र भी सिखाते हैं | अब तक कितने सट्टा खिलाड़ी लखपति  हुए , यह तो अपन को नहीं  मालूम परन्तु चौरासिया जी अवश्य ही लखपति बन गए | वे सट्टा खिलाड़ियों को, उनके पास रुपया न होने पर मासिक ब्याज दर पर धन देकर उनके सपनों को मन-मस्तिष्क से मिटने नहीं देते |   चौरासिया जी इस अनैतिक धंधे में नैतिक बने रहे | पुलिस से लेकर नेता तक उनकी पहुँच है | उड़नदस्ता उन्हें दबिचाने के फेर में हमेशा हाथ ही मलता रहता है | चौरासिया जी साफ़ शब्दों में कहते हैं , ‘’ इस युग में वाही तरक्की करता है , जो लंका के विभीषणों को अपने यहाँ आश्रय देकर अपना उल्लू सीधा करता है |’’  तभी तो वही आदमी इस युग में मजे में हैं , जो चौरासिया जी जैसा है | वरना ईमानदार ......? उनकी हालत तो आपको पता है |

     सुनील कुमार ‘’ सजल’’ 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

व्यंग्य – प्यार में चाँद

व्यंग्य – प्यार में चाँद

 वो ज़माना गुजर गया साब | जब प्रेमी लोग चाँद के पार जाने की सोचते थे | भले ही मुंह जुबानी |कल्पनाओं के पंख लगाकर ही सही |पर चाँद या चाँद के पार से कम बात नहीं होती थी | प्रेमिका भी इन्हीं कल्पनाओं के आकाश की बात सुनकर फूले नहीं समाती थी | ऐसे लट्टू हो जाती थी | मानो चाँद पर खडी है | चाँद का धरातल तो देखा नहीं | बस सूना है चाँद के बारे में | वहां गड्ढे खाई होती हैं | चाँद पर नहीं गए तो क्या | अपने गाँव के बंजर क्षेत्र में बनी ऊबड़-खाबड़ , सड़कें और उसके आजू- बाजू खाईयां गड्ढे , उड़ती धूल सचमुच चाँद की याद दिला देती हैं | यहाँ खड़े होकर चाँद की कल्पाना की जा सकती है |
  प्यार को बढाने व प्रेमिका पर गिरफ्त बढाने के लिए कुछ अलटप्पू टाइप बातें तो होनी चाहिए न |
  आपने वह पुराना गीत तो सूना होगा | चलो दिलदार चलो , चाँद के पार चलो | उस जमाने में प्यार की बातें तो होती थी | प्रेमी – प्रेमिका भले ही चाँद पर नहीं पहुचे पर वैज्ञानिक पहुंचे | वहां की जो बातें बतायी | वे प्रेमी- प्रेमिका के बीच प्यार को चटपटा बनाने के काम आयी | सो प्रेमी – प्रमिका दो कदम और आगे बढे | सपनों की दुनिया | अब कहने लगे | तू काहे तो तेरे कदमों में चाँद – सितारों को लाकर रख दूं | मानो पड़ोसी के बगीचे से चम्पा- चमेली या गुलाब चुराकर प्रेमिका के बालों में खोसने वाली बात हो | ऎसी ही बातें होती थी | पहले प्यार के नाम पर | ईस्टमेन कलर वाली फिल्म की तरह |
   अब दुनिया बदल चुकी है | चाँद- सितारों वाली बातें मायने नहीं रखती | अब तो प्रेमी- प्रेमिका किसी बड़े शहर की और फरार होकर अपने प्यार को अंजाम देते हैं | इसका कारण यह भी हो सकता है कि चाँद पर जाने के लिए अरबों रुपये चाहिए | एक सामान्य भारतीय की इतनी औकात नहीं कि वह चाँद पर जाने की कल्पना भी कर सके | यहाँ तो कई बार चौपाटी पर मसाला चाट वा पानी- पूरी खाने के लिए भी जुगाड़ लगाना पड़ता है |
   फिर और क्या करते हैं प्रेमी ? शहरी विकास प्राधिकरण के पार्कों में मिल-जुलकर या टाइम पास कर स्वर्ग से सुन्दर स्थलों की कल्पना कर देते हैं | एक दिन ऐसे ही गाँव से भागकर आए प्रेमी जोड़े शहर में निवासरत हुए प्रेमिका ने कहा – ‘ कभी तो कोई अच्छी  जगह घुमा दिया करो | एक जगह रहते हुए जी ऊबता है |’’
  ‘’ यार कहाँ घुमा दें | दूसरों की चाकरी करके तो पेट भर रहे हैं | बस इत्ता समझों कि हमने प्यार किया और वह सफल हो गया | वरना गाँव  में एक दूसरे की शक्ल देखना भी गुनाह हो गया था | प्रेमी ने कहा |
‘’ पर ऐसे  प्यार से  क्या होता है | प्यार का मतलब तो ऐश करना होता है न | ‘’ प्रेमिका में  शहरी आवो-हवा व टी.वी. सीरियल्स देखकर आधुनिक सोच के अंकुर फूटे थे |
‘’ यार, कुछ दिन तो कमाई कर लेने दो | फिर तुम्हें ऊंटी, कुल्लू मनाली , गोवा जहां कहोगी वहां घुमाने ले जाऊंगा | प्रेमी ने सांत्वना देने की कोशिश की |
  साब आज के दौर में ऐसी ही बातों का खूब चलन है प्यार की पंचायत में | जैसे कि पहले चाँद पर जाने वाली बातें अच्छी लगती थी | इधर विवाहित जोड़ों में नई संकल्पना विक्सित हुई है | पति महोदय को अपने –अपने पैतृक स्थान से बेहतर ससुराल अच्छी लगती है | अब चाँद के पार को यूँ गुनगुनाते हैं | ‘ चलो दिलदार चलो ,ससुराल( पत्नी का मायका) चलो |


               सुनील कुमार ‘सजल’’

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

लघुव्यंग्य- गम

लघुव्यंग्य- गम

‘’ इतनी छोटी उम्र में नशा करते हुए तुझे शर्म नहीं आती |’’ थानेदार  ने उसके गाल पर थप्पड़ जमाते हुए पूछा |
‘’ का करूँ साब मजबूरी है |’’ उसने मिमियाती आवाज में कहा |’
‘’ काहे की मजबूरी बे |’’
‘’ गम भुलाने की |’’
‘’ किस बात  का गम बे | किसी छोरी का |’’
‘’ जी नहीं साब ! मां बाप का |’’
‘’ का वे मर गए .....|’
जी नहीं.....|’
‘’ तो काहे का गम बे ....|’
‘’ साब वे खुदअपना गम भुलाने के  लिए नशे में डूबे रहते हैं | मेरा ख्याल नहीं रखते | इसलिए मैं भी उनका गम भुलाने के लिए...|’
 थानेदार  के उसके शरीर पर चलते हाथ वहीँ ठहर गए |

      सुनील कुमार ‘’सजल’ 

