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रविवार, 28 जून 2015

व्यंग्य = झाडू को लेकर राजा की चिन्ता


व्यंग्य = झाडू को लेकर राजा  की चिन्ता



इन दिनों प्रजा अनोखे ढंग से पेश आ रही है |हाथों में झाडू दिख रही है |पिछले दिनों रजा राज्य भ्रमण पर निकले थे |उन्होंने देखा कि जनता के हाथों में तीर है न कमान, तमंचा ,लाठी ,बल्लम तलवार ,फरसा |हर जगह झाडू है | राजा  निराश हुए | गुप्त यात्रा से लौटकर महल में आए | मंत्रियों को बुलाया बैठक ली |पूछा –‘क्या बात है हमारे राज्य की जनता की मति घूम गयी है |हाथ में हथियार की जगह झाडू लिए फिर रही है |जबकि सबको मालूम है, हमारा राज्य दुश्मन के प्रदेशों से घिरा है |कभी भी हम पर हमला कर सकता है |राज्य के अन्दर दुश्मनी के परिणाम स्वरूप आतंकी घटनाएं जब-तब घटती रहती है | इतना जानने के बावजूद ना समझ जनता हाथ में हथियार की जगह झाडू लिए हुए है |
मंत्री ने समझाया | बोला- ‘महाराज जनता की सोच है कि समाज की कुरातियों का सफाया किया जाए | राज्य को स्वच्छ बनाने का सपना देख रहे हैं |’
‘ इससे क्या होगा ? दुश्मन दर जायेंगे ?’राजा  तनिक चिढ़कर बोले |
‘’ डरेंगे नहीं |पर राज्य  में स्वच्छता ,भाईचारा का वातावरण पैदा होगा | ‘ मंत्री ने धैर्य से उत्तर दिया |
‘’ यार ये स्वच्छता ,सदाचार से देश नहीं चलता | देखा नहीं है क्या ? पड़ोसी राज्यों में कितनी गंदगी है | वहां की गन्दगी यहाँ प्रवाहित हो रही है फिर भी क्या लोग नहीं जी रहे हैं |’’ राजा बोले |
‘’’महाराज, बात यह है कि सरकार का धन का बहुत बड़ा हिस्सा स्वच्छता के मायने समझाने में चला जाता है |जो व्यर्थ का खर्च है |अगर जनता स्वप्रेरना से स्वच्छाता के प्रति जागृत हो रही है तो क्या बुरा है |’’ मंत्री बोला |
‘’ यार उन्हें झाडू की जगह हथियार पकडाओ |’ मंत्री की बात पर राजा चिढ गया | आगे बोला-‘ इधर पड़ोसी राज्यों की बेजा हरकतों से नींद हराम है | हम ऐशोआराम नहीं कर पा रहे हैं |चिंताएं हमें पानी में शक्कर की तरह घोल रही है | तुम्हें स्वच्छता की पड़ी है |’’
‘’ महाराज क्या है कि जनता की सोच ठीक है | वह भ्रष्टाचार , रिश्वत, खोरी मक्कारी , लूटपाट ,अपहरण , बलात्कार जैसी गन्दगी के खिलाफ है | इसलिए जनता को अपना काम करने दें | अपना –अपना काम करें | ‘’मंत्री ने पुन: जनता के पक्ष में अपनी बात रखी |
‘’ देखो मंत्री जी, फालतू टाइप बात न करो | हमारी सुनो | किसी भी राज्य में थोड़ी बहुत अराजकता होना आवश्यक है | तभी दुश्मन दरकार रहता है | सीधे-सादे नैतिकवादी लोगों पर हर कोई हमला कर देता है | पड़ोसी राज्यों में फैली अराजकता को आप भी जानते हो |जिसका परिणाम हम भुगत रहे हैं |पड़ोसी राज्यों में फैली अराजकता को आप भी जानते हो |जिसका परिणाम आप  भुगत रहे हैं |अगर वैसी अराजकता अपने राज्य में रहेगी उअसका असर उनके राज्य तक भी जाएगा न | ‘’ राजा ने अपनी सोच स्पष्ट की |
 वैसे भी अधिकतर राज्यों में रजा की मति हमेशा उलटी ही काम कराती है | उसके गुरुर के अंधेर का असर पूरे राज्य पर होता है |रजा को अपना स्वार्थ पहले दीखता है उसका मानना है , उसके कर्मचारियों में भ्रष्टाचार ,बलात्कार , रिश्वतखोरी , लूटमार वाले गुण होंगे तो उसका असर जनता पर पडेगा | नतीजन जनता आन्दोलन पर उतारेगी | शासन उन्हें बन्दूक की नोक से दबाएगा | जनता में भय का वातावरण फैलेगा | सर्कार अपने ढंग से शासन करेगी | अपने आदेशों का सख्ती से पालन करवाएगी | रजा का भय यह भी मानना होता है कि भीरु व सीढ़ी साडी जनता राज्य के लिए  घातक है |वह चाहे जैसे भी आक्रमण हों , मन से आतंकवादी नहीं बन सकती | विदेशी भूमि में आंतक नहीं फैला सकती |बल्कि भय व्याप्त होकर राजमहल की तरफ आसरा व रक्षा क्र लिए दौड़ लगा देगी | फिर रजा की सरकार किस-किस की रक्षा करेगी | खुद की? परिवार की या फिर जनता की ? झाडू पकड़ने वाले हाथ कतई हथियार संचालित नहीं कर सकते | अत: जनता के हाथों से झाडू –माडू  को अलग कर हथियार साधना आना चाहिए |
 मंत्री परेशान है | राजा  को कैसे समझाएं | जनता हथियार की बजाय झाडू पकड़कर खुश होती है | उसे झाडू लगाने में ज्यादा आनंद आता है | मीडिया वाले भी झाडू लगानेके  कार्यक्रम पर ज्यादा कवरेज करने पर उत्साहित नजर आते हैं | यहाँ उन पर घातक हमला हिने का खतरा कम रहता है |वे हथियार वाले हाथो की खबरों को दिखाकर जनता का बेवजह का समय बर्वाद करते हैं | ऐसा जनता का मानना है |
राजा मंत्री की हर समझाइश को नकार रहा है | वह राजा है |वह आदेश पर आदेश प्रसारित कर रहा है | जनताके हाथों से झाडू छुडाओ हथियार पकडाओ |आजकलसत्ता  हथियार के दम पर चलती है
सुनील कुमार ‘’ सजल 

रविवार, 21 जून 2015

व्यंग्य – सट्टे बाजों के लिए


व्यंग्य – सट्टे बाजों के लिए

एक कमरा| घर के भीतर | बंद कमरे में वे दोनों बैठे हैं |कुछ करते से लग रहे हैं |बल्ब के उजाले में व्यस्त |दोनों के बीच चार्ट नुमा अखबार फैला है |अखबार में छपे अंक से भरे चौखाने  | दोनों अंक पर नजरें दौड़ा रहें हैं | कभी इस खाने पर कभी उस चौखाने पर |गणित पर गणित लगा रहें हैं |
‘’यार देख, ये अंक अभी तक नहीं आया |’’ एक सट्टे बाज |
‘’ जरुरी है का येई अंक आयेगा |’’ दूसरा सट्टेबाज ने कहा |
‘’ अबे रमलू बता रहा था , क्लोज में आ सकता है वो छोटा सट्टेबाज है का ?आए दिन चुकारा( भुगतान) लेता है |’’
‘’ चल तेरे ही मान लेते हैं | पर यार...अपना लक रमलू जैसा नहीं है | साला वो तो हमेशा फायदे में रहता है |अपन तो ठगे जाते हैं |साली अपनी  किस्मत जाने कब लखपति बनाएगी |’’
‘’येई सपना अपन भी देख रहें हैं |येई से तो इसमें लगे हैं बॉस |’’
‘’अंक निकालने का कोई तरीका  हाथ लग जाता न बॉस तो का कहने ...|’’ वह जबरन चेहरे पर ख़ुशी लादते हुए कहा |
‘’ सच्ची , अगर एक बार लंबा सट्टा लग जाता न हम तो सबसे पहले लक्ष्मी मैया के मंदिर में दो किलो का प्रसाद चढ़ाते |’’
‘’ अबे  लाख रुपया पाने की ख़ुशी में  भगवान को दो किलो का प्रसाद ...भगवान को ऊल्लू बनाएगा |’’
दोनों हंस पड़े |
‘’ का है.. भगवान को प्रसाद की क्या जरुरत |अबे उनको ज्यादा खिलायेंगे न तो  तेरी तरह उनका भी पेट खराब रहने लगेगा |’’ और दोनों मजाक के मूड में खिलखिला दिए |
  सट्टा और अंधविश्वास का गहरा सम्बन्ध है | जैसे सावन में बूंदों  की झड़ी |
 परसों की बात है | वे चाय की दुकान में बैठे थे | तभी उनकी नजर आपस में टकराई मोटर साइकिल पर पड़ी |एक सवार तो वहीँ लुढ़क गया |दूसरा सवार गाडी पर बैठा रहा |
एक सट्टेबाज ने कहा –‘’ देख बे ! वो जो मोटर साइकिल खड़ी हैं उसका नंबर देख के आ |’’
‘’ अबे गाड़ी का नंबर का करेगा | थाने में रपट लिखाना  है का |’’
‘’ अबे रपट वपट  नही... आज उसी से सट्टा नंबर निकालेंगे ..और का |’’
दूसरा उठा और गाड़ी का नंबर नोट कर लाया |
‘’ अब बता इसका का करें |’’
‘’ देख चार अंक हैं न ...इसकी जोड़ी बना लें |और लगा दें |’’
‘’ये अंक आ सकते है |’’
‘’ यार तुम रहोगे बुद्धू के बुद्धू | कई बार ऐसी घटनाओं के अंक ही फलित होते हैं | परसों का नहीं मालूम | अपन आम के पेड़ के नीचे से गुजरे थे | चार आम टपक कर गिरे थे | अपन ने उसी आधार पर डबल चौका लगाया था | आया था न वह अंक |
‘’ तुम बड़े दिमाग वाले हो बॉस |’’दूसरा खुश होकर बोला |
  आजकल सट्टाबाजों के लिए हमारे लेखक भाई भी मदद में जुटे हैं | तरह तरह की किताबें लिख रहे हैं | मसलन सट्टा अंक कैसे निकालें | सट्टा अंक निकालने के एक सौ एक गुर |सट्टा अंक की सटीक जोडियाँ राशी व दिन के अनुसार |वगैरह|
  सट्टाबाजों को ये किताबें कितना लाभ पहुंचा रही हैं  ये तो सट्टेबाज का दिल जानता है |हाँ मगर किताब लेखक अपनी कृति का मार्केट में सट्टा लगाकर जरुर लखपति बन गए |
हमारे पड़ोस में एक सयाने दादा हैं |वे सट्टा अंक निकालने के लिए अदभूत तरीका  अपनाते हैं |रास्ता चलते उन्हें यदि  नई छोटी लकड़ी (छड़ी ) मिल जाए तो उसे अंगुली से नापकर फिर सट्टा अंक  निकालते हैं | वहीँ दीनदयाल जी आसमान में उड़ते पक्षियों के झुण्ड देखकर निकालते हैं
पिछले दिनों हमने एक सटोरिये से पूछा –“क्या बात है की अधिकाँश सट्टे बाजों के अंक फेल हो जाते हैं |
वह हंसा  | बोला –‘ मेरे भाई यह सट्टेबाज भाइयों को साक्षात् में करोडपति बनाने वाला धंधा नहीं है | बल्कि सपने में करोडपति बनाने वाला धंधा है | अगर सटोरिया सबको करोडपति बनाने लगा तो फिर देश में धंधा कहाँ रह जाएगा |’
सट्टेबाजों व् सटोरियों की दुनिया पूरी तरह अलग होती है उनमें मित्रता  , प्यार इतना अधिक होता है | मानो वे एक दूसरे के पागल प्रेमी हैं | खबरिया चैनलों की तरह सुबह दोपहर शाम व रात   में खबर शेयर करते नजर आते हैं |’’ आज किस अंक की जोड़ी बनी ? कल के लिए  अंक तो बता | यार आज हजार रुपये का चूना लग गया | कल देखता हूँ कैसे नहीं आती जोड़ी ? भगवान् भी न कई बार परीक्षा लेता है |भाई जी मैंने कल के लिए जबलपुर व रायपुर से जोड़ी मंगवाया है | इत्यादि |
खैर छोडिये  दोपहर के तीन बज रहे हैं | आता होगा फोन से आज का सट्टा अंक सटोरियों की नगरी से  | चलो देखते हैं  कल्लू सटोरिया के घर के पास सट्टेबाजों में कैसी हलचल है |

मंगलवार, 16 जून 2015

व्यंग्य-भोले बाबा का त्रिशूल



व्यंग्य -भोले बाबा का त्रिशूल 

देश में चमत्कारों की जड़ें बहुत गहरी हैं चमत्कारों को नमस्कार है। जहाँ चमत्कार है ,वहीँ नमस्कार करने वालों की भीड़ है भीड़ चाहिए तो चमत्कार करिए। वरना भीड़ तो भीड़ होती है जिसकी सोच में दिशा का कोई स्थान नहीं। बस जहाँ चमकदार चीज दिखी दौड़ पड़ी उसी ओर। 
कस्बे का एक एक मंदिर। खंडहर नुमा। भक्तों को यूँ भी फ़ुरसत नहीं कि मरम्मत करा दें। चंदा वसूलने वाले भी बेसुध हैं उस ओर से। 
वह मंदिर भोले बाबा का है। खंडहर नुमा। साल में सावन के महीने व महाशिवरात्रि तथा ऐसे ही एक दो आयोजनों में। वहां फूल-प्रसाद ,पानी इत्यादि चढ़ा देते हैं। वरना बेचारे भोले बाबा भोले लोगों की तरह ही भोले बने पड़े रहते हैं। काहे न पड़े रहें। लोगो के जब जी में आता है। नदी नदी -तालाब से अंडा कार अंडा कार पत्थर है। और गली -चौराहे व में बिठा देते हैं। इत्ते सारे स्थापित शंकर जी की अगर पूजन करने बैठे तो दिन भर भोले शंकर के स्थापित स्थानों से ही उन्हें फ़ुरसत न मिले। वैसे भोले भंडारी के साजो- सज्जा वाले दो तीन मंदिर हैं कस्बे में। वहां भक्तों की भीड़ होती है। इधर खंडहर में बिराजे मूर्तिवत भोले को कौन पूछता है। 
उस दिन चमत्कार हो गया साब। जब खंडहर नुमा मंदिर में विराजे भोले का त्रिशूल हल्का कंपन कर हिलने लगा। देखने में लग रहा था कि हिल रहा है। 
इसी बीच एक भोले भक्त की नजर पड़ गयी। पास जाकर देखा हिलते त्रिशूल को। भक्तों की नजर अक्सर ऐसे ही चमत्कारों पर पड़ती है। चारो तरफ खबर आग की तरह फैलती सी। टूटती भीड़। भेड़चाल वाली भीड़। धक्का -मुक्की।मान -मर्यादा की चिंता नहीं। बस दर्शन हो जायें हिलते त्रिशूल के। इसी में अहो -भाग्य है। त्रिशूल का हिलना भी अजीब पहेली था। रुक -रुककर हिलता। 
मंदिर स्थल पर 'जयकारा 'शुरू। पत्रकार। मोबाईल / वीडियो रिकॉर्डिंग। हिलते त्रिशूल पर सबकी मुर्गी की एक टाँग वाली मनगढ़ंत कहानियां। 
जो अभी तक भोले बाबा को अपनी शक्ल भी न दिखाते थे वे मंदिर के स्वयंभू भक्त बन कर बैठ गए बाबा के भजन -कीर्तन में। प्रसाद वितरण। ढोलक -मंजीरे। चारो तरफ गूंजती भक्ति मय धुन। भक्ति में डूबी भक्त मंडली। चढ़ती चढ़ोतरियां। गांजा-तम्बाकू की चिलम जल कर तैयार है। दूसरे कोने में भांग तैयार हो रही है। भक्तों की और से की जा रही चढ़ोतरी ऐसी व्यवस्था के लिए आबाद रहती है। 
भोले बाबा भी सोचते रहे होंगे कितने स्वार्थी भक्त हैं। मामूली से कंपन के सहारे भक्ति के प्रपंच से लूटने का बाजार विकसित करने में लगे हैं मगर बेचारे करें भी क्या?
मूर्तिवत बने रहने में ही भलाईहै। साक्षात हुए तो तथाकथित भक्त आशीर्वाद प्राप्त करने की मुद्रा में उनके तन पर लटका चर्म दुशाला ही लूट कर न भाग जायें। 
लोगो में विकसित हुई अंधभक्ति पर एक बुद्धिजीवी ने प्रसंग -उठाया ''यारों चमत्कार की सच्चाई को जरा समझने का प्रयास करो। ऐसा भी हो सकता है। आसपास गल्ला किरन स्टोर्स हैं। चूहे बिल बनाकर मंदिर तक खोद दिए हो। सुरंग नुमा जगह में वे उछल -कूद करते हों। मंदिर वैसे भी कमजोर है। उनकी हरकत से त्रिशूल हिलता हो। 
एक तथाकथित भक्त उनकी अच्छी नहीं लगी। वह बोला -''ज्यादा होशियार आदमी की बुद्धि भी न घास चराने चली जाती है। देखते नहीं त्रिशूल साक्षात हिल रहा है,उसे ज़माने भर के मामलों से जोड़ कर देख रहे। भक्तों को बहकाना चाहते हो। ''
''यार विज्ञान का है। ऐसे कई चमत्कारों से पर्दा उठ चुका है। '
''अपनी विज्ञान गिरी यहाँ न झाड़ो। तुम्हें विश्वास नहीं है न। मत मानों। हम भक्तों की आस्था खंडित न करो। ''इसी बीच उसके समर्थन में दो तीन भक्त और आ गए। सबका तथाकथित स्वर। 
भगवान खुश हैं। भक्त खुश हैं। तथाकथित भक्त भी खुश हैं। ईश्वर उन्हें कभी बेरोजगार बनाकर नहीं छोड़ता।
'हिलता त्रिशूल ' तथाकथित लोगो के हित में भक्तों संग मज़ाक है या अंध विश्वास को बढावा देकर अपनी भक्ति करवाना। यह तो ईश्वर ही जाने। 
सुनील कुमार ''सजल ''

सोमवार, 15 जून 2015

व्यंग्य - हमारी झोला छापगिरी

व्यंग्य - हमारी झोला छापगिरी 

पहले झोला लेकर चलना सोशल स्टेटस के लिए खतरा नहीं था। बिना झोला लिए घर से निकलते नहीं थे लोग। झोला नए कपड़े का रहा हो या पुराने का। झोला तो झोला होता था। लेकिन अब…? पुराने स्टाइल का झोला लेकर चलिए ?वह आपके स्टेट्स पर प्रश्न चिन्ह लगा देगा। आधुनिकता के इस दौर में साहब ,दुकानदार न्यू डिज़ायन के झोले भेंट में देते हैं। तब के झोले और अब के आधुनिक डिज़ाइन वाले झोले में फर्क यह होता है साहब पहले वाले मजबूत होते थे। और अब के तो पांच से दस किलो के वजन में ही दम तोड़ने लगते हैं। आधुनिक जीवन शैली में जीने वालो की तरह। 
यूँ तो हमारी आदत रही है कि एक झोला साथ में रखकर ही दफ्तर या बाजार के लिए निकलते हैं। यदि किसी दिन हाथ में झोला न हो तो बड़ी बैचैनी होती है। 
झोला भले ही मार्किट से बिना भरे लौटा कर ले आएं। पर साथ में झोला रखकर चलना हमारी आदत है। परम्परावादी विचारों को आज भी जीवित रखे हैं। हमारे खानदान में हर किसी की आदत हाथ में झोला रखकर ही घर से बाजार या घूमने के लिए निकलने की रही है। 
किस प्रकार के झोले रखकर चलने के आदि हैं ? भाई साहब कभी दो मीटर तो एक मीटर का भी रख लेते हैं। कभी -कभी तो अनाज की प्लास्टिक बोरी को झोले में रखकर निकल पड़ते हैं। यार झोला ही ही तो है कोई ब्राण्डेड शूटिंग के कपड़े का झोला बनवाता है क्या ?
साहब इन दिनों हम बड़े परेशान है। हमारी झोला रखने की आदत पर लोग हमें झोला छाप कहने लगे हैं। कहते हैं -यार झोला छाप शर्मा जी रोज झोला लेकर दफ्तर आते हैं। इत्ते बड़े झोले में क्या भरकर ले जाते हैं। जबकि वे छोटा परिवार -सुखी परिवार के अनुयायी हैं। साहब उन्हें कैसे समझाएं कि सस्ता बटोरना हमारी खानदानी परंपरा रही है। सामाजिक स्तर का मामला है। 
एक दिन पटेल जी बोले -'यार ,शर्मा इस बड़े से झोले में ऐसी कौन सा माल भरकर घर ले जाते हैं। एक तो आप ठहरे आप पार्टी के विचारधारा वाले व्यक्ति। क्लर्क होकर भी आशा राम बापू की आध्यात्मिक सीख मोह -माया से दूर रहो के पूजक रहे हो। फिर इत्ती सी तनख्वाह अकेले से ,रोज़ाना थैला में …?
हमने कहा -''भाई झोला लटकाये इसलिए चलते हैं। कुछ सस्ता सामान तो खरीदकर बटोर लेते हैं। ''
''यार जित्ता तुम खरीदते होंगे उतना तो दुकानदार पोलिथिन बैंग में दे देता होगा। फिर काहे बोझ उठाए चलते हो। 
हम उन्हें कैसे समझाते। भैया झोला हमारे खानदानी व्यवस्था का हिस्सा है। सादे -पुराने झोले में हमारे हजारों रुपये रखकर शहर जाते और हजारों का लेन देन कर आते थे। इत्ते रुपये से भरे झोले को बस के रैक में यूँ ही रख देते थे ,जैसे तुच्छ सामग्री हो। पर,किसी की नियत डोल नहीं पाती थी। दिखने में वह इत्ता बदसूरत होता था कि लोग उसे छूने तो क्या देखकर ही नाक -भौं सिकोड़ लेते थे। लुटेरे -चोर भी झोला देखकर सोचते रहे होंगे। नंगों को और क्या नंगा करना। 
झोला छाप कहने पर उन चिकित्सकों को बड़ा धक्का लगता है। जो फ़र्ज़ी डिग्री के सहारे चिकित्सा करते हैं। आम गरीब गुरबा व कुछ पढ़े -लिखे सभ्य जान भी जो उनके पास चिकित्सा सेवा लेने जाते हैं उन्हें डॉक्टर साब के नाम के सम्मान से नवाजते हैं। वहीँ मीडिया व बुद्धिजीवी वर्ग उन्हें झोला छाप डॉक्टर कहकर अपमानित करते हैं। वे भूल जाते हैं इस देश की जनसंख्या पर लगाम लगाने में इनका भी महत्वपूर्ण योगदान हैं। वरना देश की जनसंख्या ? और गरीब गुरबों के चिकित्सा पहुंचविहीन क्षेत्र में इनसे चिकित्सा सेवा मिल जाती है। 
सुनने को मिला है कि इन दिनों राजनीति में भी झोला छाप सलाहकारों की भरी भीड़ बड़ी है। झोला छाप सलाहकारों से घिरे हैं। कहते हैं जिस घटनाक्रम को राजनीति में घूमते -फिरते देखें वह वाकई में महत्वपूर्ण होने में ज्यादा समय नहीं लेता। 
इधर मीडिया जगत में झोला छाप पत्रकार आ गए हैं। झोला छाप पत्रकार उन्हें कहा जाता है ,जो सुनी सुनायी खबरों पर मसाले दार चुटकियों का लेप लगाकर प्रकाशित करा देते हैं ,तो फिर राजनीतिज्ञ काहे पीछे रहें। 
राजनीति , पत्रकारिता हो या चिकित्सा। झोला छापों का महत्व बढ़ा है। आप पार्टी में टोपी की तरह। हमें तो लगाने लगा है साब आने वाले दिनों में झोला भी आम जींस टॉप ,हेयर कट्स की तरह एक फैशन न बन जाए। लोग कंधे में थैला लटकाकर फैशनेबुल होने का गर्व महसूस करेंगे। लोग कहेंगे -''साब अब तो अपन भी झोला छाप बन गए। 
हम तो इसी समय के इंतज़ार में हैं साब कि झोला भी फैशन का अंग बन जाए। ताकि घर की खूँटी में टंगे अस्तित्व को तरसते विभिन्न टाइप के झोलों की हम प्रदर्शनी लगा सके। और यह बताने का प्रयास करते कि यह झोला कितनी पीढ़ी पूर्व का है। शायद मोनालिसा की तस्वीर की नीलामी की की तरह हमारे झोले भी नीलाम हो जायें। 