बुधवार, 16 सितंबर 2015

व्यंग्य - गांधी जी की दाल –रोटी और हम

  व्यंग्य - गांधी जी की दाल –रोटी और हम

किसी ने कहा था- ‘’ दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ |’’ लेकिन साब अब तो अपन बड़े कन्फ्यूजन के दौर से गुजर रहे हैं | कन्फ्यूजन इस बात का है साब किक्या दाल रोटी मात्र खाकर स्वस्थ रहा जा सकता है ? क्या दाल-रोटी में शारीर के लिए आव्बश्यक तत्व मौजूद होते हैं ?भई, इस जमाने में भला दाल-रोटी अकेले से पेट भरता है क्या | आजकल पेट पिज्जा , बर्गर चायनीज जैसे भोज्य उत्पादों से भरता है | ये गांधी युग नहीं बल्कि इक्कसवीं सदी है | इसलिए तो दाल-रोटी जैसी रेसिपी पुरातन हो गयी है |
साब आधुनिक रेसिपी के आगे दाल-रोटी स्वयं कन्फ्यूज है कि उसके गांधी वाले दिनों का क्या होगा | अब देखो न हमारे सयाने भी दाल-रोटी मात्र से कतराने लगे हैं | कहते हैं उनके दांत झड चुके हैं | इसलिए अक्सर खाना खाते वक्त चिढचिढाते हुए बोल- उठाते हैं –‘’ रोटी न ही खाओ तो अच्छा है |’’
   ‘’दादा क्या नूडल्स लाएं या बर्गर या पिज्जा ‘ क्या है कि ये गेहूं की रोटी से नरम होते हैं | दादाजी भी अगल बगल देखकर कह देते हैं ‘ ले आओ ... दाल चावल सब्जी खाते-खाते मन ऊब जाता है |’’
  अब क्या है कि दादा जी को रोजाना रसगुल्ले , गुलाबजामुन या जलेबी आलूबड़ा तो खिला नहीं सकते | वरना वे बीमार होकर अस्पताल में भारती हो जाएंगे |
हम तो यह भी सुनते रहते हैंज उन्हें गांधी जी के सपने आते हैं ..... हमने पूछा- गांधी जी की दाल रोटी |’’ वे चुप |
‘’ यार ज़माना बदल गया है दाल- रोटी से काम नहीं चलता | सब कुछ खाओ | सब कुछ पचाव| वैसे पचाने के भी उत्पाद मार्केट में उपलब्ध हैं | पाचन ठीक-ठाक रहेगा तो बदन बनेगा | तभी जी सकोगे | वरना कुपोषण के शिकार होकर समय से पहले परलोक थोड़ी न सिधारना है |
इधर डाक्टर ममें कहते हैं –‘’ देखी हरी शाक के अलावा अंडा –मांस , दूध भी लेना शुरू करें | बहुत कमजोर हो गए हो |’’
मैंने उन्हें वेजेटेरियन होने का परिचय दिया – ‘’ सर मैं अंडा-मांस की तरफ देखता भी नहीं | खाना तो दूर की बात है | मैं गांधी जी की दाल-रोटी का शौक़ीन हूँ |’’ उन्होंने समझाया –‘’ यह इक्कीसवीं सदी है | सदी के हिसाब से शारीर को भोज्य पदार्थ दो | तभी आधुनिक आवो-हवा में जी सकोगे | गांधी युग की दाल-रोटी उस युग में ही अनुकूल थी | यही युग देशी-विदेशी डिश का युग है इसलिए यह खाना अनिवार्य है |’
‘’ सर मैं गांधीवादी हूँ | इसलिए उनकी सुझाई गयी डिश ‘’ दाल-रोटी ‘ को नकार नहीं सकता | इसी डिश मात्र के सहारे ही जीना  चाहता हूँ | स्वस्थ रहना चाहता हूँ | इससे हल्का भोजन कुछ भी नहीं है | ‘’ हल्का भोजन लेते हो | इसलिए हल्का शारीर लेकर मेरे पास आए हो | मेरी सलाह मानो |’’
‘’ नो सर ! मैं तो दाल-रोटी ....|’’
‘’ देखो बहस न करो | मैं एक डाक्टर हूँ | तुमसे ज्यादा जानता हूँ | बार गांधी जी का नाम लेकर जी रहो न | जीओ | एक दिन गांधी जी की तरह दुबले – पतले होकर हाथ में लाठी लिए चौराहे पर ही अटके रह जाओगे | सोच भी नहीं पाओगे कि किधर से सड़क पार कर चला जाऊं | जैसे गांधीजी दुबले – पतले शारीर के साथ हाथ में लाठी लिए आज भी सड़क पर खड़े हैं वैसे ही खड़े रहोगे , बेटा सुधर जाओ | अभी भी वक्त है |’  इधर इस बात का भी कन्फ्यूजन दिमाग में ट्राफिक मचाया है | गांधी जी की दाल- रोटी वाली सलाह गलत है या आधुनिक डाक्टर की | या फिर डिब्बा बंद पौष्टिक उत्पाद बनाने वाली देशी- विदेशी कम्पनियां |
  एक दिन पत्नी ने हमसे कहा-‘’ सुनो जी , आजकल आप बहुत कमजोर लग रहे हैं |खान-पान बदली | मात्र हरी सब्जी , दाल –रोटी  के दम पर शारीर कैसा मरियल टैटू के जैसा दिखने लगा है | उम्र में बड़े अलग दिख रहे हो | परसों श्रीमती जौहर भी कह रही थी |’’ क्या बात है भाई साब आजकल पहले से ज्यादा कमजोर व सुस्त दिखाते हैं इन्हें च्यवन प्राश खिलाया करो | भारी जवानी में बूढ़े दिखने से बाख जाएंगे | अच्छा लगता है ऐसा दिखाना |’’
‘’ यार मैं जैसा भी दिखता रहूँ | आखिर मैं , मैं हूँ | मैं ठहरा सात्विक व्यक्ति | वैसा ही खाऊंगा वैसा ही रहूँगा |’’ सात्विक, सात्विकता की माला जपते – जपते....समय के पहले बूढ़े जांचने लगे | ‘’ पत्नी ने मुझ पर और भी कई सवाल उठाए | जो मैं सार्वजनिक नहीं कर सकता  आखिर मुझे पहाड़ के नीचे लाकर पत्नी ने ऊंटत्व होने का एहसास करा दिया |
 मैनें कहा- ‘’ चलो तुम्हारी ही बात मानता हूँ | मैं क्या- क्या खाना शुरूं करूँ |’ ‘’ पोषक आहार विशेषज्ञ से पोषक चार्ट बनवाकर लाइए और उसी के अनुसार भोजन करिए |’’
‘ मगर इस मंहगाई व मिलावटी युग में उनका पोषक चार्ट तो मेरी जेब का भट्ठा बिठा देगा |’’
‘’ गई जरूरी बात मत करो | आप नहीं बाजार में उनके चार्ट के अनुसार उपलब्ध भोज्य पदार्थ मिलावटी रहें या नकली उसमें भी कुछ न कुछ पोषक तत्व तो होते हैं और ये तत्व शरीर की जरुरत हैं | पत्नी को क्या समझाता | वह तो ठहरी आधुनिक भोज्य की शौक़ीन|’[‘
                    सुनील कुमार ‘’ सजल’’ 

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

व्यंग्य --शराब


व्यंग्य  --शराब
तू इतनी दारू क्यों पीता है ?’’
‘ गम भूलाने के लिए |’’
‘’ कैसा गम ?
‘ जिंदगी के हजार गम होते हैं साब क्या बताएं |
‘’जानता है दारू कितनी नुक्सानदेह चीज है फिर भी दारू पीता  है |’
‘ गम तो उससे भी ज्यादा नुकसानदेह है |
 ‘’यार तू लम्बी मत खींच पीना छोड़ दे |’’
‘ काहे  साब | वह जिद्द पर अड़ा है | मैं उसे समझा रहा हों |
 ‘’मंगलू के लिए गम गलत की दवा है दारू|’’  ‘
दारू गम को गलत करती है या गम दारू  को गलत करता  है यह मंगलू ही जाने |
एक दिन मैंने मंगलू से कहा –‘’ यार तू मजदूर होकर भी इतनी दारू की व्यवस्था कैसे कर लेता है |वह हंसा – ‘’साब का बड़े लोग ही दारू पीना जानते हैं |हम भी दारू का मजा लेते | इसका बंदोबस्त सरकार ने हमारे लिए कर रखा है |’’
“वह कैसे?’’
‘’पांच लीटर दारू रखने की  की छूट | और पेट के लिए एक रूपये किलो अनाज की व्यवस्था | जब एक रूपये किलो अनाज मिलेगा तो दारू की व्यवस्था तो होनी ही है | काहे की चिन्ता |सौ रुपया की मजदूरी  करो पचास की पियो |’’
‘’कुछ बचत भी किया कर कल बीमारी लाचारी में काम आएँगे |’’
‘’काहे की बीमारी साब | सरकार बीस हजार रूपये तक का इलाज खुद करवाती है अब तो हम भी आप लोगों तरह प्राइवेट अस्पताल में इलाज करा सकते हैं वह भी सरकार की तरफ से | ‘’
 मंगलू निश्चिन्त है दारू में डूब कर | उसे नहीं मालूम राजनीति के प्यादे कैसे व किसतरह चलते हैं|राजनीती के लोग | सरकार की हर सुविधा के पीछे एक राजनैतिक हकीकत होती है |’
  सरकार जानती आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी उसका नशा है | उसका पेट है | इसलिए उसी के आधारपर नीतियाँ बनाती है |
  एक बार अखबार में पढ़ा था सरकार चाहती पीने वालों के लिए आरामदायक स्थिति  हो | ताकि वे दारू की दूकान में मजे से पी सके पीने पूरा लुफ्त  उठायें |
  