सुनील कुमार ''सजल''

व्यंग-पूजा के आशिक

व्यंग्य - पूजा के आशिक 

क्षमा करें सर !मैं यहाँ पूजा नाम की लड़की की छुप्पम -छुप्प वाली आशिकी की चर्चा नहीं करूँगा ,बल्कि उन आशिकों की चर्चा करूँगा ,जो पूजा स्थलों या देवालयों में मौजूद होते हैं। जिन्हे आधुनिक संदर्भ की संज्ञा में आशिक कह सकते हैं। 
सच ,इन आशिकों की लीला अपरम्पार है। लैला-मजनू ,सोहनी -महिवाल ,रोमियो -जूलियट जैसे ऐतिहासिक प्रेमी भी शर्म से पानी-पानी हो जाते इनकी आशिकी देख कर। 
ये आधुनिक संदर्भ के प्रेमी होते हैं। इनकी आशिकी भी आधुनिक है। सुबह -शाम के वक्त इनका अड्डा देवालय या पूजा स्थलों में होता है। इस वक्त ये पूर्ण ऊर्जा से भरपूर व निगाह और मन में सोच की भूकंपीय तरंग लिए होते हैं। 
ये प्रसाद वितरण और सेवा भाव के शौकीन होते हैं। होठों पर सभ्य मुस्कराहट का लिबास। चेहरे पर शालीनता का नक़ाब ,इनका खास कल्चरल मार्क है। पूजन -प्रसाद के पंचामृत में आशिकी के मेवे डाल कर हर वक्त वितरण के लिए तैयार रहते हैं। इनकी शालीन ,सामाजिक सभ्य अदा के साथ ही इनकी शक्ल देखकर उच्च श्रेणी का भविष्यवक्ता भी इनके आदेश के उबाल को पहचानने में गच्चा खा जाये।इतने विनम्र होते हैं ये.…।
अब ईश्वर को कुछ नहीं कह सकते। वह तो हर समय मुस्कुराती मूरत में होता है। उसकी मुस्कराहट इन आशिकों के प्रति व्यंग्यात्मक होती है। या दर पर पधारे भक्तों के प्रति ,जो इन बदमाशों को पहचानने में गच्चा खा जाते हैं तो ये फिर ईश्वर कि मुस्कराहट को क्या पहचानेगें।
खासतौर पर शाम के वक्त मंदिरों या देवालयों में ज्यादा हलचल होती है। दिन भर की थकान से उबरकर शांति प्राप्त करने हेतु महिलायें व कुंवारियां आरती -पूजन हेतु मंदिर आती हैं। इसी वक्त तथाकथित या एक तरफ़ा प्रेम के योद्धा बने आशिक भी 'सांझ ढले उल्लू पंख फड़फड़ाये 'की तर्ज पर मंदिर में आ जाते हैं।
मंजीरा ,ढोलक और दम भरते फेफड़ों की ताकत से शंख फूंकना व चुनाव में जोश भरे नेता की तरह गला फाड़-फाड़कर आरती गाना इनका मुख्य कार्य होता है। इसी बीच क्वांर (आश्विन )के महीने में मानसिक व दैहिक सुख की लालसा से सक्रिय कुत्ते की भांति इनकी निगाहें व कान स्त्री दीर्घा की और सक्रिय रहते हैं।
कहते तो हैं ,देवालयों में आये भक्त अपने पराये की भावना से मुक्त होते हैं। इसी तथ्य के तथाकथित संस्करण होते हैं 'पूजा के आशिक। '
संवादों की बानगी देखिये .......
'' जी,आप भी पूजा कर लीजिये … पीछे क्यों खड़ी हैं। ''--आशिक मिजाजी।
''''रहने दो .. ठीक है यहीं पर। ''संवादों से पीछा छुड़ाने की कोशिश में कुवांरी छोकरी।
''अरे भई … मंदिर आयी हैं तो दो अगरबत्ती आरती घूमा दीजिये .... ईश्वर खुश हो जायेंगे। '''-आशिक मिजाजी के संवाद में ईश्वर का खुश होना प्ले बैक है।
फिर भी कुवांरी मुस्कराहट के साथ ना - नुकुर करे तो ?
''जैसी आपकी इच्छा जी। ''
बस आशिक मिजाजी को उनकी मुस्कराहट चाहिए थी ,जो देवमूर्त की मुस्कराहट से बेहतरीन लगी। मिल गई। दिल में मची गुदगुदाहट करेंट दौड़ गई में। पॉवर हाउस हो गई तबियत।
आरती -पूजन समापन के बाद ,प्रसाद वितरण। भक्तों के लौटने के बाद संवाद देखिये।
''अबे किसे पटा रहा था।''- एक आशिक मिजाजी।
''अबे पटी कहाँ ?''-दूसरा।
'' एक दिन में अपनी लंका की रानी बनाना चाहता है। ''- पहला
''चल बे … देखना तो तू अगर भगवान ने साथ दिया तो ज़रूर बना लूँगा अपनी रानी। ''
अब बेचारे भगवान क्या करें ?मंदिर में आशिकी के पाखंडों का सहयोग करें कि कुचक्र में फंसती लड़की का ?हालाँकि इस कलियुग में ईश्वर की लीला भी संदिग्ध हो जातीहै।
सब ,पूजा के आशिक के मुख में राम तबियत में आशिकी तो होती है। कोई आशिकी धर्म पर बयानबाज़ी करे तो ये योद्धा भी बन जाते हैं और पूजा-पाठ में तन-मन झोकते है पर धन ? ये खुद ही आरती की चढ़ोतरी या दान राशि पर निर्भर होते हैं। वैसे भी आजकल मंदिरों में व्यवस्थापन हेतु होती है। जहाँ समिति बन जाये ,वहाँ की मति के बारे में आप अच्छी तरह से जानते हैं। लाख कोई धर्म-कर्म ,पुण्य-पाप की बातें करना जाने पर नियत कब चंचलता का चोला धारण कर ले,कहा नहीं जा सकता
टाइप भक्त ने जब समिति सदस्य आशिक मिजाजी से प्रश्न किया कि मंदिर में इतनी दान राशि व् चढ़ोतरी आती है ,कहाँ चली जाती है। हिसाब -किताब कुछ मिलता नहीं
. आशिक मिजाजी का जवाब था ,-'' रात -दिन देवता की सेवा करते हैं ,अपना जेब खर्च भी न निकालें क्या ?हम तो कहते है साब प्रतिष्ठानों में डाका डालने से बेहतर है मंदिरों में घोटाले करो। जहाँ न ईश्वर को कुछ लेना -, देना है न भक्त को। वह तो बस तथाकथित संदेशों की पाप-पुण्य कर्म की धरा में ही डुबकी लगाता रहताहै। हमने तो यहाँ तक देखा है साब कि मंदिरों की राशि से लोगों ने अपने धंधे आवास चमका लिए और धन देवी लक्ष्मी डेरा डालकर बैठ गई। .अब अपन आपसे पूछेंगे कि आप किसकी पूजा करना पसंद करेंगे। 'पूजा की या आशिकी की पूजा ,खैर छोड़िये।
सुनील कुमार ''सजल''

रविवार, 14 जून 2015

न्यूड फिल्मी सीन पर बहस



न्यूड फिल्मी सीन पर बहस


‘  हम तो इतना जानते हैं साब। हर पुरुष की तरक्की के पीछे नारी का हाथ होता है। नारी हर क्षेत्र में अग्रणी है। फिर इत्ता तो समझ गए होंगे की फ़िल्मी दुनियाँ हीरोइन के बगैर नहीं चल सकती।
हीरो अकेला क्या कर लेगा। कुछ भी नहीं न। हमें आजकल के अखबार वालों की बुद्धि पर तरस आता है। अखबार की हैडलाइन होती है ,फलां हीरोइन ने फलां पत्रिका के लिए या फिल्म के लिए न्यूड सीन दिए। कोई खबर है। आप तो ऐसे छाप दिए जैसे नग्नता किसी न देखी हो या फिर कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति सड़क पर नग्न रोमांस करते नजर आये हों। हीरोइन है। नए जमाने की। इस समय पश्चिमी संस्कृति देश पर हावी है। ऐसे वक्त पर आधुनिक हीरोइन क्या मुगले- आजम जमाने की बनकर सीन देगी।
प्रतिष्ठा व धन के लिए लोग क्या नहीं करते। केचुए ,साँप खाते हैं। सड़को पर नंगा प्रदर्शन करते हैं। फिर तो वह कलाकार है। कलाकार तो वहीं प्रदर्शित करता जिससे उसकी कला का मूल्य बढे। साब वह इत्ता भी न्यूड न हुई होगी।जिससे बदन पर इंच मात्र भी कपड़ा न बचा हो। कपड़े तो रहे होंगे। रखना पड़ेगा उसे कपड़ा। सेंसर बोर्ड के डर से नहीं। बल्कि सभ्यता विकास के लिए। जिसके लिए मानव समाज ने कपड़े धारण किये थे।
प्रश्न यह है कि किस तरह हीरोइनों की मांग है फ़िल्मी दुनियाँ में। सीधी सी बात है जो दिखता है वही बिकता है। फिर हीरोइनों को भी दिखना है न। और चलना भी है इंडस्ट्री में। वरन क्या करेगा निर्माता शालीनता व मर्यादा का कबाड़ फिल्मों में डालकर। साब ,आपको भरोसा न हो तो किसी हीरोइन से पूछ लो। जो फिल्म में जगह पाने के लिए संघर्ष कर रही हो।” क्या आप अंग प्रदर्शन को महत्व देती हैं। ”’ उसकी ना नुकुर के पीछे शर्मीली अदा में जवाब ”हाँ ” होगा। यारों आजकल गरम ही बिकता है। बासी व उबाऊ क्या आप पसंद करेंगे।
साब जी ,फिल्म वही सुपर होती है जिसमे हीरोइन की चोली व कमर का नाड़ा जितना खुलता है। दर्शक उसी फिल्म के मुट्ठियाँ व जेब खोलता है जिसमें मॉर्डन सेक्स की अदा हो। हीरोइन में न्यूड सीन देने की होड़ मची है साब। जैसे चुनाव में नेताओं के मुख से उगले जाने वाले आश्वासनों की मचती है। किसी हीरोइन से पत्रकार साक्षात्कार ले रहा था। कहा -”आपका फ़िल्मी दुनियाँ में पहला कदम न्यूड सीन के साथ था। आपको शर्मो -हया की तनिक भी चिंता नहीं रही। इत्ते सालों में दर्शक भी आपका खुला बदन देखकर ऊब गए होंगे। ” वह हंसी। जैसे बच्चों की बातों की बातों पर हम लोग हँसते हैं। बोली ”आप पत्रकार हैं। इसलिए आपकी सोच भी समाचारों की लाइन जैसी है। जो दो – चार घंटे बाद पढने लायक नहीं रहती। जनाब ,बदन से हर बार मिली मीटर के बराबर कपड़ा घटता है। दर्शक जिज्ञासा में उतना ही उत्तेजित होता है। वह सोचता रहता है। तो और भी.…। पर कपड़ा उतना ही रहता है। बस,दायें -बाएँ सरका कर दर्शक को बेवकूफ़ बना देते हैं। जिज्ञासा उसे ही चकमा दे जाती है।
”’आप जब धार्मिक फिल्मों में होती है। मर्यादशील होती हैं। मगर मसाला फिल्मों में अश्लीलता की हदें नदी में बाढ़ की तरह तोड़ जाती हैं। ” ”इंसान होने का अर्थ क्या है ?वह कई रूप में दिखे। वह तो वही दिखायेगा जिसकी मांग बाजार करेगा। देवालयों में खजुराहों या एलोरा के चित्रांकन रूपों की पूजा करेंगे। ”” हमारी समझ तो यह कहती है यारों। शालीनता वा शर्म के लिबास में देश पिछड़ा लगा है। इसलिए गरम दृश्यों की मांग बढ़ी। नतीजा रेव पार्टी , छेड़छाड़ ,रेप व कबूतर बाजी वेश्यावृति की शिक्षा फिल्मों रही है।
इधर कुछ घटनाओं को सुनकर भेजा खिसकता है। ये एन.जी.ओ.टाइप लोगों को समझाओ। बेवजह अश्लीलता के खिलाफ जंग छेड़कर वाह -वाही लूटने का दुस्साहस करते हैं। ऐसे ही एक सामाजिक कार्यकर्ता के हाथ में हमने ”ए ” सर्टिफ़िकेट वाली फिल्म की डी.वी.डी. देखि।कहा-”यार आप लोग अश्लीलता यूँ देखते हो जैसे चूहे को बाज। आज खुद ऐसी फिल्म देखेगो। ” वह बोला – ‘यार लगता है। एक तुम्ही बेवकूफ़ हो। सरकार हमारी संस्था को अनुदान क्यों देती है ?इत्ता तो जानते हो। यह भी जानो सरकार एक तरफ शराब की दुकानों का ठेका देती है। दूसरी तरफ नशे के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाती है। जब उसके दो चेहरे हैं। तो हमारे भी समझो। आखिर हम भी आपकी तरह इंसान हैं। दिमाग में हिलकोरे लाने के लिए टॉनिक चाहिए कि नहीं। बोलो …

व्यंग्य – बड़ी देर कर दी आपने



व्यंग्य  – बड़ी देर कर दी आपने 

 हुजुर को पता है कि वे हुजुर हैं |हुजुर बनने के लिए बड़े पापड बेले उन्होंने | तब कहीं जाकर हूजूर बने हैं | हूजूर बनने के बाद उन्हें यह भी अच्छी तरह पता है कि हुजुर लोग समय पर कहीं नहीं पहुचते | इसलिए वे हमेश सभा हो या पार्टी की मीटिंग देर से पहुचते हैं |चमचों को भी पता है हुजुर अपने या उनके दिए समय पर कभी नहीं आयेंगे | सो, वे निश्चिन्त रहते हैं | भीड़ इकट्ठी करने में लगे रहते हैं | उन्हें यह भी पता ऐसा वे हुजुर बनने के बाद कर रहे हैं | इसके पहले जब वे उनके जैसे थे समय के दो घंटे पहले पहुँच जाते थे | मगर अब पद बढ़ गया है |पद बढ़ने से रुतवा भी बढ़ गया है | अब वे छुटभैये  नहीं रहे हैं | इसलिए देर से आते हैं |
  हुजुर को पता है जल्दी या समय पर जाने वाले नेता की कद्र नहीं होती | लोग यह समझ बैठते हैं कि हुजुर की  जरुर इस समय मिटटी पलीद होने की स्थिति  बन रही है इसलिए हुजुर जल्दी चले आये | ताकि दूसरा उनकी जगह न ले बैठे |
 एक दिन हुजुर की पत्नी ने उनसे कहा –‘’ आप नौ बजे खा -पीकर फुर्सत बैठे पर अभी  ग्यारह बज रहें | और आप अभी तक सभा की ओर नहीं बढ़ें है | दूर शहर में बैठी जनता बेचारी आपका इंतज़ार  कर परेशान हो रही होगी |तनिक उनका भी और समय का ख्याल रखा करो |’
 देखो तुम फटे में टांग मत घुसेड़ा करो | मैं जनता का ख्याल रखकर ही देर से जा रहा हूँ | तुम भले राजनेता की पत्नी हो पर तुममें अभी राजनीति की समझ नहीं जगी है |इसलिए कहता हूँ रूचि लेकर किसी छोटे –मोटे संगठन में घुसकर एकात पद हथिया लो | ताकि तुम,में भी राजनीति  की समझ पैदा हो | घर के भीतर बैठ कर राजनीति  की बातें करने व रसोई घर में ताक-झाँक करने से राजनीति की  समझ पैदा नहीं होती |’’ नेता जी ने पत्नी को फटकारा | ‘
‘’ ठीक है | मैंने तो आपका इंतज़ार  कर रही जनता की परेशानी को भांप कर आपसे कहा था |’’
‘’ अभी तुम राजनीति के मामलों में कच्चा घडा हो |इसलिए चूल्हा चौके से बाहर कि बात नहीं सोचती | पहले हम भी अपने आकाओं को देर करने पर कोसते थे | पर आज खुद आका बनने के बाद समझ आया कि देर से गंतव्य की  ओर पहुचने का मतलब क्या है | ‘
 हुजुर जानबूझकर देर से जाते हैं, अपने जनसभाओं.में  |कहते इंतज़ार  का फल मीठा होता है | हुजुर भी अपने आपको जनता के बीच  मीठा फल साबित करने में लगे हैं |
  आज  उनकी चिलमन चौक में सभा है | जनता सभा स्थल  में बैठी उनका इंतज़ार  कर रही है | दिन के बारह बज चुके हैं |भैया जी अभी भी घर में  बैठे टी.वी. पर तमाशा देख रहें हैं | पत्नी उन्हें बारह बजने का एलर्ट देती है मगर वे खुद में मशगूल हैं |पत्नी चुप रहती है | जानती ज्यादा कुछ कहा तो सभा का सारा भाषण वे यहीं उड़ेल देंगे |

 बड़ी मुश्किल से वे एक बजे घर से  रवाना हुए | दो बजे सभा स्थल पर पहुंचे | और भाषण में बोले- ‘’आपको मेरे इंतज़ार में जो कष्ट हुआ उसके लिए क्षमा चाहता हूँ | क्या करूँ  पार्टी के कुछ ऐसे काम आ गए थे जिन्हें निपटाना जरुरी था | चमचे की तालियाँ पिटने लगी | जनता भी तालियाँ बजाने में जुट गयी | भाषण /आश्वासन /योजनायें बांटी गयी |वैसे नेताओं का सभा स्थल पर देर से  पहुँचना लोकतंत्र में एक बीमारी है  | जिसका ईलाज आज तक नहीं खोजा जा सका |
 सभा समाप्त |अब पार्टी की बैठक |अचानक पार्टी की बैठक के बीच एक चमचे ने कह उठा – भैया जी आज आप काफी लेट हो गए थे | बड़ी मुश्किल से जनता को बांधकर रखा हमने |’’
 हुजुर ने तत्काल फटकार लगायी –‘’ राजनीति  करते हो या बनिया की दुकान में चाकरी |’’ वह वहीं खामोश हो गया | वैसे भी चमचे हुजुर लोगों के आगे पालतू  कुत्ते की भाँती कुई –कुई करते दुम हिलाते नजर आते हैं | दुम हिलाना कूँ- कूँ  करना छोटे लोगों की परम्परा है |
हुजुर बड़े नेता हैं | इसलिए वे बड़ी देर से प्रत्यके कम या सभा में जाते हैं  |लोकतंत्र में सिर्फ जनता के पास फालतू समय होता ई |जब तक जनता के  पास समय है | हुजुर के पास इंतज़ार  कराने के साधन हैं |
                                 सुनील कुमार सजल

मंगलवार, 9 जून 2015

व्यंग्य- उल्लू का दर्द


व्यंग्य- उल्लू का दर्द




 सरकार की पेंदी दो दिशाओं में लुडकती है | पहली दिशा में वह चुनाव जीतकर सत्ता में बैठने के बाद | और दूसरी दिशा में चुनाव के करीब आने के संकेत पर |
  अभी पिछले दिनों सरकार की पेंदी जिस दिशा में लुढ़की थी | वह चुनाव करीब आने का संकेत था | दूसरी दिशा में सर्कार का लुढ़कना जनता के हित में होता है | वह इस वक्त जनता की होती है |
  फिलहाल सरकार जनता की हो चुकी थी | भ्रष्टकर्मियों पर आफत आ पड़ी थी | हालांकि वे सतर्क थे | पर शासन या प्रशासन में चूक का महत्त्व होता है | आखिर वे भी तो इंसान हैं और इंसान गलतियों का पुतला होता है | पुतला तो अंगुली के इशारे पर चलता था | अभी तक वह सरकार की अंगुली पर था |
  भ्रष्टकर्मियों पर आफत आयी तो उसकी काली कमाई पर छापे पड़ने लगे , जो अभी तक जनता के लिए आफत बने थे | सर्कार जनता के साथ थी | इसलिए वह भ्रष्टाचार निरोधक व्यवस्था से छापे डलवा रही थी | बदनाम सरकारें छवि का कालिख ऐसे ही कर्मों से साफ़ करती है | साथ ही जनता की आवाज पर ध्यान देती है | जो विपक्षियों के संग मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ नारेबाजी कर रही होती है | सोयी सरकार को जागना पड़ता है | ऐसी चीख पुकार से | जनता के संग सुर मिलाने वाले विपक्षी सोते कहाँ हैं | विपक्ष में बैठने पर वैसे भी आँखों की नींद व दिल का चैन गायब रहते हैं | अब क्या करें विपक्षी ? ट्रस्ट जनता के संग हो लेते हैं | अपनी त्रासदी उगलने के लिए |
जनता को भी जरुरत होती है हाथ में लाठी व माइक लिए नेतृत्वकी | सो, वह उसके पीछे –पीछे भेड़की तरह चलती है | जनता की किस्मत अच्छी है कि उसे ऐसा नेतृत्व चुनाव के वक्त तो मिल जाता है |
 भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वर तेज थे | भ्रष्टाचार के खिलाफ छापे पद रहे थे | रिश्वत खोर पकडे जा रहे थे | छवि का कमाल देखी | अदना –सा कर्मचारी भी करोडपति निकल रहा था | जिसने सरकारी खजाने के पेंच ढीले कर रखे थे | हालांकि पिछले वर्षों में सरकार के पास धन की कमी नहीं थी | वह योजनाओं के लिए धन पानी की तरह बहा रही थी | योजनायें कागजी नाव थी | इस बहाव में बह रही थी | या कहें जनता के आँखों के सामने डूब रही थी | सरकार अपने मुंह मिट्ठू बन रही थी | होर्डिंग / विज्ञापन / पोस्टर / प्रचार फिल्मों में सरकार योजनाओं के साथ मुसकरा रही थी | जनता रो रही थी ढूंढ रही थी योजनाओं को | वह आपस में पूछती –‘’ कहीं देखा आपने अमुक योजना को |’’ अपनों से जवाब मिलता –‘’ कहीं तो होगी | तभी तो विज्ञापनी गुणगान जारी है |’’ पड़ते छापों की भी अपनी विशेषता थी | बिना विशेषता के शायद सरकारी काम काज नहीं होते | विशेषता भोली जनता के बाहर थे | जनता भोली होती है , इसलिए वह जनता होती है |
   छापे केवल सरकारी कर्मियों के कुकर्मों पर पड़ रहे थे | जनता वास्तव में भोली है | उसे इतनी भी समझ नहीं भ्रष्टाचार का खेल केवल क्या अर्कारी कर्मचारी ही खेलते हैं ? वे नहीं खेलते जो उनके सिर पर अपने राजनैतिक हस्त की छात्र छाया बनाकर रखते हैं |
    जनता भूल भुलैया में थी | छपे की खबरें चटकारें लेकर पढ़ रही थी | ‘’ अच्छा काम कर रही सरकार | भ्रष्टाचार ऐसे में ही समाप्त होगा | भ्रष्ट लोगों को सजा मिलनी चाहिए | जनता की नजर में सरकारी कार्मीन भ्रष्ट है | सत्ता के राजनैतिक साधक ईमानदार हैं | क्योंकि वे भ्रष्टता  के खिलाफ चल रहे थे |
   जनता इतनी नासमझ है | उसने सोचा तक नहीं भ्रष्टाचार की शुरुआत की नींव कहाँ है | किसके इशारे पर प्रशासन की बेलगाम बनाते हैं |
  जनता को सरकार ने योजनाओं का सब्ज बाग़ दिखाया नहीं कि वह सरकार की हो जाती है | जनता को क्या चाहिए दवा दारु , सस्ता अनाज और आश्वासन | सो इत्ता काम सरकार कर देती है | अत: वर्त्तमान माहौल में जनता सरकार के लिए थी और सरकार जनता के लिए |
  मैंने आम आदमी से पूछा | जो लोकतंत्र में जनता की परिभाषा होता है |
  ‘’ सरकार की चाल समझ में आयी तुम्हें ?’’
  ‘’कैसी चाल ?’’
 ‘’ सरकार का निशाना प्रशासन के कर्मियों पर है | छपे उनके घर पर पद रहें हैं | जबकि स्वयं उनके कई मंत्री-नेता  भ्रष्टाचार में लिप्त हैं | वे सुरक्षित हैं | ‘’
  ‘’ असली भ्रष्टाचार तो कर्मीं  अपनाते हैं |’’
  ‘’ राजनीति उन्हें करवाती है |’’
  ‘’ वे नकारते क्यों नहीं |’’
 ‘’ उन्हें नौकरी करनी हैं | राजनीति हर किसी को सीधा करना जानती है और टेढा भी | आम आदमी खामोश हो चुका था | बहस से दूर होकर उसके दिमाग में सिर्फ एक जूनून था | किसी तरह भ्रष्टाचार मिटे | अत: भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलनरत था जनता की मंशा को कुछ हद तक सफलता से जोड़ने के लिए सरकार अपना तरिका अपना रही थी विपक्षी अपना | जनता रूपी उल्लू की टाँगे एक-एक दोनों पकडे बैठे थे | अब देखना था सीधा करने में किसे सफलता मिलाती | फिलहाल उल्लू छटपटा रहा है | दर्द से कराह रहा है | सरकार और विपक्षी मुस्कुरा रहे थे |