  सरकार को पता है | पीने वाले को पता है| अधिकांश  हादसों की जड़ शराब है  | पर वह उस पर रोक नही  लगा सकती | सरकार का अधिकाँश बजट शराबियों के दम पर आता है | शराबी न हों तो ....?
  एक बार कुछ कर्मचारी संघठन सरकार से वेतन बढ़ोतरी का मुद्दा रखा था |सरकार  ने बजट के अभाव में देने से इनकार कर दिया था | संघ ने प्रस्ताव रखा नशीली चीजें जैसे शराब  में टेक्स बढ़ा दीजिए | मंत्री जी बोले आपके हित के लिए क्या हम नशेड़ियों को पीने से वंचित  कर दें  |  सरकार को पता है जब तक उसके राज्य में शराबी हैं| उनके अनुकूल स्कीमें निकाल सत्ता के आलिशान कक्ष में जम कर बैठ कर रहा जा सकता है |
  मंहगाई तो बढती रहती है | यह बात तो मजदूर  को भी पता है | इसलिए उसकी कमजोरियों को गरीबी रेखा से नीचे लाकर उसे खुश करना जानती है सरकार | मजदूर खुश है तो सरकार खुश है |मजदूर इस खुशी  को गम माने या ख़ुशी | इसे सही गलत करने के लिए मार्केट में दारू उपलब्ध है |
  अब तो गाँव-गाँव में देशी विदेशी शराब की दुकानें खुल गयी | हो सकता सरकार की सोच हो मिलावटी ठर्रा से बेहतर दारू उसे मिले | माफिया क्यों लाभ उठायें | जब जनता सरकार की है और सरकार  जनता की है |
        सुनील कुमार सजल 

शनिवार, 12 सितंबर 2015

व्यंग्य- एक तोला प्याज का सवाल है बाबा


व्यंग्य- एक तोला प्याज का सवाल है बाबा


जब से प्याज के भाव आसमान छू रहे हैं | भाई मेरे सपने में प्याज ही प्याज दिख रही है | वैसे भी मैं कच्चा प्याज खाने का शौक़ीन हूँ | एक रात मैं सपने में प्याज लाना –प्याज लाना बड़बड़ा रहा था| पत्नी ने सुना | मुझे हिलाया |’’ क्या बात है नाक से खून निकल रहा था? या फिर शरद आगमन मौसम में ‘ लू लग’ गयी थी ? जो सपने में प्याज लाना बड़बड़ा रहे थे | घर में महीने भर से आई है जो प्याज लाकर देती ?’’ आधी रत में ही पत्नी ने शब्दों के तीखे बाण से हम पर प्रहार किया | हम हडबडाकर उठे | शर्म से भीगे हम पत्नी से नजरें चुराने लगे हमारी फिरती नज़रों पर पत्नी ने गौर किया | बोली –‘’ किसी और को रेस्टोंरेंट में प्याज वाली रेसिपी खिलाकर खुश तो नहीं कर रहे हो इन दिनों ?’’
पत्नियों और पत्रकारों में एक समानता है | जैसे पत्रकार मूतने गए आदमी के पीछे लग जाते हैं | मसलन यदि कोई अचानक उठकर मूतने गया तो क्यों गया | क्या आसपास वालों को बताकर गया ? यदि नहीं तो क्यों ? टायलेट में गया या खुले मैदान या फिर किसी मकान की आड़ में ? पेशाब को कितनी देर से दबाकर रखने के पीछे कारण क्या था ? कहीं उसे डायबिटीज या बहुमूत्र की बीमारी तो नहीं ? या नशे की गोली तो नहीं खा रखी है ? ऐसे कुछ प्रश्नों से मीडियावाले आम आदमी की फोटो खींचते रहते हैं | पत्नियों के समक्ष पति भी ऐसे ही दौर से गुजरते रहते हैं | उस रात मेरे साथ भी ऐसा दौर था सपने की तस्वीर को छाप तो नहीं सकता था | अत: उत्तर क्या देता | सो चुप रहा | मैंने पत्नी के ऐसे ही प्रश्नों के भय से टीवी. देखना बंद कर दिया है | ताकि प्याज जैसे मसलों के समाचार मेरी उपस्थिति में पत्नी न सुन सके |
मैंने इंटरनेट पर एक ब्लॉग ‘’ प्याज पर विचार मंच ‘’ बना रखा है | जिसके अंतर्गत मैं आम पाठकों , लेखकों , सब्जी विक्रेताओं और प्याज के जमाखोरों से विचार आमंत्रित करता हूँ | मसलन सस्ती प्याज कैसे खरीदें ? कहाँ से खरीदें ? प्याज न खरीद सकने के कारण पत्नी के सवालों से कैसे बचें ? प्याज के स्वाद का विकल्प सुझाएं |’’
      एक सुखद घटना यह है किविचार आना शुरू हो गए हैं | एक सार्थक विचार यह आया की सड़ी प्याज बाजार में फ्री में मिल जाएगी , कृपया बीन-छांट कर ले आयें |
‘’ साब प्याज का घर आना ही सुखद घटना है इन दिनों | प्याज की खुशबू या बदबू पड़ोसी की नाक तक जरूर पहुंचानी चाहिए | ताकि पड़ोसी को पता चले कि फलां जी के घर इतनी मंहगी प्याज बाकायदा आ रही है | स्टेटस के जमाने में दिखावा तो जरूरी है, साब |’’
भई, उस दिन सब्जी बाजार में खडा था | सब्जियों के भाव पता कर रहा था | इसी बीच मुझे ध्यान आया | पत्नी ने दफ्तर से लौटते वक्त प्याज लाने को कहा था | यूं तो मैं प्याज के आसमान छूते भाव से अनभिज्ञ नही था | फिर भी मैंने एक सब्जी विक्रेता से प्याज का भाव पूछा | वह बोला- ‘’ अस्सी रुपये किलो साब | कितना तौल दूं ? एक छटांक या एक पाँव ?’’
  शायद वह मेरी शक्ल पर उभरी औकात को पहचान चुका था | ‘’ रहने दो |’’ मैंने कहा |
   वह तुरंत बोला-‘’ लहसुन रख लीजिए चालीस रुपये किलो है | दस रुपये में पाँव भर मिल जाएगी |’’ मैंने न कहां तो वह मुंह बिचकाया और कुछ बुदबुदाया सा | मानो मैंने औकात न होते हुए भी उसका वक्त बर्बाद किया |
 अभी मैं सब्जी खरीदने ही वाला था कि वर्माजी मिल गए | चाँद चर्चा के बाद बोले –‘’ प्याज खरीदने आये हो |’’
 ‘’ अरे कहाँ यार | सब्जी ही ले जाएंगे |’’
‘’ प्याज भी तो सब्जी का अंग है | थैला अभी तक खाली है , मतलब प्याज खरीदने ही आये हो | खरीदो भैया , आप लोग ऊपरी कमाई वाले ठहरे |’’ इतना खाकर वे हंसते हुए आगे बढ़ लिए | इधर कलेजा आँख में पड़े प्याज के रस की तरह जल उठा | साला, सब्जी मार्किट में खडा होना गुनाह है | सब्जी विक्रेता ने छटांक भर प्याज में औकात नाप दिया और इन भाईसाब ने ऊपरी कमाई में|
   मन शांत हुआ था कि श्याम जी मिल गए | थैले में झांकर देखा | ‘’ क्या बात है , थैला खाली रखा है | हम समझ गए आज मुर्गे खाने का मन होगा इसलिए प्याज लेने आये हो | कहो तो आज रात का भोजन आपके यहाँ हम भी.....|’’
 ‘’ आपने मुझे कभी मुर्गा खाते देखा है |’’
  भैया जब से मंहगाई बढ़ी है लोग कथरी ओढ़कर  घी खाने लगे हैं |’’ एक करारा-सा व्यंग्य ये भी जड़कर आगे बढ़ लिए |
   आज प्याज की औकात इतनी बढ़ गयी कि उसके सामने इंसान की औकात शेयर मार्किट की तरह बदतर होकर रह गयी है | अब किसे दोष दें | एक प्याज के लिए इतने कठोर व्यन्य सुननेपढ़ रहे हैं |जो पहले माटी के मोल बिकती हुई गोदामों में सड़ती – गलती रहती थी |
   घर पहुंचे तो पत्नी ने थैला देखा | ‘’ यह क्या पावभर प्याज ?’’
  ‘’ तुम्हें मालूम नहीं प्याज क्या भाव बिक रही है ? आसमान छू रहे हैं |’’
 ‘’ छूने दो पर तुम्हें तो जमीन पर खड़े होकर खरीदना है |’’
  ‘’ देखो यार एक अदना – सी प्याज के लिए हमपर यूं ताने न मारो | अभी बाजार में दो लोग मारकर गए हैं |’’
‘’ क्यों न मारे ? मोहल्ले में हमारी भी कोई इज्जत है कि नहीं ....| अब घर के बाहर क्या प्याज के दो छिलके भी न डालें किपडौसी में तनिक इज्जत बची रहे...|’’
  ‘’ अब बकवास बंद करो |’’
     ‘ ‘क्यों करून ? आपको मालूम है कि मैं ऐसे परिवार से रही हूँ जहां प्याज को देखना तो क्या सूंघना तक पसंद नहीं करते | तुम्हारी प्याज खाने की आदत ने हमें भी प्याज का आदी बना दिया |’’
    प्याज को लेकर पत्नी के ताने से हम ऊब चुके थे | अत: हमने एक रास्ता सुझाया |
  ‘’ देखो रानी , एक नेक काम में तुम मेरा सहयोग दो |’’
  ‘’ कही |’’
  ‘’ अपन उस बाबा के पास चलकर गुरु दक्षिणा लेते हैं जो प्याज – लहसुन को तामसी भोजन का द्योतक बताते हैं |’’
  ‘’ इससे क्या होगा |’’
  ‘’ गुरु दक्षिणा लेने के बाद अपन लोग प्याज खाना बंद कर देंगे | फिर वह मंहगी रहे या सस्ती | अपने को क्या लेना-देना |’’
  पहले क्यों नहीं आजमाया यह सब |’’
‘’ पहले प्याज इतनी कीमती वस्तु नहीं थी |’’
 ‘’ देखो जी, तुम्हारे ये नखरे उस नकली मेकअप के सामन हैं जो पहली पसीने की धार बनकर बह जाते हैं | प्याज जिस भाव भी मिले आपको लाना होगा |’’ मैं चुप रहा | आखिर कहता भी क्या ?’
       सुनील कुमार ‘’ सजल’’ 