सोमवार, 8 जून 2015

व्यंग्य – लोकतंत्र में भेड़ें


 व्यंग्य – लोकतंत्र में भेड़ें 


जहाँ भेड़ें  रहती हैं , वहीँ हाथ में लाठी लिए लोग भी रहते हैं |भेड़ों  के ‘ स्वतन्त्र वन ‘ विक्सित नहीं हुए | अच्छी अर्थव्यवस्था के लिए देश में भेडो का होना आवश्यक है | भेड़ों  से सिर्फ अर्थव्यवस्था ही नहीं सुधरती बल्कि लोकतंत्र भी सुरक्षित रहता है | उन देशों के हालात देख लीजिए , जहां भेड़ों  के बजाय तानाशाह भेड़िए व गीदड़ पाए जाते हैं | वहां लोकतंत्र हमेशा ही धुल चाटता नजर आता है |
 अपना देश इन मामलों में भाग्यशाली है कि भेड़ें पायी जाती हैं और भेडे की शक्ल में जनता भी | इसलिए यहाँ के लोकतंत्र को आज तक कोई डिगा नहीं सका |
   भेड़ें  सीधी – सादी प्राणी है , उन्हें एक बार रास्ता दिखा दो , वे एक के पीछे एक आँख मूंदकर नाक की सीध पर चली जाती है | बार-बार उन्हें लाठी दिखाकर रास्ते में लाने की जरुरत नहीं | एक बार हाथ में लाठी देख ली , भय के लिए बस उतना ही पर्याप्त है |
  भेंडे संतोषी जीव है | शायद वे भी इस देश के तथाकथित धर्मावालाम्बियों की तरह पाप-पुण्य धर्म-कर्म पर विशवास करती हैं| यूँ तो वे मिल-बांटकर खाना पसंद करती है पर उनका चारा दूसरा प्राणी भी खा ले , यहाँ तक कि आदमी भी तो भी चुपचाप ताकती रहती है | बेचारी इतनी शांत मिजाज की होती है कि अपनी स्वार्थ पूर्ती के लिए कोई उनकी खाल भी उधेड़ दे या जैसा चाहे , वैसा ‘’ दूह ले , फिर भी ‘’ उफ़’’ किए बगैर चुपचाप  आंसू बहाकर रह जाती है |
   उन पर होते जुल्म पर प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए एक भेंड ने दूसरी से कहा ‘’ देख तो, अफसर सरकारी कर्मचारी उद्योगपति कहे जाने वाले भेडिये व गीदड़ जब चाहें, तब हमारी खाल खीचते रहते हैं, हमारी उन निकालते रहते हैं पर अपन लोग मूक बने सब कुछ सहते रहते हैं | विद्रोह क्यों नहीं करते ?’’
  ‘’ देख री , इनके हाथों में लाठी, बन्दूक आधुनिक अस्त्र-शास्त्र व क़ानून है | अपन ने ज़रा भी कुछ ऐसा-वैओसा किया तो ये दबंगता के दम पर हमें कसाइयों के हाथ, सौप देंगे | इसलिए खामोशी की परम्परा को नियमित मानकर ही जीयें , इसी में अपना जीवन सुरक्षित है |’’
  भेड़ो के कारण ही भेड़ियों की अर्थव्यवस्था कायम है | स्विस बैंक में खाते खोलने का अधिकार इन रक्त पिपासुओं को है | भेड़ों ने भी सोचा कि वे भी अपने मान-सम्मान  के लिए स्विस बैंक में खाते खोलें | उन बेचकर आई आमद में टैक्स चोरी करके स्विस बैंक में छिपायें | पर उनकी उन की कीमत इतनी गिरा दी गई कि वे खाते खोलने के काबिल भी नहीं रहीं | कुछ ने इस पर भी हिम्मत दिखाई तो उन्हें राजधानी ने  आँख दिखाकर भगा दिया | कुछ ने उन की कीमत गिरने से व्याथित होकर आत्महत्या कर ली |
   भेड़ों को धुप , प्यास , पानी , गंदगी , बीमारी व लाचारी सहने की जैसे आदत सी पड़ गई है | वे इस घिनौने माहौल में बने झुग्गीदार ‘’ सार’’ में भी खुश है | कहती है, ‘’ हमारा सुख इसी में सुरक्षित है |’’
   सरकार से उन्हें शिकायत है कि उनकी हितैषी व विकासशील योजनायें अजगरों के हाथों में सौप दी जाती है , जिसे वे निगल जाते है | अगर किसी भेड़ ने नेतागिरी के मायने में चूं-चापाक का साहस दिखाने की कोशिश की तो उसके अस्थि-पिंजर तक का सबूत नहीं मिलता |
 इस देश में किस्म-किस्म की अपराधिक घटनाओं की शिकार होती आ रही है भेड़ें | बलात्कार , लूट ह्त्या , जालसाजी से जूझती ये भेड़ें गुंडे- मवालियों से कैसे जूझें ? हिंसक जीव कहते हैं कि भेड़ें गठीले बदन के साथ ‘’ सेक्सी ‘ भी होती है | इसलिए थाणे में रिपोर्ट दर्ज कराने में भी हिचकिचाती है | कारण कि वहां भी लार टपकाते कुत्ते उन्हें नोचने को बेताब रहते है | ऐसे में बेचारी भेंड़े अबला की भाँती आंसू के घूँट पीकर अन्दर ही अन्दर घुटती रहती हैं |
  अभी कुछ माह पूर्व हिंसक विचारधारा के लोगों ने उनकी घास-फूस वाली बस्तियों में आग लगाकर सैकड़ों भेड़ों की ह्त्या कर डी थी | बाद में पता चला कि लोकतांत्रिक चुनाव में उन्होंने प्रत्याशियों के बहिष्कार का साहस दिखाया था | हालांकि चुनाव के वक्त जूझना ही पड़ता है भेड़ों को |मूर्ख कही जाने वाली भेड़ों को खरगोशी विचारधारा वाली स्वयंसेवी संस्थाओं ने समझाया, ‘’ देखो, शिक्षा ग्रहण कर जागरूक बनो | आजकल तो हर जगह पर स्कूलों की व्यवस्था है |’
   पर वे टाल गई और बोली,- ‘’ पेट का जुगाड़ पूरा करने से फुर्सत मिले तो कुछ सोचें न ! इस रेतीली व्यवस्था में पेट के लिए दाल-रोटी का जुगाड़ करना ही सबसे कठिन काम है |’’
    हालांकि  भेड़ें अपनी मूर्खता पर कायाम है | उनकी नस्लों में सुधार के प्रयास जारी है मगर भ्रष्ट व्यवस्था में वे सच्चाई के कितने मायने समझाने की कोशिश करेंगी , यह तो वक्त ही बताएगा |
                            सुनील कुमार ‘सजल’’

शुक्रवार, 5 जून 2015

व्यंग्य – पति यानि ‘’ श्रीमान पालतू’


व्यंग्य – पति यानि  ‘’ श्रीमान पालतू’


लम्बे समय से जेल में कैद घोटालेबाज नेता को कोर्ट से जमानत मिलने पर जनता व चमचे ,नवयुवती को सुयोग्य वर मिलने पर परिजन व रिश्तेदार ,किसी लेखक की नवप्रकाशित कृति बिक जाए तो मित्र व पाठक गण खुशी से फूले नहीं समाते | मगर पति नामक प्राणी को कभी कहीं से ख़ुशी मिल जाए तो उसे खुश देखकर पत्नी का मुंह फूल जाता है | पति का खुश होना गृहस्थ जीवन में सबसे बड़ी त्रासदी है | वह अनेक शंकाओं के कटघरे से घिर जाता है | आखिर वह खुश हुआ तो क्यों हुआ ? कहीं बाहर वाली से कोई चक्कर तो नहीं ? पत्नी ऐसे ही अनेक आधारहीन प्रश्नों की गर्म रेत पर छटपटाती है |
  गृहस्थी के संविधान में पति का खुश होना क्या अपराधिक घटना है ? क्या वह हमेशा रुआंसा मुंह लिए बैठा बेचारा बना रहे ? पति खुद नहीं समझ पाता  कि वह क्या करे ?
   पति के खुश चहरे को देखकर पत्नी का व्यंग्यबाण यूँ चलता है –‘’ क्यों जी , पहले तो तुम्हारा चेहरा गुड आटे के बने बाबरा जैसा फूला-फूला रहता था | भौहें सिकुड़ी-सिकुड़ी सी रहती, आवाज मिमियाती |घर में आकर दुम हिलाने वाले मरियल कुत्ते की भाँती रहते थे | पर चंद रोज से देख रही हूँ आप हद से ज्यादा खुश दिख रहे हैं |
    अपनी ख़ुशी की हद पार करने वाला पति उसे बड़े धैर्यपूर्वक समझता है –‘’ नहीं डार्लिंग , मुझे प्रमोशन मिलने वाला है  | (अन्य प्रकार के लाभ भी हो सकते हैं )’’
    ‘’इत्ती सी बात पर इतने ज्यादा खुश दिखो, मुझे तो शंका है | ऐसे लाभ तो तुम्हे पहले भी मिल चुके हैं | पहले ऐसे नहीं दिखे जैसा कि आज दिख रहे हों |’ पत्नी पुन: प्रश्नों व शंकाओं की अँगुलियां नचाती है इस पर पति बेचारे या तो चिडचिडाहट से भर जाते हैं या फिर कौन अपना माथा चटवाये  की सोच पर खामोश हो जाते हैं | उनकी चिडचिडाहट या खामोशी उसे और शंकाओं की भंवर की ओर ले जाती है |
  एक दिन हमारी पत्नी ने हमसे कहा-‘’ तुम्हारा चेहरा घर में घुसने के साथ गुस्से में क्यों दिखाई देता है | शादी के बाद से अब तक तुम्हें खुशनुमा सहारे के शाथ नहीं देखा |’’
 ‘’ तो क्या करूँ .....रावण जैसे ठहाके लगाते हुए घर में प्रवेश करूँ |’’हमारा जवाब था |
  ‘’ ठहाके लगाओ न लगाओ पर मुसकाते हुए तो घर आओ |’’ पत्नी बोली |
   ‘’ मेरी मुस्कराहट भी तो तुम्हारे लिए शक की दीवार है |’’
   ‘’ न ... अब नहीं करूंगी शक?’’ पत्नी ने कहा |
पत्नी के वायदे पर हमने विश्वास किया | पति के नजर में पत्नी भले ही विश्वसनीय होती है | पर पत्नी कि नजर में पति कभी विश्वसनीय नहीं हो सकता |
आखिरकार उसका शक चंद  रोज बाद पुन: जागृत हुआ | उसने एक दिन हमारे सामने शक का बेलन घुमाते हुए कह दिया | ‘’ मैंने आपको इतना भी खुश दिखने को नहीं कहा था कि ख़ुशी की मर्यादा ही टूट जाए |’’
‘’ मतलब ? ‘’ हम चौकें |
 ‘’ पड़ोस में चर्चा बनें हो | आजकल तुम अपनी उम्र से आधी उम्र की लड़कियों से खूब हंस-हंस कर बातें करते हो | नजरें गडाते हो | शायरी इत्यादि भी छेड़ते हो | हमारी छूट से तुममें  पुन: प्रेम कवित्व के गुण अंकुरित होने लगे क्या ?’’  पत्नी तीखे स्वर में बोली |
‘’ अरी पगली ... तुम्ही कहती हो खुश दिखो.. खुश दिखने के लिए हंसी बोलचाल कर लिया तो फिर ...?’’ हम बोले |
‘’ तुम पतिजात में यही बुराई होती है |ज़रा –सी भी राहत स्वरूप आजादी की हरी झंडी मिली नहीं कि अपने चरित्र की औकात भूल जाते हो | कुत्तेगिरी में उतर जाते हो | कुत्ते भी भी वफादार होते हैं | मगर तुम लोग |’’ तेजतर्रार पत्नी का आक्रोश शब्दों में स्पष्ट था |
  एक सीधे सादे पति के नाते मैंने उसे समझाने का प्रयास किया |
  ‘ डार्लिंग, बात ऐसी नहीं है ....|’’
‘’ तो कैसी बात है |’’ पत्नी का स्वर बिजली चमकने जैसा था |
   वैसे ईश्वर यहाँ अन्याय करता है | तेज तर्रार पत्नी के साथ सीधे सादे पति को भिडाता है
| जैसे कि हम | हमने कहा –‘’ दरअसल इन दिनों सहकर्मियों के बीच एस.एम्.एस. चुटकुले खूब कहे जा रहे हैं | वे अक्सर याद आते हैंतो मुस्कुरा लेते हैं |
‘’ चुटकुले सुनते होगें न ... मगर तुम तो शायरी सुनाने में फ़िदा हो | जानती हूँ अच्छे-अच्छे शायरों को जानती हूँ , वे शायर कैसे बने ?’
 अंतत: निर्णय कर हमने अपना रुख बदल दिया | पुरानी औकात में आ गए | तब कहीं जाकर पत्नी को रहत मिली | बोली-‘ आजकल  के मर्दों में वह प्राचीन मर्यादा नहीं रही कि औरत या लड़की इस तरफ से गुजरे तो मुंह उस तरफ फेर लें | अब तो ऐसे घूरकर देखते हैं जैसे सॉस लगाकर चट कर जायेंगे |”मैं चुप रहा |
  मैं ऐसे अनेक लेखकों की किताबें पढ़ चुका हूँ सफल पति बनाने के चक्कर मैं , जो खुद निजी जिंदगी में असफल पति रहे हैं |
  शादी के पूर्व पति जितना आजाद होता है दाम्पत्य जीवन में आते ही उतनी गुलामी से घिर जाता है | गुलामी दाम्पत्य जीवन की पहली सजा है | गुलाम पति ही पत्नी की नजर में शरीफ इंसान होता है | मेरी दोस्त की तरह सहकर्मी लड़की ने विवाह के सम्बन्ध में कहा –‘’ मैं ऐसे लडके से शादी करूँगीं जो नौकरी होने के साथ विकलांग हो |’’
  मैंने कहा –‘’ नौकरी पेशा वाली बात तो पाच रही पर साथ में विकलांगता ....?आजकल की लड़कियां तो सबकुछ ठीक-ठाक होते हुए भी रंग को लेकर लड़कों को अस्वीकृत कर देती हैं | मगर तुम्हारी सोच तो सबसे परे समझ में आती है |’’ मैंने कहा |
   वह बोली –‘’ देखो यार मैं पूरी आजादी से रहना चाहती हूँ विकलांग पति मुझ पर आश्रित रहेगा | वह यहाँ-वहां ऐसी वैसी हरकत करने से भी कतरायेगा | कतरायेगा क्या महिलायें उसे वैसे भी चारा नहीं डालेंगी | और मैं पूरी तरह पति की खैर खबर लेने से निश्चिन्त रहूँगी | वह उलटा मेरा गुलाम बनाकर जीएगा |’’
   उसकी सोच ने मुझे खामोश रहने को मजबूर कर दिया |
                        सुनील कुमार ‘सजल’