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

व्यंग्य – लड्डू महिमा


व्यंग्य – लड्डू महिमा

कुछ लोगो के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं |एक हाथ का लड्डू ख़त्म नहीं होता कि पुन: उन हाथों में लड्डू आ जाते हैं |
भाई , मैं यहाँ घरों में या होटलों में बनाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के लड्डूओं की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि उन लड्डूओं की बात कर रहा हूँ , जो मुहावरों के रूप में अपना अर्थ रखते हैं |
  सूखा पड़े या अकाल , बाढ़ बढे या मंहगाई , सब दिन उनके दोनों हाथों में लड्डूओं का भार  बरकरार रहता है | कभी-कभी इन बहारों को सहते –सहते इतने ऊब जाते हैं कि कह उठाते हैं ,’’ भाई किसी दिन तो राहत मिले |’’
  रहत पाने के लिए वे या तो पहाड़ों की यात्रा करते हैं या फिर विदेशों की पर लड्डू पहुंचाने वाले फिर भी उनका पीछा नहीं छोड़ते | आप लड्डू के इस प्रसंग पर सोच रहे होंगे कि मैं आम आदमी की बात कर रहा हूँ | जी नहीं | मैं तो उन महान हस्तियों की बात कर रहा हूँ जो अपने स्वार्थ के लिए देश को ही लड्डू की तरह खाकर पचाने में तुले हैं |
लड्डू का भी अपना विज्ञानं है | वह जितना ज्यादा गोल-मटोल होता है , उतना ही गोलमाल कराने में अपनी भूमिका निभाता है | अपने बीच में ऐसे भी लोग हैं , जिनके हाटों में भी कभी लड्डू आ जाते हैं , फिर भी उनकी पीड़ा कह उठाती है ,’’ काश ! ऐसा योग हमेशा ही बना रहता तो दुर्दिन ही क्यों देखते |’’
  इधर मेडिकल विज्ञानं आदमी की जाति को चेतावनी देता है , ‘’ भाईयों ज्यादा लड्डू मत खाओ  वरना बीमार पद जाओगे यानि मोटे हो जाओगे या डायबिटिक हो जाओगे |’
  पर इंसानी दिल कहाँ मानता है | वह जितना खाता जाता है , उतना ही और ललचाता है |
  हमारे आराध्य देव गणेश जी भी लड्डू के शौक़ीन हैं पर वे विशेष तिथियों में ही लड्डू खाते हैं | मसलन , या तो गणेश चतुर्थी व्रत में या फिर टिल गणेश, गणेशोत्सव में | शायद इसीलिए वे इतने सालों से लड्डू खाते हुए भी डायबिटिज  के शिकार नहीं हुए | मगर धरती के आधुनिक लम्बोदारों की बात छोडिये , उन्हें अक्सर लड्डू खाने का मौक़ा मिल जाए तो वे चौबीस गुणित तीन सौ पैसठ दिवस बराबर से लड्डू खाते रहेंगे | भले ही डायबिटीज जैसी या एनी कोई भी बीमारी घेरे , सब चलता है | मजदूर इन सब लोगों से थोड़ा हटाकर जी रहा है | बेचारे को इतने महंगे लड्डू खाने की बात तो दूर, शक्कर भी इतनी महंगी है की चाय में मीठा स्वाद उठाने के लिए भी थोड़ा नमक डालना पड़ता है ताकि चाय में मिठास थोड़ी तेज लगे | परसों ही अखबार में पढ़ा था की एक नव निर्वाचित नेता को सहकारी समितियों के अध्यक्ष बनने पर मगज के लड्डूओं से तौला गया | हमने उनके चमचों से कहा, ‘’ लड्डूओं से ही तोलने की क्या जरुरत थी | उनकी जगह किलो रखकर तोल लिया होता , आखिर उनका वजन ही तो ज्ञात करना था |
वे हँसे और बोले , ‘’ भैया ,उन्हें बाबा रामदेव की योगशाला में थोड़ी न शिरकत फ़रमानी है बल्कि उनके वजन के बराबर का लड्डू का प्रसाद जन-जन तक पहुंचाना है ताकि लोगों की श्रध्दा उन पर कायम रहे |’’
  लड्डूओं का चलन तो प्राचीन काल से है | लड्डू बनाने –खाने का रिवाज विभिन्न पर्वों से है पर इन लड्डूओं का आधुनिक काल में तौर-तरीका ही बदल गया | असली घी वाले लड्डू चखने-देखने की बात छोडी , सूंघने को भी नहीं मिलते |
 हलवाइयों ने तो लड्डूओं की औकात ही बदल कर रख दी | बेसन के लड्डू के नाम पर आजकल मैदा के लड्डू उसी रंग-रूप में बना कर धड़ल्ले से बेंच रहे हैं | लड्डू फूटने और मुंह में जाने के बाद दिल की बगिया पर क्या असर डालते हैं , इसको सही मायने में पहचाना हमारे देश की चाकलेट – टाफिज निर्माता कम्पनियों ने | वे चाकलेट-टाफी  खाकर मन में लड्डू फोड़ने के बहाने लड़की फंसाने के सारे तौर-तरीके सुझा देती हैं | तभी तो मेरा छोटा बेटा अक्सर उसी चाकलेट की मांग करता है | मैं यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि उसके मन में कौन से लड्डू फूट रहे हैं |
  लड्डू खाने में मजा भी देते हैं तो सजा भी | परसों मेरे मित्र ‘’ शादी के लड्डू की बात कर रहे थे | कह रहे थे किजब तक नहीं खाया था , तब तक पछताता रहा |अब खा लिया तो पछता रहा हूँ |’’
 हमने कहा –‘’ क्या मीठे नहीं थे ?’’
 ‘’ अरे लड्डू मीठे नहीं रहेंगे तो क्या नमकीन रहेंगे ?’’
‘’ तो फिर आप क्यों पछताने चले ?’’
‘’ पारवारिक जिम्मेदारियों का बोझ सर पर इतना बढ़ गया है कि बोझ टेल दबाकर जीभ स्वाद पहचानने का गुण भूलती जा रही है |’’ उनकी आवाज में दर्द था |
 कभी-कभी हमारा स्वार्थ हमारे और भगवान के बीच संबंधों को बढ़ा देता है | लोग गणेश जी के मंदिर में जाते हैं और मनौती माँगते हैं ,’’ हे देव ! हमारा फलां काम सिध्द कर दो , सवा किलो का लड्डू का प्रसाद चढ़ाएंगे |’’
 गणेश जी यानि सिध्द विनायक ठहरे | अपने भोलेपन के कारण मात्र सवा किलो लड्डू के प्रसाद पर ही लट्टू हो जाते और उनकी मनौती पूरी कर देते | भले ही लोगो का मामला लाखों की हेराफेरी का हो |
 बहुत पहले एक मां अपने बेटे को सीने से लगा का खिलाती हुई अक्सर कहती ,’’ मेरा बेटा लड्डू जैसा गोलमटोल , सुन्दर है | धीरे-धीरे उस बच्चे का नाम ही लड्डू पद गया | आजकल भाई जी इलाके में अपने असली नाम से भले ही न जाने-पहचाने जाते हों परन्तु उन्हें लड्डू के नाम से हर कोई जानता है अत: लड्डू सिर्फ स्वाद या मनौती पूर्ण होने का आधार ही नहीं है बल्कि नाम देने का आधार भी है
     सुनील कुमार सजल 