गुरुवार, 4 जून 2015

व्यंग्य – भाई से भाई जी तक


व्यंग्य – भाई से भाई जी तक

इन दिनों हमारे नगर में अनोखा फैशन उबाल मार रहा है फैशन से आप यह अंदाज न लगायें | छोकरों का अर्ध कूल्हा दिखाता जींस, खुली पीठ दिखाते ब्लाउज में महिलायें , टाइट सलवार कुर्ती,टी शर्ट में बदन झलकाती युवतियां ,खुले बदन में घूमते युवा जैसा फैशन |
 नगर में फैशन जो चलन में है वह है भाईजी नामक सम्मानीय शब्द का |पहले कभी लोग भाईजी कहते कहते नहीं पाए जाते थे लोग | बल्कि बॉस ,भाई साब, बड़े भैया , बड़े दादा ,बड़े कक्का, बड़े भाई ,बड़े इत्यादि |
फैशन तो फैशन है | बाजार में उतार दिए जाने के बाद वह भी चलन में आ जाता है | सो इन दिनों चलन में है सम्मानीय शब्द  का फैशन ‘’भाई जी ‘’| यूँ तो भाई साब अभी कहा जाता अपनों  को | पर पुराने टाइप के लोग कहते हैं | या फिर इस नए शब्द फैशन से स्वयं  को जोड़ नहीं पायें वे लोग |
 बॉस से भाई जी तक का सफ़र कर चुका है हमारा नगर | भाई अकेले शब्द को कहने में कहने कतराते है लोग | कहते हैं – मुंबई नहीं है हमारा नगर जो किसी को भी भाई कहकर मवाली बना दें |
  पहले कभी ‘भाई’ कहने पर कुछ शरीफ लोग बदमाशों के हाथ पिट चुके हैं |कुछ ने तो इस शब्द सम्मान के मामले को थाने तक पहुंचा दिया |इसलिए भाई के आगे ‘ जी’ जोड़कर सारे विवाद को ख़त्म कर दिया गया | ताकि शरीफ व् बदमाश एक हो जाएँ इस शब्द फैशन के दौर में |
आम आदमी भी अब अपने बीच के आम आदमी को भाईजी कहता है | भाईजी कहने के बाद वह पुन: विचार करता है | भाई के साथ उसने जी लगाया या नहीं | अगर शंका बनी रही तो वह सामने वाले का चेहरा भांपता है | प्रतिक्रया के लिए |
इन दिनों युवाओं में खूब चल रहा ही ‘’भाईजी’’| नए ब्रांड की दारू, गुटखे की तरह | लोग अपनों के नाम या सरनेम लेने की बजाय भाईजी कहना पसंद करते हैं | बिना भेदभाव,जात-पांत ,छोटे-बड़े का अंतर के |
 हर फैशन के पीछे शौक के साथ स्वार्थ भी पनपता है | मसलन फिल्म में नायक-नायिकाएं जितना ज्यादा बदन उघाराते हैं उनका मार्किट उतना ही तगड़ा होता हैं |
    दूसरा उदाहरण यह भी हो सकता है | मैं आपसे कहूं भाईजी सुपर मार्केट का रास्ता किधर है ? आप खुश होकर बताएँगे | रिक्शा वाले हो या दूकानदार सब अपने ग्राहकों को ‘’आइये भाईजी ‘’ से स्वागत कर बुलाते हैं |
 नगर के राजनैतिक कार्यालयों में जितने भाई हैं ,वे सब इन दिनों भाईजी से नवाजे जा रहे हैं | पार्टी में शालीनता बनाएं रखने के लिए पदाधिकारियों ने तो  एक आदेश के साथ  भाईजी जैसे शालीन शब्दों को नियमित अभ्यास के साथ इस्तेमाल करने हेतु शब्दों की सूची चस्पा कर दी है सूचना पटल पर |
  भाईसाब ? क्षमा करें | भाईजी ,हम तो बॉस से भाईजी तक का सफ़र कर चुके और आप ? बताइयेगा |
      सुनील कुमार ‘सजल’’

मंगलवार, 2 जून 2015

व्यंग्य –चौबीस घंटे बिजली का सरकारी वायदा


व्यंग्य –चौबीस घंटे बिजली का सरकारी वायदा

ग्रीष्म का आगमन हो चुका है | तपन लू  का दौर | पसीने की धार सी लगी है | इस भीषण ग्रीष्म को देखते हुए सरकार का वायदा है | वह चौबीस  घंटे बिजली देगी |
इधर सरकार ने किया देने का बिजली का वायदा | उधर विपाक्शियों की चिल पों शुरू | ‘’ जनता वायदे के बहकावे में न आए | बिजली का वायदा मात्र चुनावी वायदा है | ‘’ सच भी कहते हैं विपक्षी | चुनाव  की तैयारी में सत्ता पक्ष / सरकारें ऐसे ही उदारवादी वायदों से करती हैं |
 आम आदमी कहता हैं ‘’ क्या बिजली देने मात्र से गरमी घट जाएगी ? साब बजट आने के बाद महंगाई  की तपन से आम आदमी बेहाल है | पंखा कूलर खरीदने के लिए उसे सोचना पड़ता है | बिजली का बढ़ा बिल स्वस्थ व्यक्ति को हार्ट अटैक के दायरे में ला देता है | सच तो यहहै साब सूरज वायदा करे कि वह वैसा न ही तपेगा , जैसा तप रहा है | सरकारें चुनाव आगमन की आहात पर बिजली मसले पर उदारवादी होती हैं | खजाने के पट खुल जाते हैं | बिजली खरीदी के लिए| इधर सरकार दरिया दिल | उधर विद्युत कंपनियों के मन में पलता बढे दाम पर बिल वसूली का पाप | आम उपभोक्ता के लिए तय किए जाते हैं खपत के ऐसे ही रोड ब्रेकर |
सरकारें अक्सर वायदों का ‘रोशनी पर्व’’  चुनाव के वक्त ही अमल में लाती है | बाक़ी समय तो आदमी अँधेरे में ही जीता है | रोशनी के ठेकेदार जानते हैं चार दिन चाँदनी फिर अँधेरी रात का गम चुनाव काल के रोशनी पर्व से गलत किया जा सकता है | कारण देश का उपभोक्ता अगले क्रम को याद रखता है | वैसे भी महापुरुष सीख देते आए हैं | आगे की देखो | पीछे का भूलो | चुनाव के वक्त सरकारें महापुरुषों के पद चिन्हों पर चलने का प्रयास कराती हैं |
यानि पीछे का भूलाने के लिए और आगे का वक्त ठीक रखने के लिए जनता को वर्तमान से फुसलाना शुरू कर देती है | सरकार की चुनावी नीतिओ है | इतनी रोशनी फैलाओ | जनता चकाचौंध में चौंधिया जाए | बीते दिनों के अन्धकार को भूल जाए | बस उसी का उत्सव है | चौबीस घंटे बिजली देने का वायदा |
   इधर साहब को शिकायत है | रातों में उनकी नींद पूरी नहीं होती | वे देर सुबह जागते हैं | कारण यह है कि रातों में बार-बार नींद का टूटना और दफ्तर देर से पहुचने का सिलसिला कई दिनों से चल रहा है | उन्हें गहरी नींद न आने का अर्थ यह न लगाएं कि वे डायबिटीज , हार्ट रोग जैसी बीमारी से ग्रस्त हैं | वस्तुत: वे गरमी से परेशान हैं रातों में बार-बार होने वाले पॉवर कट और बंद होते कूलर एसी. से | जबकि सरकार  चौबीस घंटे बिजली देने के वायदे पर काम कर रही है | वे अनिद्रा की परेशानी पहचान के आम आदमी से बता रहे हैं |
आम आदमी ने कहा –‘’ साब सरकार तो  बिजली चौबीस घंटे दे रही है | फिर भी आप सो नहीं पा रहे है | क्या घर में शीतल प्रदायक यंत्र नहीं है | ‘’ कैसी बात करते हो यार | सब कुछ है |’ साहब बोले |
 ‘’ फिर भी कष्ट ? कहीं अनिद्रा की बीमारी तो नही है आपको ?’’ आम आदमी ने शंका जाहिर की |
‘’ यार तुम जैसे आम आदमी में यहीं पर मूर्खता  झलकती है | सरकारी वायदे या आश्वासन पर खुश होकर गहरी नींद लेने लगते हो |देखते नहीं घंटा भर बिजली रहने  के बाद बीस से चालीस मिनट का पॉवर कट होता रहता है |” साहब तनिक ने खीझकर कहा |
 ‘’ पर हमें तो नींद आती है | साब इत्ता पॉवर कट तो चलता है | फिर नींद लगा जाए तो पॉवर कट रहे या पॉवर प्लस अपने को होश नहीं रहता |’’ आम आदमी ने संतोष भरे स्वर में कहा |
‘’ कैसे इंसान हो यार ? बिजली गुल होने पर नींद नहीं खुलती ? दारू वारू पीकर सोते हो का ? साहब के स्वर में पहले जैसी खीझ | ‘
 ‘’ का है साब कि हम जैसे हर परिस्थितियो में अनुकूल होते हैं | बिजली रहे तो ठीक | न रहे तो ठीक | हर हाल में मस्त होकर जी लेते हैं | ‘’आम आदमी ने कहा |
‘’ तभी तुम सरकार  के वायदे का गुणगान कर रहे हो | सच कहा है किसी ने तुम जैसे लोगों के दम पर लोकतंत्र ज़िंदा है |’’ साहब ने कहा |
   साहब परेशान हैं | रातों में बिजली कि कटौती व् आम आदमी के जवाब से | सरकार खुश है आम आदमी के मुख से उसके गुणगान से | आम आदमी खुश है सरकार के वायदों से | कारण कि आम आदमी सरकारी वायदों पर जीता है |
  अब साहब को पॉवर कट को लेकर नींद न आये  तो सरकार व् आम आदमी क्या करे |
              सुनील कुमार ‘’ सजल’’