व्यंग्य –ऐतिहासिक पुल


व्यंग्य –ऐतिहासिक पुल


रूढ़िवादिता आज भी कायम है|
जब नगर के करीब की नदी में पुल बन रहा था |पुल को लेकर किस्म किस्म की चर्चाएँ व्याप्त थी | पुल तो पुल था |पर चर्चाओं के भी पुल बनाते जा रहे थे |माताएं घबरायी-सी थी |
‘’ देखो ,पुल बन रहा है |तनिक बच्चों का ख्याल रखना | यहाँ-वहां घूमने न देना | वरना पकड़कर ले जायेंगे पुल बनाने वाले |’’
  आखिर पुल के साथ बच्चों का क्या सम्बन्ध | पर कुछ अन्धविश्वासी माताएं डरी सी हैं |एक दूसरे को बताती-सी | अंध-विशवास जगाती |कहते हैं – ‘’पुल बनाने वाले जब तक पुल के नींव में बलि नहीं देते | पुल नहीं बन सकता |किसी न किसी बहाने ढह जाता है |इसलिए अपने बच्चों का ख्याल जरूर रखना |’’ इस तरह की चर्चाएँ आम है | उसी तरह जैसे पढ़े-लिखे लोगों के बीच भी आम हो जाती हैं ‘’घर के दरवाजे पर नाग का चित्र बनाओ | वरना आनिष्ट हो जता है ‘’ जैसी अफवाहें |
  चलिए बनाते पुल की और चलते हैं | पुल बनाने की तैयारी में जुटा है ठेकेदार |
   पुल बनने के पहले कितने  ही नेता आए | शिलान्यास हुआ | किस नेता ने कितने बार शिलान्यास किया इसका पता तो है ,ऐसा लोग कहते हैं |’’ यह एक ऐतिहासिक पुल बनेगा ‘’
कैसे?क्या नेता के नाम पर या नदी के के साथ जुड़े इतिहास के नाम पर |’’ हमने कहा |
वे हँसे और बोले –‘’ ‘’ यार नदी का इतिहास तो हमें भी पता नहीं तो आपको क्या बताएं |’’
 ‘’ फिर आप किस मसले से जुड़े इतिहास की चर्चा कर रहे हैं |
‘’ जानते हो | चाहो तो इसे गी.के. के रूप में याद भी रख सकते हो | हो सकता किसी प्रतियोगी परीक्षा में इसके बारे में पूछ बैठे आजकल ऐसे ही अटपटे प्रश्न पूछे जाते हैं |’’
 पहले इतिहास तो बताइये जिसे हमें याद रखने को कह रहें हैं आप |’’
‘’इस पुल को प्रदेश के चार शासन काल में कम से कम दस मंत्रियों ने शिलान्यास किया होगा | तब जाकर ग्यारहवें मंत्री के शिलान्यास के बाद पुल बनाना प्रारम्भ हुआ है |’’
‘’ वाकई यह तो रोचक जानकारी है | एक पुल के निर्माण के लिए ग्यारह मंत्रियों का शिलान्यास ....| कहीं यह मजाक तो नहीं |
‘’ यार, तुम्हें तो हर बात मजाक लगती है |फलां-फलां पार्टी के लोगो से पूछ लें | तुम्हें मालूम होना चाहिए एक पुलिया के उदघाटन के लिए जिले के दो विधायक आपस में लड़ सकते हैं तो यह तो पुल है जिसका निर्माण करोड़ों में होना है |
  एक दिन एक व्यक्ति ने एलान किया ‘’ जिस दिन यह पुल बनकर तैयार होगा सबसे पहले मैं इस पुल से छलांग लगाकर दिखाउंगा |’’
‘’क्यों ?‘’
‘’ इतिहास बनाने के लिए ...|’’
‘’ छलांग लगाओगे तो मर जाओगे ...तुम खुद ऐतिहासिक हो जाओगे |’’
‘’ नाम कमाने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता ...|’’
खैर..| पुल निर्मित होने के पहले ही उन्हें हार्ट अटैक हो गया |और वे चल बसे | आँखों का सपना आँखों में धरा का धरा रह गया |
अब तो पुल लगभग बनकर तैयार है |
 मगर युवा पीढी समझदार है | वह उनके जैसे लोगो का सपना पूरा करने में दिलचस्पी दिखाती है | जो इतिहास बनाने का एलान करते हैं |
कुछ युवा जोड़ो ने इस पुल से छलांग लगा कर अपनी जान गवायीं |आजकल युवा लोग प्यार असफल होने या घर में  अनबन होने के बाद मरने यहीं आते हैं | कुछ किस्मत वाले होते जो छलांग लगाने के बाद अपनी इच्छानुकूल मर जाते हैं | कुछ बदनसीब जो छलांग लगाने के बाद बाख निकलते हैं, पुल व पुल के ठेकेदार को गाली देते हैं कि पुल के धरातल पर ऐसा निर्माण क्यों नहीं किया जिससे वे टकरा कर मर जाते |
  आजकल यह पुल डैथ स्पॉट के नाम से प्रसिद्ध है |वहां मरने वालों की याद में कोई मेला वगैरह तो नहीं लगता |एक अंधविश्वास जरूर व्याप्त है | ‘’ अमावस या पूर्णिमा की रात में वहां भूतों का मेला लगता है |’’
  अधिकतर पुल वैसे भी चर्चा में रहते हैं |या तो टोल टैक्स वसूली को लेकर या फिर मनचलों के दोनों किनारों पर खड़े रहने ,पुलिस वालों की शहर इंट्री के नाम पर अवैध वसूली को लेकर या फिर ठेकेदार व अफसर की मिलीभगत से बरसात में पुल के बह जाने को लेकर |   अभी हमारे नगर को जोड़ने वाला पुल बहा नहीं है | बरसात भी गुजरी नहीं है | बरसात गुजरने के बाद पता चलेगा ठेकेदार व अफसरों के कितना जोड़ हुआ है |
         सुनील कुमार सजल 

रविवार, 6 सितंबर 2015

व्यंग्य -पर्चा लीक होने की ख़ुशी


व्यंग्य -पर्चा लीक होने की ख़ुशी

परीक्षा का दौर जारी रहे और एकाध विषय का पेपर लीक हो जाए | कभी – कभी ऎसी बड़ी सुखद घटना होती है |प्रशासन को भले ही इस घटना से गुस्सा आए , टेंशन हो | हायर सेकेण्डरीपरीक्षा का स्वाध्यायी छात्र मुन्नूलाल के लिए आज का पर्चा लीक हो जाना सुखद समाचार है | वह पर्चा लीक होने से तनिक भी निराश नहीं है | पर्चा लीक हुआ तो प्रशासन उसे निरस्त तो करता है | हो जाने दो, क्या बुराईहाई |
मगर उसकी प्रेमिका को बड़ा दुःख हुआ |’’ काहे को कर देते हैं पर्चा लीक | अगर लीक किए थे तो दबा  छुपा के काम निकाल लेते | पर इन औंधी खोपड़ी वालों को जाने कब समझ आएगी | यहाँ हमारे देश में बड़े-बड़े अपराध दब जाते हैं | एक पर्चा की लीक होने की घटना को नहीं दबा सके |’’ दरअसल मुन्नू लाल की प्रेमिका रमिया को दुःख है कि उसके प्रमी की मेहनत बेकार गयी बेचारा रातभर पढाई करता था | ऐसा उसकी मां भी कहती है | आठ- दस कप चाय पीकर जगता था | पर हमें गुप्त खबर थी कि वह रातभर बेचारा बनकर नक़ल काटने व उन्हें सेट करने की जुगत में लगा रहता था | प्रमिका रमिया बेहद दुखी है | अपनी सहेली से दुःख व्यक्त कर रही है | ‘’ कितनी मेहनत की होगी मुन्नू बेचारे ने | इम्पोर्टेंट छाटने से लेकर गाइड पुस्तक की कटिंग कर उसे शरीर व् कपडे के हिस्सों में सेट करने में | ताकि उड़नदस्ता भी आ जाए परीक्षा में तो तलाशी के दौरान सूखे हाथ झारा कर रह जाए | पर चित न निकल सके | ऎसी-ऎसी जगह में नक़ल रखता है |फिर तो नक़ल सेट करने में गुप्त अंग बचते न सुप्त अंग |
बेचारा परसों कह रहा था | ‘’ अब हमसे पढ़ा नहीं जाता रानी | तुमसे या फिर तुम्हारी तस्वीर के ख़ूबसूरत चहरे से नजरें हेट तो किताब पर नजरें गड़ाएं| क्या करें नजरें हटाती नहीं | पढाई के नाम पर किताबें खुलती नहीं |येई से बारहवीं में दो साल फ़ैल हुए | तुम्हारे प्यार में हम ऐसे पागल हुए कि लोग कहते हैं ज्यादा पढाई करने से हम सनक गए हैं |’’
बेचारा मुन्नू परीक्षा में बैठ रहा है |इत्ती बहुत है | हम भी जानते है | मुन्नू ईममंदारी से पढाई करके पास नही हो सकता | हमने उसके खातिर चंद्रौल सर से संपर्क किया था | वे देहात के एक सरकारी हायर सेकेण्डरी स्कूल के मास्साब हैं | वे बहत सहयोगी व्यक्ति हैं | वे बारहवीं में अपने स्कूल में प्राइवेट परीक्षा के फ़ार्म भरवाने के भले ही पांच सौ की जगह पांच हजार लेते है | पर गारंटी के साथ कहते हैं | ऐन-केन प्रकारें इत्ती नक़ल तो करा देते ही देगें कि परीक्षार्थी पास होकर रहेगा | इत्ती तो उनकी गारंटी है | हमने उनासी इत्ती कहा –‘’ मास्साब पांच से कछु कम ले लो |’’ वे बोले – ‘’ लड़की पांच पूरे हामी अकेले की जेब में थोड़ी न जाता है | केन्द्राध्यक्ष, सहायक केन्द्राध्याक्ष , पर्यवेक्षक के मुंह में परसाद जैसा बुरकना पड़ता है | ‘’ हम भी सोचे | चलो गुरुओं को दान दे रहें हैं | सो दे दिए |
पेपर लीक होने पर प्रेमिका चिंतित है | मुन्नू को फिर उत्ताई मेहनत करनी पड़ेगी | गाइड , पॉकेट बुक्स , किताब फिर से खरीदना पडेगा | रातभर जागना सो अलग |
वह मुन्नू के पास पहुंची | बोली- सुन रे मुन्नू , भगवान वाकई तेरे साथ गद्दारी करता ही |’
 ‘’ का हुआ | काहे की, कैसी गद्दारी ?’’
पेपर निरस्त हो | फिर से तुझे उत्तई मेहनत करना पडेगा |’’
 तो का हुआ|’’
‘’ तू तो बड़े शेखी मारने के अंदाज में कह रहा है | तुझे जराभी दुःख नही है |
‘’ नही.....|’’
‘’काहे....’’?
 ‘’ मेरे दिल की रानी | कलेक्टर साब का उड़नदस्ता आ गया था | पूरे ढाई घंटे जमा रहा परीक्षा केंद्र में | हम कुछ नही कर पाए थे | कापी में | इसी बीच खबर मिली कि पर्चा निरस्त हो गया | अच्छा हुआ | हम तो भगवान व् गुरुओं को धन्यवाद दिए| सोचते रहे पहले काको लागून पाँव | रानी कई दिनों के बाद होगा यह पेपर | तब उड़नदस्ता का करेगा आकर | वैसे भी धुप भी तेज हो जाएगी | उड़नदस्ता के अधिकारी कूलर ,ए.सी. में बैठेंगे किचिलमिलाती धुप के बीच परीक्षा केन्द्रों में छापामारने जाएंगे |बता....|’’
  रमिया मुस्कुरा दी | बोली मैं तो टूट गई थी रे | तेरी मेहनत देखकर ...|’’
वह हंसा | और वह भी हंस दी |
   सुनील कुमार ‘’सजल’’

शनिवार, 29 अगस्त 2015

लघुव्यंग्य –विधायक जी के भाई लोग



लघुव्यंग्य –विधायक जी के भाई लोग

वे विधायक प्रतिनिधि बन गए , बड़े जलवे खीच रहे हैं |उनके ठाठ देखते बनते हैं |धमकाते रहते हैं अधिकारियों और कर्मचारियों को | जैसे खुद विधायक हैं | विधानसभा में जैसे इनकी बपौती चल रही हो  कल ही मार्केटिंग सोसायटी वाले तिवारी बाबू को धमाका कर आए थे –‘’ तिवारी जी हमारे किसान भाईयों को तकलीफ नही होंनी चाहिए | उन्हें पर्याप्त खाद-बीज दिलवाओ | देखो खाद-बीज बांटकर कुछ ले दे रहे हो की नही | देखो चूना न लगा देना अपनी सोसायटी को | ‘’
तिवारी बाबू समझदार हैं | वे अपनी सोसायटी का व मार्केटिंग सोसायटी का मतलब अच्छी तरह समझते है | आखिर इतने साल से तो वे सोसायटी के बीच ही तो जी पल रहे हैं | सोसायटी में रहकर ही बेरोजगार बेटे के लिए फोर व्हीलर खरीद लाए | फिर काहे न समझेंगे सोसायटी का मतलब |
साब, विधायक प्रतिनिधि ठाकुर जी बड़े चुस्त – चालाक जीव हैं |ठकुराई के पूरे गुण उनमें भरे हैं , वाही माल गुजारी के जमाने वाले | आज इनकी मालगुजारी नहीं रही तो क्या हुआ | आनुवांशिक गुण तो हैं उनमें | सो वे विधायक प्रतिनिधि बन बैठे | अभी वे इस दफ्तर से उस दफ्तर में कूद रहें हैं | ताकि लोग पहचाने | अभी तक वे डॉक्टर साहब के नाम से जाने जाते थे | दसवीं पास डॉक्टर हैं | दबी जुबान में कहें तो झोला छाप डॉक्टर | लेकिन वे झोला छाप डॉक्टर की तरह कभी नहीं पूजे गए | बल्कि शिक्षित डॉक्टर की तरह पूजे जाते रहे हैं | क्षेत्र में वे ही तो ऐसे डॉक्टर हैं जिसने जीतता रुपया इलाज के लिए दिया रख लिए | डाक्टरी के साथ राजनीति भी कर रहे हैं |
   जहां डाक्टरी के साथ राजनीति हाथ मिला ले | फिर काहे किसी का डर रहे |इलाज वे चाहे जैसा करें |
         वे  जनता को पुटियाते बहुत अच्छे से हैं –‘’ देखोप कक्का खीसा (जेब) में पैसा नई है तो नई रहने दो | हम तो इलाज करंगे | ठेका कर लो | फसल आए या मजदूरी मिले तो दे देना | दवा-दारू सब अपनी तरफ से लगाए देते हैं | आप ठीक हो ओ | स्वस्थ रहो यही हमारी अंतिम इच्छा है |’’ कक्का लोग खुश हो जाते हैं | और ठाकुर जी की कठौती में गंगा आ जाती है |
    विधायक साब को पता है ठाकुर साब ने उन्हें चुनाव में जीत दिलायी है | इसलिए वे उन्हें अपना प्रतिनिधी बनाने से नहीं चुके | ताकि उनके साथ ठाकुर जी भी बैंक में एकाध गुप्त खाता खुलवा लें |
  ठाकुर साब को इन दिनों डाक्टरी करने की फुर्सत नही है | मरीजों की भीड़ उन्हें ढूँढती रहती | फोन लगाती है | वे सही जगह , सही समय पर उपलब्ध नहीं हो पाते | कहते है९न –‘’ दादा इत्ते काम हैं , अपने साथ कि कहीं खाते हैं , कहीं सोते  हैं | ये दफ्तर से वो दफ्तर | इस पंचायत से उस पंचायत देखना पड़ता है | कहाँ कैसा काम चल रहा है | विधायक साहब तो ख़ास – ख़ास जगह जाते हैं | बाक़ी सब हम प्रतिनिधियों को देखना पड़ता है |
   जो काम उनके वश के बाहर का होता है | वह कार्य अपने विधायक साहब को सौंप देते हैं | विधायक साहब उन्हें देख लेते हैं | कई जगह ठाकुर साहब ने अपने नाम के प्रचार में कसबे में साइन बोर्ड लगा रखे हैं | साइन बोर्ड इसलिए लगा रखे हैं ताकि जनता को मालूम हो सके वे सिर्फ बीमारी के डॉक्टर ही नहीं है बल्कि समाज की हर बीमारी के डॉक्टर यानी डॉक्टरों के बाप हैं | ठाकुर साहब का एक फैशन है | वे हर समय गले में स्टेथोस्कोप लटकाए रखते हैं | जब वे मंच पर खड़े होकर गले में लटकते स्टेथोस्कोप के साथ माइक पकड़कर भाषण देते हैं , तब लगता है कि वे सचमुच में लोकतंत्र में व्याप्त हर बीमारी का इलाज करने को तैयार खड़े हैं |
  यूं तो डॉक्टर साहब ने अपनी डाक्टरी के सहारे गलत इलाज करके दो-चार मरीजों को निपटाया है | पर राजनीति के कफ़न ने मुर्दे को प्राकृतिक मौत से मरना सिद्ध किया | कौन उल्लू है जो उनसे पंगा लेगा | आजकल ठाकुर साहब के जलवे विधायक से ज्यादा है | आखिर विधायक जी कहते ही हैं –‘’ हम जितना नहीं कमाते उससे ज्यादा तो हमारे भाईई लोग कमा लेते हैं
                           सुनील कुमार ‘’ सजल’’