सोमवार, 1 जून 2015

व्यंग्य- हसीना और पत्रकारिता


व्यंग्य- हसीना और पत्रकारिता


उस हसीना को जाने क्या सूझा कि उसने पत्रकार बनाने को ठान ली | यूँ तो हसीना पहले मॉडलिंग कराती थी |फेमस थी | नाम था उसका मॉडलिंग की दुनिया में | फैशन के हर आयाम को छूती थी | प्यार-व्यार के प्रसंग में भी बनी रहती थी | मगर अब पत्रकार ? दिल तो टूटना ही था दीवानों का , प्रशसंकों का | कुछ लोग नसीहत देते नजर आये |’’ यार तुम भी न अत्रकार पत्रकार के चक्कर में पड़ी हो | अच्छा खासा मॉडलिंग का बिजनेस है | उसी में मस्त रहो | क्यों पत्रकार बनाने की जिद में अदि हो | तुम्हारे हसीं चहरे के न जाने कितने दीवाने है | क्या जवान क्या बूढ़े | सब तो तुम्हारा गुणगान गाते हैं | जब  तुम गलियों से गुजरती हो तो लगता है लू लापत की भरी दुपोअहरी में भी बहार आ गयी | हमारी सलाह मानों पत्रकार मत बनो | मगर हसीना है कि पत्रकार ही बनाना चाहती है | उसका कारन यह है कि हसीना ने देखा कुछ फ़िल्मी हिरोइन फिल्म में पत्रकार का रोल करके अमर हो गयी | बस यही बात हसीना के दिल में बैठ गयी | इधर मॉडलिंग एजेंसियां उसे मना रही हैं | यह भूत  कहाँ से लग गया | कहो  तो तुम्हारा पारिश्रमिक बढ़ा दें | भई इस व्यवसाय से क्यों नाखुश को क्या हमने कुछ कहा | कहो तो क्षमा मांग लेते हैं | आपके मुताबिक़ चलेंगे | हसीना मुस्कुराती है | पर कुछ नहीं कहती | जानती है भाव बनाने से भाव बढ़ते हैं | उसका मार्किट है विज्ञापन की दुनिया में उसकी अलग पहचान है | हसीना कहती है – ‘’ हालांकि पत्रकारिता चुनौती पूर्ण काम है | पर वह हमेशा चुनौती को ही स्वीकार कराती है |’’ हसीना जानती है | ऐसा बयान देने पड़ते हैं | तभी काम चलता है | भले ही वह काकरोच या कि फिर चूहों से डरे | बयान में चुनौती का समावेश जुबान की कीमत को बढ़ा देते  है |
इधर बुढाऊ से लेकर जवान पत्रकारों तक के दिल खिल उठे हैं | जब सूना कि उनके शहर की एक खूबसूरत हसीना उनके व्यवसाय जगत में प्रवेश कर रही है | तबियत मचल उठी है | पत्रकार लोग उसे तरह-तरह से आकर्षित करा रहें हैं | वेलकम | देखी घबराइये नहीं | हम हैं न | आप सिर्फ समाचार कलेक्ट करी | कॉपी ,एडिटिंग., प्रूफरीडिंग का सारा काम हम कर देंगे , यदि आपसे न बने तो कोई बात नहीं | हम आपके साथ हैं | बस आप प्रेस तक मैटर पहुचाने का काम करी | यदि आप आज्ञा दें तो अपने मालिक से बात कर लें | अपने प्रेस में ज्वाइन करा लें |
 हसीना जानती है उसे इतने सहयोगी क्यों मिल रहे हैं | वैसे हर स्त्री को इतना तो पता होता है | अगर पुरुष उससे इतना चिपकाने की कोशिश करता है तो उसके पीछे कारण क्या है | हसीना का मानना है, तरक्की वही करता है जो अपनी खूबियों का इस्तेमाल कर आगे बढ़ता है | ऐसी सूक्ति पहचानने की उसे अच्छी समझ है | सो वह अपने चाहने वालों पत्रकारों से कहती है ,-‘’ जी सब कुछ तो आप हैं | अपन तो ए.बी.सी.डी नहीं जानते | इधर समाज के कुछ शुभचिंतक को चिंता है | कहीं यह लड़की भी बाद में न पछताए | वे समझाने की कोशिश में लगे हैं | ‘’ देखो लड़की ये दुनिया बड़ी बेरहम है , स्वार्थी है | मतलब तक तुम्हारे साथ है | फिर? “” मगर हसीना स्वयं में मस्त दुनिया से अच्छी  तरह परिचित है. | उसे क्या है समझाना ऐसा वह मानती है | फिलहाल तो वह पत्रकार बनाने जा रही | आगे उसे क्या होगा क्या नहीं ? यह तो आपको भी ख़बरों से पता चल जायेगा |
     सुनील कुमार ‘सजल’ 

शनिवार, 30 मई 2015

व्यंग्य – अपने-अपने गणित


व्यंग्य – अपने-अपने गणित


गणित के मामलों में कमजोर रहा हूँ | पढाई के दिनों में गणित मेरे लिए मेरी बेवफा प्रेमिका सी रही | परीक्षा उत्तीर्ण करने में नक़ल ने अवश्य ही वफादारी निभायी | कहते हैं न हर पुरुष की सफलता के पीछे स्त्री का हाथ होता है ठीक उसी तरह |
  अब नौकरी में आ गया हूँ | गणित की जरुरत तो यहाँ भी होती है | पर वह गणित जो मुझे स्कूल के दिनों में रुलाती थी | जिसके कारण गुरुजनों की ठुकाई पड़ने के उपरांत मेरा शारीरिक आयतन बढ़ाती थी | यहाँ मात्र आंकड़ों के जोड़-तोड़ से फायदे का हिसाब – किताब हो जाता है | सो यह जोड़-तोड़ अपने बड़े भाइयों ने मुझे सिखा दिया , जो इस खेल के महान खिलाड़ी हैं | वे अंतरराष्ट्रीय पदक प्राप्त नहीं रहे परन्तु साहब कि नज़रों में पदक प्राप्त हैं |
  यारों, मुझे गणित की आवश्यकता का रहस्य उस वक्त समझ में आया | मैंने पाठ्यक्रम की गणित के अलावा लोगों के अपने – अपने ईजाद किए गणित देखे | इस युग में ऐसे ही गणित की सख्त आवश्यकता है | ऐसा मैंने महसूस किया |
   आज गणित का विकास जारी है | शून्य के ईजाद से लेकर आज तक में अनोखे गणित सामने आये | इस वैज्ञानिकी कार्य में शालीन से लेकर शातिर खोपाड़ियाँ जुटी हैं |
 देश के विकास में गणित का हाथ, विकास के आंकड़ों का खेलमें गणित का हाथ | भ्रष्टाचार की मिजान बिठा लें, या सत्ता हथियाने प्रपंच रचें | आवश्यकता गणित की पड़ती है |
  खेल प्राधिकरणों का घोटाला यूँ ही सामने नहीं आ गया | पहले गणित के सहारे घोटाले के अंक बिठाए गए | फिर पोल खोलने वालों ने आंकड़ों की सेटिंग पर सवाल  उठाये | इस तरह गणितीय आंकड़ों ने आंकड़ों की पोल खोली |
  पिछले दिनों एक सर्वे संस्था ने अपने आंकड़े के आधार पर कहा कि देश के सरकारी स्कूलों का स्तर  गिरा है | इसके पहले भी कई सर्वे संस्थाएं यही कहती रही हैं | हमें तो शक होता है इनकी रपटों  पर | वर्षों से सरकारी स्कूलों को बदनाम करने की साजिश आंकड़ों के सहारे चलती रही है | फिर भी लोगों की गणित मजबूत होती रही | हमने अपने शिक्षकीय जीवन के अनुभव में यह पाया , जो हाई स्कूल की परीक्षा में चार साल तक कुलटनी खाए और अंत में स्कूली जीवन से विरक्ति ले लिया | वे राजनीति में जोड़-तोड़ का गणित बिठाकर , भैया जी बन गए | आज वे भ्रष्टाचार , कमीशनखोरी ,घोटाले,ठगी,गबन की गणित में अच्छे –अच्छे गणितज्ञों को पानी पिला रहे हैं |उन्हें कोई चैलेन्ज कर यह नहीं कह सकता कि वे गणित के मामलों में पहले कभी फिसड्डी रहें हैं |
हमारे पड़ोसी रामलाल सट्टे के महान खिलाड़ी हैं | वे कहते हैं – ‘’ लोग सट्टेबाजी में बरबाद होते हैं | हम आबाद हुए हैं | हमारे खुला खर्च करने का जो गणित है न वह सट्टे से  प्राप्त लाभ है |’’  वे तिर्यक ,सीधे,आड़े,त्रिभुजीय व् चतुर्भुजीय तरीके से ‘’ सट्टा अंक चार्ट ‘ से ऐसा अंक निकालते हैं | अच्छे –अच्छे सट्टेबाज व् सटोरिये दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं | प्रतिदिन वे चुकारा ( भुगतान) लेते हैं |
  एक दिन तो सटोरिये ने कह दिया –‘’ गुरुदेव, अब हम आपकी अंक जोड़ी नहीं लेंगे | अब खुद तो लगाते हो , औरो का भी भला करते हो | साब आपके  इस हितार्थ से हम नंगे हुए जा रहे हैं | कृपया यह नैतिकता न अपनायें | कहते हैं जो जिस क्षेत्र में भीड़ कर कार्य करता है, उसमें लाभ का मक्खन निकालने का ट्रिक्स भी सीख जाता है | साब हमारे सरपंच जी के पास पन्द्रहवां हिस्सा पहुंचता है | ( ऐसा नेता कह गए | ) अब .. सरपंच जी क्या करें | पन्द्रहवें हिस्से में से वे कैसे खाते कैसे विकास दिखाते | सो उन्होंने कागजों में विकास का गणितीय स्वरूप चतुर अफसरों से सीख लिया | अब पन्द्रहवें हिस्से में भी फायदे का ‘’ कमीशन’’ सेट कर लेते हैं | और जनता ? विकास के सपने में खोयी विकासीय गणित के अंकों को समेत रही हैं |
  इधर पड़ोसन भाभी जी  का गृहस्थ गणित अलग तरह का है | उसमें उसने शुरू से ही कंजूसी का फार्मूला एड कर रखा है | जिससे जिससे उनकी  गृहस्थी के विकास का ग्राफ ऊपर चढ़ता रहा है | भाभीजी  का फार्मूला है ‘’ खाना उतना ही बनेगा जितना आम दिनों का औसत है | किसी दिन मेहमान आने की स्थिति में भूखा रहने की नौबत आयी तो रहना पडेगा | इस’ बचत चक्र ‘ के गणित से भय खाकर उनके  घर में मेहमानों के पधारने का गणित बेहद कमजोर है |
आज हम दुखी हैं | कैसे भी हो हमें गणित में पारंगत होना था | काश गणित के खिलाड़ी होते तो हम भी आंकड़ेबाजी के बादशाह होते हैं | यूँ ही हमें प्रजा  की भाँती ‘ जी हूजूरी’ न करना पड़ता |
           सुनील कुमार ‘सजल’’