रविवार, 5 जुलाई 2015

व्यंग्य - परीक्षा का बूस्टर


व्यंग्य - परीक्षा का बूस्टर 


साब ,इन दिनों सरकारी स्कूलों के परीक्षा परिणाम को लेकर शासन -प्रशासन में चिंता व्याप्त है। परिणाम अच्छा करने के लिए किस्म-किस्म के अभियान। किस्म -किस्म के आयोजन। तरह के प्रश्न बैंक उपलब्ध जा रहे हैं। स्कूलों को। ताकि शिक्षक काबिल बनें। छात्रों को काबिल बनाये। 

चाहे जैसे भी हो। परिणाम सुधरे। स्कूलों के डंडा पटको। नियम कानून व कार्यवाहियों के। 
चलो मान लेते हैं। ऐसा करने से थोड़ा बहुत परिणाम सुधर भी जाता है। शासन -प्रशासन पूरी की तरह फूल कर जायेंगे। परीक्षा परिणाम में वृद्धि हुई। 
शासन परिणाम सुधारने हेतु किस्म -किस्म के विषयों के मास्टर ट्रेनर्स तैयार कर शिक्षकों को प्रशिक्षण दिल रहा है ट्रेनिंग ऑन स्कूल करावा रहा है। ताकि शिक्षक पढ़ाएं व छात्रों में पढने की ललक जागे। ऐसे ही एक ट्रेनर्स उनके स्कूल में आये। वे माइंड पावर पर ट्रेनिंग वाले ट्रेनर्स थे। ताकि छात्रों में याद करने की व सीखने की क्षमता में वृद्धि हो। वे दे गए तरह -तरह के माइंड पॉवर टिप्स 
साब, आप जानते ही हैं ,आजकल कितने प्रतिशत छात्र अध्ययन में रूचि दिखाते हैं।कुछ को तो गांधी मार्ग पर पर खड़े होकर कन्याओं को ताकने से फ़ुरसत नहीं मिलती। एक तरफ़ा प्यार का उबाल होता है उनके अंदर। एक झलक उनकी चहेती दिख जाए सुबह -सुबह। सारा दिन एनर्जिक होता है.
आजकल ज्यादातर प्यार एक तरफ़ ही चल रहें हैं साहब। उन माइंड पावर के ट्रेनर्स ने एक टिप्स दिया था। माइंड को संदेश देकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इसी बीच पूछा था -' हमें क्या करना होगा।'ट्रेनर ने कहा था -'इसके लिए सबसे पसंद के कलर पेन से लक्ष्यों की लिस्ट बनाइये। ऐसे स्थान पर लगाइये जहां तुम्हारी नजर सबसे ज्यादा पड़ती है। ताकि ज्यादा बार देख सके ,पढ़ सके और मन ही मन आग्रह करो कि वह लक्ष्य हमें मिल जाये। यह क्रम लगातार कई दिनों तक अपनाइये। निश्चित ही सफलता मिलती हुई देगी। '
साब ,ट्रेनर साब की सीख तो अच्छी थी और मकसद भी। पर मनचले ,दीवानों के लिए और भी अच्छा था।कारण कि उनके लिए शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण उनकी प्रेमिका थी। 
सो वे एक सुन्दर पेपर पर सुन्दर अक्षरों में प्रेमिका का नाम व मोबाईल नंबर सजा कर अपनी कॉपी में रख लिए। वे उसे दिन में दर्जन भर बार से अधिक देखते व पढ़ते हैं। 
ट्रेनर की सीख यह भी थी। जिस दिशा में लक्ष्य प्राप्त करना होता है। उधर मेहनत भी आवश्यक है। सो तथाकथित प्रेमी भाई कन्याओं की गलियों में भी चक्कर भी लगाते दिख जाते हैं। 
साब वे तो लक्ष्य प्राप्ति पर व्यस्त हैं। ट्रेनर साब के टिप्स कितनी सफलता दिलाएंगे। यह तो बताएगा। फिलहाल तो शासन-प्रशासन परीक्षा परिणाम अच्छा आने के सपने संजोये बैठे हैं। देखते है किसका लक्ष्य किस दशा में फिट बैठता है। 

व्यंग्य -मोटे को मोटा कहना


व्यंग्य -मोटे को मोटा कहना
व्यंग्य - मोटे को मोटा कहना

इन दिनों , साब हमारे मोहल्ले में मोटापा घटाने मौसम आया है। लोगों को छत या आँगन में सुबह -सुबह पसीने बहाने वाली कसरत करते देखा जा सकता है। उल्टा-सीधे हाथ- पाँव घुमाते लोग। धुकनी की तरह चलती सांसे। 
कोई बाबा श्याम देव का अनुयायी तो कोई योगानंद का। योग गुरुओं की योगा क्लास। सुसज्जित कक्षों में। आकर्षक नाक -नक्श वाले गुरु। तन पर आधुनिक फैशनेबुल लिबास।हल्का मधुर संगीत। म्यूजिक आधारित योग। इधर हाथ हिलाओ ,उधर टाँग पटको। पर मोटापा?
''यार ये मोटापा कम कैसे होगा ?लगता है जान के साथ ही जायेगा। ''योग से थके -हारे लोगों का दर्द। 
''आप तो टेकानन्द जी की कक्षा अटेंड कर रहे हैं न। वह भी छह माह से। ''
''देख तो रहे हो ,छह किलो वजन नहीं घटा,ऊपर से उपवास ,अरुचि कर भोजन। ''
''वो क्या कहते हैं आपकी समस्या पर। ''
''कहते हैं करते रहो। और ऊपर से कबीर का ''करत -करत अभ्यास के …''वाला दोहा सुनाने लगते हैं। उन्हें कहें भी तो का। फीस देकर भी हम वहीँ खड़े हैं। '' 
''हमने समझाया- ''धैर्य रखो , सफलता मिलेगी ' 
'कब तक धैर्य रखें ?लोग कहते हैं ,धनी लोगों को मोटापा घेरता है। इधर तो मोटापा घटाने के फेर में कंगाल हुए जा रहे हैं। ''वे दर्द में डूब कर बोले। हम खामोश। 
मेरे एक मित्र हैं। यूँ तो वे मोटे हैं। इतने मोटे की चार कदम चलें तो हांफने लगते हैं दया भी आती है उन पर ,गुस्सा भी। दया इसलिए की मोटापा उन्हें भारी तकलीफ़ देता है। गुस्सा इसलिए की हराम का खाने को मिला तो चक्की की तरह उनका मुंह हमेशा खुला रहता है। यूँ भी हराम का खाने को ज्यादा तकते हैं। कहते हैं -''कोई प्यार से खिलाये तो खाने खाने में क्या तकलीफ़ है। सामने आई थाली को लात मारना यानि अन्नपूर्णा माँ को नाराज़ करना है। इसलिए भैया अपन डकार हैं। '''
वे डकारते भी ऐसे नहीं कि थोड़ा बहुत खाकर मुंह जूठा कर लिया। पेट का कोई हिस्सा खाली न रहे ,ऐसा ठूंसते हैं। 
एक बार हमने उनसे कहा -''दोस्त थोड़ा कम खाया करो। मोटापे पर अंतर आएगा इसकी तकलीफों से राहत मिलेगी।''
''यार तुम्हें क्यों तकलीफ़ होती है। हमारे खाने से खिलाने वाले अपने को बहुत मौजूद हैं। वे आह नहीं करते खिलाते हुए ,आप क्यों हैं। '
यूँ तो वे दफ्तर के बड़े बाबू हैं। स्वाभाविक है ,उन्हें खिलने वाले बहुत हैं। कुछ लोग यह कहकर भी खिला देते हैं। ''बेटा अभी जिता खाना है खा ले। जब ब्लड प्रेशर व डायबिटीज़ हाई लेबल पर पहुंचेगा। उस दिन खाया हुआ सारा याद आएगा। जब डॉक्टर को खिलायेगा। 
एक बार एक नया व्यक्ति दफ्तर आया। शायद उसे उनका नाम नहीं मालूम था। एक से पूछ बैठा -''वो साब कहां बैठते हैं ?''
''कौन साब। ''
''वो जो मोटे है। ''उसका इतना बोलना था कि पीछे से मोटे साब यानि यादव जी आ टपके सुन लिया। उन्होंने उसकी बात को। 
''क्या बात है ?''एक कड़क आवाज़ के साथ जी। 
''सर !आपसे ही काम था। ''
'' तुम मुझे मोटा साब कह रहे थे। ''
''सर ,दरअसल आपका मुझे आपका नाम नहीं मालूम था। ''
''नाम नहीं मालूम तो कुछ भी कह दोगे।
''क्षमा करें सर। ''
''क्या क्षमा करें। ''यादव जी अपने साथियों के तरफ मुखातिब हुए। बोले -'' ऐसे ही बेहूदे लोगों के कारण मेरा मोटापा बढ़ा है। ''
''ये क्या कह रहे हैं यादव जी ,आपके मोटापे के साथ उस बेचारे का क्या सम्बन्ध है। ये तो आपको जानता तक नहीं। ''
''जानता नहीं इसलिए दोषी है। ''
''मतलब। ''
''नाम नहीं मालूम तो कह दिए मोटे। इन लोगों को कैसे समझाएं की मोटे लोगों को मोटा कहना कितनी बड़ी भूल है। असभ्यता है। कितना बड़ा नुक्सान है इससे। ''
''नुकसान तो समझ में नहीं आता ,बदनामी ज़रूर होती है। ''प्रणव जी ने कहा। 
''बदनामी गयी घास चरने। ''
''असल में आप क्या कहना चाहते हैं। ''
''हाल में एक रिसर्च सामने आया है मोटे लोगों को मोटा कहने से और बढ़ता है मोटापा। ''
'' यार रिसर्च तो कई आते रहते हैं। जैसे कोई कहता है ज्यादा खाने से मोटापा बढ़ता है,तो कोई कहता है कम खाने से। अगर आपकी बात सच हैं तो सभी भाइयों मुझे मोटा कह कर बुलाये , काहे की मैं सिगरेटिया साइज का हूँ। ताकि मैं भी थोड़ा मोटा हो जाऊं। ''
बड़कुल जी की बात यादव जी की बात पर यादव जी चिढ़ गए। 
''यार बड़कुल ज्यादा न बनों ,वरना हम बिगड़ गए तो…… बनना भूल जाओगे। '' लोगों ने इशारा किया। वे समझ गए कि यादव जी को बुरा लगा है। 
समझाने पर यादव जी भी खामोश हो गए। 
मगर ऐसे रिसर्च को क्या कहें जब वे कहते है चित भी मेरा पट भी .... । 
सुनील कुमार 'सजल'

रविवार, 28 जून 2015

व्यंग्य – उनके नयना


व्यंग्य – उनके नयना

अभी तक तो हमें पता नहीं था कि उनके नयना भी दगाबाजों में से एक हैं |वरना हम खुद घमंड  में चूर थे किदगाबाजी में हम सबसे बड़े हैं |वो तो हमें आज पता चला था की उनके नयना भी दगाबाजी करते हैं |वो तो अच्छा हुआ पागलों की तरह शक्ल लिए एक प्रेमी साब मिल गए |-‘’ वे बताने लगे ‘’उनके नयना को क्या कहें बड़े दगाबाज हैं |हम तो सिर्फ़  उनके नयनो को ताकते रहते अगर दिख जाएँ तो |मगर कमबख्त पत्थर दिल  नयना हैं की हमारी और देखते तक नहीं |हम आज पछताते हैं | क्यों वे एक बार हमें टकटकी लगाकर देख गेट | तब से बचें हैं हम |एक बार हमारे नयनों  ने हमें समझाया क्या पागलों की तरह हमें उनके नयनों को ताकने  के लिए मजबूर करतें हैं |तनिक सोचो नयनों से ये करने के लिए शक्ल व् सीरत की आवश्यकता होती है है |वो दोनों चीज तुम्हारे पास नहीं हैं|हम भी करें बेशरमों की भाँती दिल नयनों को ताकने के लिए मजबूर रहते हैं |गाते फिरते हैं `-बड़े दगाबाज रे ....तोरे नयना ..|’
  यार ये नयना भी अजीब चीज हैं | आदमी की जुबान दगाबाजी की किस्से सुने हैं |पर अब नयना..भी |जबसे सूना है नयना भी दगाबाज होते हैं नींद हराम हो गयी है |कहीं ऐसा  तो नहीं की लेखको/कवियों ने उनके नयनों की ज्यादा तारीफ़ कर दी हो |इसलिए वे घमंड में चूर होकर दगाबाजी में उतर आए हों |या फिर फिल्म निर्माताओं ने ज्यादा महत्त्व दे दिया हो अपनी फिल्मों में |
हमारे जी में आया उस लड़की को सजा मिले | जिनके नयना दगाबाज हैं  और हम जिनकी दगाबाजी झेल रहें हैं |पर अन्दर के साहस ने जवाब दे दिया |कहीं झिड़क न दे  |
 उस लड़की के ही नयना दगाबाज हैं या एनी लड़कियों के भी जिनकी और हमने कभी नजर उठाकर भी नहीं देखा |कवियों ने अपनी कविताओं में उनके नयनों को दगाबाज बताया है |क्या वे भी उनके नयनों के शिकार हुए या यूँ ही लिख मारे अपनी प्रसंशा पाने के लिए | सवाल पर सवाल पर उठ रहे हैं मन में | हो सकता है रंजिश वश भी हो एसा लिखना |
एक दिन हमारे मित्र ने हमें समझाया –‘’ यार तुम उनके नयनों के पीछे क्यों पड़े हो ?और भी तो लड़कियां हैं जिनके नयना ख़ूबसूरत हैं |’’
‘’ यार उनके नयना में जो विशेसता है वह एनी में नहीं है |’’ ‘’ यार दुनिया में निकल कर देखो | उससे भी बेहतरीन नयन मिलेंगे |जिनके लिए शायरों ने शायरी यान लिखकर जान कुरबान कर दी |
हम उन्हें कैसे समझाते कि जब दिल लग जाता है मेंढकी से तो वह भी किसी पारी से कम खूबसूरत नजर नहीं आती |
 वैसे वह लड़की ऐसी तो नहीं लगाती वह दगाबाज है | मोहल्ले में उसके चर्चे भी आम नहीं है |अब अगर उसके नयना ही दगाबाज निकल गए तो लड़की क्या करे |
     सुनील कुमार ‘’सजल’’