व्यंग्य- कचरे में उपजी दिव्य सोच


व्यंग्य- कचरे में उपजी दिव्य सोच


नगर के कुछ युवाओं को नया शौक लगा |शौक था साब,साफ़-सफाई समिति गठित कर कचरा साफ़ करने का |ऐसा नहीं कि नगर में नगर पालिका नहीं है |या अपने कर्तव्य से विमुख हो |
  जरुरी नहीं कि कचरा केवल रद्दी सामग्री का हो |कचरा समिति की नजर में कई प्रकार के कचरे थे | मसलन महंगाई,बेरोजगारी,अपहरण,लूटमार,रिश्वतखोरी तथा बलात्कार आदि |
समिति का निर्णय था कि कचरा तो धर का भी निकलता है | मगर यह कचरा साफ़ करना तो जरुरी होता है | तभी सफाई दिखती है |और कहते यह भी हैं जहां सफाई है , वहीँ लक्ष्मी वास कराती है | इसलिए समिति ने भी कचरा साफ़ करने का ठान लिया |
   समिति में सदस्य जोड़े  जाने लगे | सदस्यता शुल्क ली जाने लगी | कारण कि बिना धन खर्च किये समिति नहीं चलती | न कचरा साफ़ किया जा सकता | कचरा साफ़ करने के नाम पर चन्दा देने में लोग वैसे भी कतराते हैं | चालाकी से वसूलना पड़ता है | इसके लिए नेताओं की बांह पकड़ना पड़ता है \ ताकि उसे यहाँ भी राजनीति दिखे और वह झट से चन्दा दे जनता की बुद्धि छोटी होती है इसलिए वह कचरा को सिर्फ कचरा समझती है | मगर नेता और अफसर दूर की सोचते हैं | वे जानते हैं कचरा कहाँ से आता है , कैसे आता है , क्यों आता है | और उसे क्यों फैलाया जाता है इसलिए वे जनहित की कैमिस्ट्री को दिखाने के लिए चन्दा दे देते हैं | समिति का गठन जारी था | बड़े-बड़े संकल्प | संविधान | सफाई सामग्री | बैठकें | जोश , हुंकार, चाय – नाश्ता , रोज का क्रम |
  समिति में  सामान्य बुद्धियों के अलावा चतुर बुद्धियाँ भी शामिल थी | इनका काम समिति के सामान्य लोगों को आदेश देकर काम करवाना होता है | जिस समिति में यह विशेषता नहीं पायी जाती वे समितियां बरसाती नाले के हश्र को प्राप्त कराती हैं | समिति ने अपना काम प्रारंभ कर दिया | पता क्या जा रहा है कि नगर में किस प्रकार का कचरा सर्वाधिक है |
  बैंठकें चल रही हैं | एक चतुर बुद्धि-‘’ यार अपने यहाँ कचरा बहुत है | इतना जटिल कचरा तो खटके से साफ़ नहीं किया जा सकता \ सरकार से लड़ना होगा कि कचरा को साफ़ करने के लिए संसाधन उपलब्ध कराये | वर्त्तमान में अपने पास उपलब्ध संसाधन पर्याप्त नहीं है |’’
   समर्थकों कि तालियाँ | नारे जिंदाबाद| कचरा मुर्दाबाद के नारे | रोजाना यूँ ही बैठकें \
  एक समय के बाद | दो बुद्धियों में विचार – विमर्श | ‘’ देख यार समिति ने जिस प्रकार के कचरे को उठाकर फैंकने का संकल्प लिया हैं . वह कतई ख़त्म नहीं हो सकता |’’
‘’ अबे, बेवकूफ क्यों बनाता है | यह तो देश की जनता भी जानती है | कचरा चाहे जैसा भी हो \ वह कभी ख़त्म न होने वाले चीज है | इसके लियर तनिक भी परेशां मत हो कि कचरा स्थायी रूप से साफ़ करना है | ‘’
  ‘’ पर चन्दा ... जनता बिफरे न | समिति पर अंगुली न उठाये कि चन्दा वसूलते वक्त नेताओं की तरह सब्ज बाग़ दिखाते हो, बाद में ...|’’
‘’ यार उसका भी उपाय है | कचरा उठाओ और उस दिशा में ले जाकर फेंक दो जिस दिशा से कचरा आ रहा है | जनता तो तात्कालिक चमत्कार की दीवानी होती है | जनता को समझाया जा सकता है, भाई , कचरा तो उड़ने वाली , बहाने वाली चीज है \ कुछ दिन पहले ही उठाया था | दूर ले जाकर फैंका | मगर बदलाव की हवा क्या चली कि वह पुन: उड़कर आ गया | अब आप बताओ क्या करें | जनता भोली है यार | तभी न इस देश में लोकतंत्र , राजनीति, अफसरशाही व् कचरा कायम है |’’
‘’ यार तू ठीक कहता है \ पर अपन महंगाई , बेरोजगारी , भ्रष्टाचार जैसा कचरा कैसे साफ़ करेंगे |’’
‘’ बड़ा आसान तरिका है | सत्तारूढ़ से लोगों को पटाया जाए \ उनसे आशीर्वाद लेकर दिखावटी सफाई का तरिका अपनाने हेतु जनता के सामने आश्वासन फेंका जाए | ठीक वैसे ही जैसे सरकार भ्रष्टाचार मिटाने का दंभ भरने के लिए सरकारी कर्मचारियों के घर लोकायुक्त/सी.बी.आई  से छापे डलवाती है | ताकि जनता को लगे कि राज्य में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान जारी है | मगर सता के गुरु घंटाल इस अभियान के चपेट में नहीं आते | हम भी सफाई अभियान का यही हश्र करेंगे | यानी नेताओं के सहयोग से कचरा तो साफ़ साफ करने का दिखावटी चलाएंगे | मगर उसी दिशा में ले जाकर फैकेंगे जहां से वह उड़कर आता है | बस इसी तरह राजनीति वालों व् अपने लिए कचरा सफाई अभियान का मतलब बरकरार बना रहेगा |
   दूसरी बुद्धि को बात समझ में आ गयी \ आज राजनीति संगठन का भरपूर सहयोग कर रही है | संगठन विस्तार की दिशा में बढ़ रहा है | धर्म व्यवसायी , समाज जगत की स्थानीय हस्तियाँ  भी संगठन में आ गए हैं | कचरा हटाया जा रहा है | 
  श्रमदान ,धनदान,बरकरार है | फिर भी कचरा समाप्त नहीं हो रहा है | बदबू वातावरण में व्याप्त है | मगर जनता निश्चिन्त है | कहती है – ‘’संगठन की पहल प्रशंसनीय है एक न एक दिन वह कचरा साफ़ करके रहेगी | आस पर तो दुनिया टिकी है |
                          सुनील कुमार ‘’सजल’’ 

शुक्रवार, 29 मई 2015

व्यंग्य- अच्छे दिन की जप क्रिया


व्यंग्य- अच्छे दिन की जप क्रिया


यार, भैया  हम तो अजब संकट से गुजर रहें हैं | मोहल्ले पड़ोस मीडिया गाँव –घर  के नेता , ये मोहल्ले वाले वो मोहल्ले वाले , आयोजन गोष्ठी , भाषण वालों ने हमें बताया है कि कक्का अब निश्चिन्त हो जाओ | अच्छे दिन आ रहे हैं | हम तो येई सोचकर परेशान है कि कैसे अच्छे दिन ? अच्छे दिन का अर्थ तो कोई बताता नहीं | कहते भर हैं अच्छे दिन आ रहे हैं | कहीं ऐसा तो नहीं शनि की अढ़ैया कटने वाली हो हमारे ऊपर से  | काहे की गाँव के दीनदयाल महाराज हमें आज से दो   साल पहले कहे थे – ललुआ , बेटा जा शनि तुम्हे और सताएगा | काहे की तुम्हारे ऊपर शनि कि अढ़ैया चल रही है | फिर शनि की साढ़े साती चलन कि उम्मीद है | ‘
हम जब से किसान के घर में जनम लिए हैं , तब से हर ज्योतिषी के मुख से अपने ऊपर शनि का प्रकोप सुनते आ रहें हैं | सारे जाप हवन  करा डाले फिर भी ... जहां के तहां |
   अच्छे दिन की बात सुन के हम बड़े टेंशन में हैं साब | एक दिन हमने उनसे पूछा था | ‘’ दादा , अच्छे दिन का अर्थ तनिक हमें भी समझा दो |’’
 वे बोले –‘ देखते जाओ खुद आ जायेंगे तुम्हारे पास | ‘’
हम तो यही  सोच कर परेशान हैं काहे से आयेंगे ? बैलगाड़ी,/ मोटरगाड़ी, /ट्रक,/ रेलगाड़ी / नेताजी कि गाडी /भाषण / आश्वासन/ रैलियों  / गोष्ठियों/में लदकर या उसके सहारे आयेंगे ?
ज्यादा पूछो तो वे सीधे मुंह बात नहीं करते | उलटे फटकारते हैं –‘’ यार कक्का अभी हमाव दिमाग मत खाओ | हम अभी बड़े व्यस्त हैं | तुमाव लाने अच्छे दिन लाने में लगे हैं  | तनिक तुम भी सांस लो, हमें भी लेन दो |
कहीं ऐसा तो नहीं ,यह हों अच्छे दिन? सरकार मुफ्त में राशन बांटने वाली हो  |फिर का कि बाढ़ वाले इलाके में जैसे अनाज के पैकेट टपकाते हैं वैसी हमारी झोपड़ी के ऊपर टपकायें | भैया हमारे लिए तो तब भी  वेई दिन थे आज भी वैसई  हैं |
  सरकार के  आश्वासन/ सुविधाओं मिलने के झांसे में आकर हमाव बेटा कंगलू आज भी आधार कार्ड , वोटर आई.डी,परिवार आई.डी नम्बर हाथ में धरे ये दफ्तर से वो दफ्तर चक्कर कट रहा है |
  हम सोचे चलो विराझा भैया  से ‘ अच्छे दिन का मतलब ‘’ पूछ  आते |वे सांसद के लेफ्ट हैण्ड कहाते हैं | मगर जेब में  नई है धेला | तीन माह से हमारी वृद्धा पेंशन भी नहीं मिली है | नई तो उन्हें गोवर्धन कि होटल में कट चाय पीवा के पुटियाते  और पूछते कैसे अच्छे दिन आने वाले हैं |
टी.वी.समाचार  वाले इत्ता घुमा फिरा के बताते है कि कछु समझ में नहीं आता | हाँ इत्ता जरुर है नेताओं के अच्छे भाषण जरुर आ रहे हैं |
 बहस वाले कार्यक्रम देख के ऐसा लगता है कि ये लड़ रहे हैं कि योजना समझा रहे हैं | जुबानी लड़ाई के  वक्त ऐसे लगते जैसे मोहल्ला के छुटके  बच्चे चुक्कल (एक तरह का ग्रामीण खेल जिसमें एक वस्तु को थोड़ी दूर फेंककर उस पर किसी अन्य  वस्तु से निशाना लगाना )खेलते खेलते लड़ पड़ते हैं |
भैया हमारे बाप- दादाओं ने अच्छे दिन का मतलब कुछ और समझाये थे | सरकार कछु और समझा रही है |बाप-दादा कहते थे सप्ताह में सोमवार ,गुरुवार और शुक्रवार सबसे अच्छे दिन होते हैं | पूजा-पाठ, व्यापार, व् लेनदेन कछु भी करो शुभ होता है | आज भी हम वही मानते आ रहे हैं |
 मगर सरकार  तो एक नई बहस छेड़ दी है अच्छे दिन की | का आठवां दिन भी जुड़ गया सरकार के पंचांग में ? येई बात तो हमाई समझ में नई आ रही है |
 परसों रामलू भी कह रहा था | ‘’ काका, ये कैसे अच्छे दिन आ रहे तनिक हमें भी समझाओ | तुमने बाल सफ़ेद करो है लोकतंत्र कि आवोहवा में | बस जा दफ्तर से बा दफ्तर चक्कर काटने अलावा कछु नई है ये अच्छे दिन में | ओला वृष्टि के मुआवजा पाने के लिए  ओला पीड़ित हकरू गोंड दफ्तर ,बैंक के चक्कर काटते-काटते थक गया |कर्जा न पटा सकने के कारण फांसी में लटक कर मर गया....  | ‘’
‘’अरे यार तुम भी नेता की संगत करने लगे का |’’
 ‘काहे काका का बात हो गयी |’’
‘’ तुम ऐसे भाषण पेल रहे हो जैसे नए-नवेले बैल को हल में फांदकर खेत में उतारने से या तो वो अड़ी कर बैठ जाता है या फिर रोके नहीं रुकता | जा बताओ पढ़े-लिखे तुम हो कि हम | जब तुम्हारी समझ में नहीं आ रहे हैं ‘’अच्छे दिन’’ तो हम जैसे गरीब , महंगाई के मारे मजबूर, मजदूरन जिंदगी को ख़ाक समझ में आएगा | येई से कहते बेटा इस लोकतंत्र में सिर्फ दिन गिनो | आजादी के बाद से हम दिन गिनते आ रहें | अब भी गिनते रहेंगे ‘’अच्छे दिन सोमवार,गुरु.... ,बुरे दिन मंगलवार शनि ......| बस येसई ...समझे |
   सुनील कुमार ‘’सजल’